मंगलवार, 27 जुलाई 2010

१२ कविता

मेरा शाहर
डॉ. किशोरी लाल व्यास
मेरा शहर---बाग़ बगीचों कोहरे भरे उपवनों कोपारदर्शी सरोवरों कोखेल मैदानों कोचबाकरकचड्... कचड् खा रहा हैऔर लोहे-सीमेंट कीगगन चुंबी अट्टालिकाएंउगा रहे !आक्टोपस-सा/बढ़ता ही आ रहा है ।
मेरा शहरचिमनियों-वाहनों के धुएं मेंअपने घाव, अपने नासूरछिपा रहा है और गर्द-गुबार में धूल मे लिपटा खाँस रहा है !मेरे शहर के उदर में कूडे-कर्कट के ढ़ेरउग आये हैंकुकुरमुत्ते की तरहऔर इसके फेंफडों मेंरेंगते है राजयक्ष्मा के अदृश्य कीटाणु ।मेरे शहर की रगों में दौड़ती है गंध भरी नालियाँऔर निश्वास में फूट पड़ता है ज़हरीला प्रदूषण ।
मेरे शहर के बच्च्ेखाँसते है खाते है, टी.वी. देखते है खेलते नहीं खेलेंगे भी कहाँसारे मैदान/सारे बाग बगीचे/सरोवर-तड़ागगगन चुम्बी अट्टीलिकाआें में हो गये है तब्दील।
टूटने की हद तकबोझ ढो रहा है मेरा शहर !
बिसुर रहा हैविधवा-साश्रीहीन होकररो रहा है मेरा शहर !***

कोई टिप्पणी नहीं: