मंगलवार, 27 जुलाई 2010

३ विशेष लेख

सृजन के बीज
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
बीज ही तो सृजन का आधार होते हैं । बीजो में जीवंतता प्रसुप्त् रहती है । जो अनुकूलता पाते ही अंकुरा जाती है । बीज से ही धरती मातृत्व पाती है । बीज ही जैव विविधता के प्रस्तोता होते हैं । बीजों के सहारे जैव संपदा संरक्षित रहती है । बीज ही विराट के रूपक है । बीज ही सृष्टि के सूचक हैं । बीजांे से ही प्रारम्भ है, बीजों में ही अंत है । बीज की अनंतता को हर कोई जानता है । बीज ही सर्जना की थाती है, बीज ही महत्व की पाती है । बीज के हर महत्व से हम सभी वाकिफ है । इसीलिए किसान खेत में फसल पकने पर ही यह देख लेता है कि खेत के किस भाग में अगली फसल हेतु उत्तम बीज मिलेंगे । वह उन्ही बीजों का चयन कर उन्हे जतन से सहेज लेता है अगली फसल में उन्ही बीजों को खेत में छिटकाता है । किसान ही तो हमारा अन्नदाता है । वह यह जानता है कि बीज कुदरत की ऐसी नियामत हैं जिन्हें उनके मूलरूप में प्रयोगशाला में नही बनाया जा सकता है । हमारी सनातन संस्कृति में बीजों को सहजने का प्राधान्य है । हमारी पर्वोत्सव परम्पराआें में बीजों की पूजा का विधान है । नवरात्र पर्व पर विशेष रूप से जलघट पर बीज मिले गोबर की थाप का रिवाज है । नमी पाकर बीज जबारे बन जाते हैं जिन्हें हम प्रसाद रूप में पाते हैं । बीज समिधान की प्रसादी के साथ नवान्न की खुशी मनाते हैं । सृष्टि मे सबकुछ बीज रूप में रक्षित है । महिलाआें में बीजो के रखरखाव के प्रति समर्पण भाव रहता है । बीजों के प्रति संवेदी महिलाएं अपने घर के साथ लगी छोटी सी जमीन पर ही क्यारियाँ बनाकर उनमें भाँति भाँति के बीज उगाती है । पौधे बनने और फसल पकने तक बच्चें की तरह उनका पालन करती है । गोबर की खाद देती हैं । यह महिलाएं गऊ भी पालती हैं उनका उपले जमा करने का गोहाल भी पौध क्यारियों के समीप होता है । यह महिलाएँ बीजों का आदान प्रदान पास पड़ौस में करती है । उनकी छोटी सी बीज प्रयोगशाला यानि पौध शाला बड़ी ही अनुकरणीय होती है । उनके कोठार की हाँडियाँ अनाज के स्वस्थ एवं पृष्ट दानों से भरी रहती है । फसल-दर-फसल दुर्लभ बीजों के संकलन के इस अभियान में वह योगी की तरह लगकर धन्य रहती हैं । आडे वक्त में उनकी यही कला तो काम आती है । किसी भी आपद स्थिति में विस्थापन होने पर सहेजे गए बीज ही तो जीवन का आधार बनते हैं । स्वावलम्बी सुदीर्ध बीज परम्परा को पर्वतीय जनकवि घनश्याम सैलानी ने भी समझा तभी तो उन्होने कहा है - अन्न कु कोठार धौ,बीज कु भण्डार धौ,अजु पैछु उधार धौ,आपस मा प्यार धौ,कनु पुराणु बीज थौ,धरती व ई माही को । अर्थात अन्न की अपनी भण्डारण व्यवस्था (कोठारी) थी । नाना प्रकार के बीजों का अपना भण्डार था । वक्त जरूरत पड़ने पर बीजों का आदान प्रदान होता था । सभी लोग आपस में प्यार मोहब्बत से रहते थे । यह सब अच्छाईयाँ धरती माता तथा उपजाऊ मिट्टी से उत्पन्न सहेजे गये पुराने बीजो के द्वारा ही संभव थी । सभ्यता के विकास के साथ साथ जब मानव कृषि कार्योंा में दक्ष हुआ तो उसने बीजो की विविधता को और भी अधिक शिद्दत से जाना । फसलों के प्रकारों तथा कृषि चक्रान्तरण को पहचाना । उसने स्वाद तथा स्वास्थ्य को समझा । उसने व्यंजन बनाने की विधियां विकसित की तभी तो भारतीय संस्कृति में छप्पन भोग का दर्शन आया । खेती-किसानी की तरफ रूझान बढ़ा जिससे बीज समिधान आजीविका बना । बच्च-बच्च भी यह जानता है कि पेड़-पौधो में वंश वृद्धि कैसे होती है । कृषि संस्कृति का विकास हुआ । बीज संग्रह, विधायन तथा भण्डारण की उन्नत विधियों विकसित की रीढ़ बने । बीजों की साज संभाल देशज विधि द्वारा निर्मित कुठलो (बीज पात) में रखकर की जाती थी । तथा भण्डारण काल में पीड़क कीड़ों तथा कीटों से रक्षा हेतु, नीम की सूखी पत्तियों आदि के साथ रखकर उनकी देखभाल निरापद ढंग से की जाती थी । धीरे-धीरे उन्नत प्रजातियों के बीजों के बोने का प्रचलन बढ़ा । अच्छी अच्छी नस्लों के उन्नत बीजों को खोज कर पारस्परिक आदान प्रदान से बड़े भूभाग पर उनका वितरण एवं प्रकीर्णन हुआ जिससे जैव विवधता को बल मिला । बीजों का यह लेन-देन सहज स्फूर्त रहा । यह एक नैसर्गिक अनुबंध था । बीज बाँटने का चलन आज भी हमारी लोक संस्कृति एवं पर्वोत्सव परम्पराआें से जुड़ा हुआ है । अपनी धरती के अनुरूप अपनी जलवायु तथा मिट्टी के अनुरूप बीज चयन का अधिकार हमारे पास सुरक्षित है । हमारे पास विविधता पूर्ण फसलों के चक्रान्तरण की व्यवस्था है जिससे खेत सदा उर्वर रहते है हमारे बीज जलवायु के अनुरूप रहे हैं । हम और हमारे खाद्यान्न बीज परस्पर पूरक रहे हैं । किन्तु देखा जा रहा है कि अब हम अपनी स्वावलम्बी बीज परम्परा से इतर परावलम्बी कृषि व्यवस्था में प्रवेश कर रहे है । अपने ही बीजो के विधायन (प्रोसेसिंग) द्वारा उन्हें उन्नत बनाने के तो हम पक्षधर है किन्तु यदि हम बीजों के मूल रूप से खिलवाड़ करें तो वह कदापि उचित नहीं । हमें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के इस षड़यंत्र से सावधान होना होगा । परावलम्बन हमारी भूख को और भी भयानक कर देगा, क्योंकि तब हम बीजों के लिए भी भिखारियों की तरह हाथ फैलाएँ होंेगे । प्रश्न यह है कि बीजो से खिलवाड़ करने का बीजमंत्र कहाँ से आया ? हम सभी यह जानते हैं कि पेड़-पौधे अपनी वंशवृद्धि करते हैं । वनस्पतियाँ बीजांकुरण से जन्मती और पनपती हैं किसी विशेष प्रजाति की वनस्पति के बीज ही उसकी संततियों के प्रस्तावक होते है । सन् १८६५ में बूनो, चेक गणराज्य के संत थॉमस मठ के बाग में फादर ग्रिगोर मेंडेल ने मटर के बीजों पर प्रयोग किये और अनुवंशिकता की परिकल्पना तथा सिद्धांत प्रस्तुत किये । श्री मेंडेल के काम को सन् १९०२ में थॉमस हेट मोर्गन ने आगे बढ़ाया तथा पौध सुधार में अनुवांशिकता के सिद्धांत के प्रयोग जीन (पित्रैक) उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) द्वारा किये गए । तत्पश्चात उन्नीसवी सदी के मध्य में वॉटसन एंव क्रिक वैज्ञानिकों ने डी एन ए (डी ऑक्सी राइबोन्यूक्लिक एसिड) की संरचना को खोजा जिससे जीव विज्ञान में आण्विक अनुसंधान को बल मिला । आण्विक विज्ञान के आधार पर हमने अपनी फसलों के मिजाज को समझा, परख विकसित की और खाद्यान्न को गुणात्मक रूप से बढ़ाया ताकि बढ़ती हुई आबादी भूख का सामना कर सके । इसी बीच हरित क्रांति का नारा आया । रासायनिक खाद तथा कीटनाशकों के छिड़काव के सहारे खाद्य उत्पादन को गुणात्मक रूप से बढ़ाया । फसलों का व्यापक विस्तार हुआ किन्तु अपना बीज-अपने खेत में का मिथक टूटने लगा । फसलों की कुदरती खुशहाली हम छीनते गए । खेती की स्वनियामक स्वावलम्बी जीवन धारा टूटने लगी । कृषि संस्कृति छीजने लगी । उपज बढ़ी किन्तु खेतो की मिट्टी जहरीली होकर मरने लगी । रासायनिक खाद ने तथा कीटनाशक छिड़काव ने धरती को नशीली बना दिया । हमारा ध्यान व्यावसायिक फसलों की एक प्रजातियों पर केन्द्रित होकर रह गया । जैव विविधता का अवनयन शुरू हो गया । रासायनिक कीटनाशकों के सहारे फसलों को बर्बाद होने से बचाया, भण्डारित अनाज में भी कीटनाशी लगाया । हमने इस कवायद में बहुत कुछ खोया तब कुछ पाया । धरती जहरीली हो गई तथा प्रदूषण ने अपने पाँव पसार लिए । प्रदूषण के कारण अनुवांशिक विकृतियाँपनपने लगी । पर्यावरण तथा अनुवंशिकता परस्पर संपूरक है तथा प्रभावी भी है तथा यह दोनों ही तथ्य मानवीय विकास से पूर्णतया जुड़े हैं । मानव संसाधन विकास के रास्ते के यह दो किनारे हैं । क्योंकि पर्यावरण जहाँ मानव को बाह्य रूप से प्रभावित करता है । वहीं आनुवंशिकी आंतरिक रूप से प्रभाव डालती है । देखा जाय तो हरित क्रांति एक छलावा ही सिद्ध हुई क्योंकि हरित क्रांति के द्वारा पर्यावरण दूषित हुआ तथा आनुवंशिक विकृतियाँ भी पनपी । अति उत्साहित मानव प्रकृति को ही चुनौती देने लगा । जैव इंजिनियरिंग के नये-नये प्रतिमान गढ़ते हुए फसलों की जीनांतरित कर जेनेटिकली मोडीफाइड (जी एम) बनाने का सिलसिला शुरू हुआ है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ ऐसी जी एम बीजों एवं फसलों का फंडा सामने ला रही है तथा इस फंडे को दुनिया से भूख एवं कुपोषण मिटाने का जरिया बतला रही है । उन्होने अपने इस नजरिये को सदाबहार क्रांति (एवरग्रीन रिवोल्यूशन) के रूप में देश और दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है । यद्यपि जीनियागरी के द्वारा किसी भी जीव के जीन (पित्रैक) में मनमाना परिवर्तन संभव है जिससे उसकी अनुवांशिक विशेषताआें में फेरबदल हो जाता है । यह परिवर्तन नैसर्गिक सृजनशील परम्पराआें में संभव नहीं था । चिंताजनक पहलू यह है कि यह बीज रूपान्तरण को प्रक्रिया विश्व व्यापार संगठन के समझौते के अधीन ट्रिप्स तथा पेटेंट से बंधी है । इन पर किसानो का अपना कोई हक-अधिकार नहीं होगा । टिप्स प्रौद्योगिक प्रक्रियाआें और उत्पाद के व्यापार का वैधानिक और व्यवहारिक पक्ष से एक वैश्विक व्यवस्था का प्रक्रम है । इसके अनुसार खुले बाजार में ऐसे उत्पादों कों नहीं बेचा जा सकता है जिन पर किसी उत्पादक कम्पनी, एजेन्सी या आविष्कारक को सर्वाधिकार या पेटेंट प्राप्त् होता है । कहा जा सकता है कि ये बीज के बाजार को मनमाफिक फैलाकर लूटने की प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया में सबसे खराब बात यह है कि कम्पनी या आविष्कारक पेटेंट धारी द्वारा उपलब्ध कराये गए बीज केवल एक फसल तो देते है उन बीजों से बनी पौध के बीज अगली फसल हेतु कारगर नहीं रहते हैं अर्थात अगली पीढ़ी में वह नहीं अंकुराते । ऐसेे बीजों को टर्मिनेटर बीज कहते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि एक बार ऐसे टर्मिनेटर बीज प्रयोग करने के बाद हमारी कृषि व्यवस्था परावलम्बी हो जायेगी । क्या यह हमारी स्वायत्ता पर हमला नहीं ? क्या यह परतंत्र बनाने का शिगूफा नहीं ? यही विचारणीय प्रश्न है । हम सभी लोग अपने परम्परागत बीजों की सृजन धर्मिता से बखूबी परिचित है । खेत में बीज बोते है । वह अंकुराते हैं । नई पौध जीवित होती है । फसल पकती है । फूल-फल-बीज बनते हैं । फिर किसान फसल हेतु बीज चुनकर, शेष उपज में से घर खर्च हेतु बचाकर, शेष को बाजारमें बेचकर उसका मूल्य लेता है । जिससे उसका जीवनयापन होता है । टर्मिनेटर बीज बाँझ होते हैं । वह सृजन धर्मिता नहीं संजोते हैं । हम ऐसे घातक बीजों को अपना रहे हैं । समझ में नहीं आता कि ऐसा आत्मघाती कदम क्यों उठा रहे हैं । दरअसल बीजों के भ्रूणीय विकास एवं अंकुरण की क्रिया न केवल अलग होती हैं वरन वह बड़ी संवेदनशील भी होती है इन प्रक्रियाआें के लिए अलग अलग जीन उत्तरदायी है किन्तु यदि कोई जीन किसी विशेष प्रोटीन या अन्य विषाक्त पदार्थ का संश्लेषण करता है तो उसकी परिणति जीव मृत्यु के रूप में ही होती है । यही बीज की आत्मघातक समापकता है । हम ऐसे समापक बीजों को अपनाकर जैव विविधता की समािप्त् की ओर क्यों ले जाना चाहते हैं ? यह विचारणीय प्रश्न है ? हमें अपनी कृषि के पवित्र रहस्य को सृजनशीलता के साथ बनाये रखना होगा देशी बीजों पर भरोसा करना होगा । स्वार्थान्धी राष्ट्रों द्वारा फैलाए गए सीड रिवोल्यूशन जिसे ग्रीन रिवोल्यूशन द्वितीय भी कहा जा रहा है को सिरे से खारिज करना होगा । गांधीवादी चिंतक अनुपम मिश्र की इस चेतावनी पर गौर करना होगा - हरी क्रांति का यह दूसरा चरण हमारे बीजो की नींव पर खड़ा हुआ है और इस चरण में उत्तरी दुनिया के अमीर देशों की कुछ इनी-गिनी कम्पनियों ने कोई ५०० अरब रूपये लगाए हैं । कई देशों में धंधा करने वाली ये दादा कंपनियां बीज के धंधे में इसलिए नहीं उतरी है कि उन्हें दुनिया की खेती सुधारनी है । फसल बढ़ानी है और भूखमरी से निपटना है । इनका पहला और आखरी लक्ष्य है दुनिया की खेती को अपने हाथ में समेट कर उसका फायदा अपनी जेब में डालना है । अत: हमें अपनी माटी की तासीर के अनुसार अपनी धर्म संस्कृति और बाजार से जुड़े हुए समर्पित बीजों पर भरोसा करना चाहिए समापक विदेश बाजार बीजों पर भरोसा करना चाहिए समापक विदेशी बाजारू बीजों से सावधान रहना चाहिए हमें दूसरों को प्रयोग शाला में पनपे बीज नहीं चाहिए हम अपनी कृषि परम्परा में ही संतुष्ट हैं और अपने सृजनधर्मी नैसर्गिक बीजो की रक्षा करेंगे । यही चिंता और चिंतन दिया है । प्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री प्रोफेसरनरसिंह दयाल की सद्य प्रकाशित पुस्तक जैव साम्राज्यवाद की दस्तक से एक अंश उद्धरित है - वस्तुत: बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा बहुप्रचारित हरित क्रांति द्वितीय अल्पविकसित और विकासशील देशों की वर्तमान कृषि व्यवसाय को समाप्त् कर उन्हें जीन कृषि के लिए मजबूर कर कृषि का बंधुआ बनाने की एक सोची समझी रणनीति है । ऐसा होने पर ये देश, इनके द्वारा सृजित जी एम बीजों पर हमेशा के लिए आश्रित हो जाएंगे । जीवों और जीनों यानि जीवित अणुआें का निजीकरण ही विवास्पद और अनैतिक है । आखिरकार वे इन फसलों के विधाता या सृष्टिकर्ता नहीं है । क्रमिक विकास की प्रक्रिया से छेड़छाड़ करने, जैव विविधता और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने और किसी देश की जैव संप्रभुता का अतिक्रमण करने का अधिकार किसी को नहीं हो सकता है । जैव साम्राज्यवाद के खतरे से सावधान रहे । अपनी संस्कृति के बीज मंत्र को पकड़े रहे । नये नये लुभावने झाँसे में आकर अपनी परम्परा को नहीं खोना है । हमें अपने खेतों में पुरखो से प्राप्त् बीजो को ही बोना है ताकि सुरक्षित रहे हमारी धरती की विरासत । कई बार हमारी अज्ञानता के कारण हमारी धरती आहत हुई है । आदमी दाने-दाने को मोहताज हुआ है तब अन्नपूर्णा देवी कूष्माण्डा ने स्वयं ही धरती को सरसाया है । हमें अपनी उम्मीद के बीजो को अपनी को अपनी संततियों को आशा और विश्वास के साथ सौंपना है कि वे उन्हें सहेज कर रखेंगी । वह हमारी धरती पर कभी भी कहीं भी ऐसी स्थिति नहीं उत्पन्न होने देगी कि कोई भूखा ही मर जाये। हमारे बीजों की सृजन गाथा इतनी उन्नत रहे कि अकाल भी कालकवलित हो जाये और धरती पर हमेशा सृकृत कर्म की फसल लहलहाए । ***राष्ट्रीय ग्रीन न्यायाधिकरण का गठन होगा वन अपराधों की सुनवाई के लिए देश में राष्ट्रीय ग्रीन न्यायाधिकरण गठित किए जाने के बाबत केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा है कि इससे संबंधित विधेयक को संसद की इजाजत मिलते ही इसे अस्तितव में लाया जाएगा । श्री रमेश ने उम्मीद जाहिर की कि इस साल के अंत तक यह अपना काम शुरू कर देंगी । राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण एजेंसी (एनईपीए) का जिक्र करते हुए केंद्रीय वन मंत्री ने कहा कि वह इस बारे में इस साल संसद में विधेयक पेश करेंगे तथा यह एजेंसी पर्यावरणीय कानून पर अमल सुनिश्चित करेंगी । इस एजेंसी के अस्तित्व में आने के बाद देश में मौजूद प्रदूषण नियंत्रण मंडलों का काम परीक्षण एवं पर्यावरणीय कानूनों की निगरानी का रहेगा । वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के विभाजन को लेकर पूछे गए एक सवाल के जवाब में शी रमेश ने कहा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भी यह मत है कि वन एवं वन्यजीव तथा पर्यावरण मंत्रालय को अलग-अलग कर दिया जाए, जिससे वे अपने-अपने काम को बेहतर तरीके से अंजाम दे सकेंगे । उन्होने कहा कि देश मेंे पहली बार १३ वें वित्त आयोग ने राज्यों को वन संरक्षण के लिए ग्रीन बोनस के तौर पर पांच हजार करोड़ रूपये मंजूर किए है । राज्यों को यह राशि दिलाने में आईआईएफएम ने अहम भूमिका निभाई है ।

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