मंगलवार, 27 जुलाई 2010

अप्रैल पृथ्वी दिवस पर विशेष

पृथ्वी और ग्रीन पालिटिक्स
डॉ. लक्ष्मीकान्त दाधीच
पृथ्वी मानव का आवास है । भूमि, जल, वायु और प्राणी पर्यावरण के प्रमुख घटक है । पर्यावरण शब्द एक लम्बे समय से जीव, पादप और प्रकृति वैज्ञानिकों के लिये एक पहेली बना रहा है । मानव अपनी आदिम अवस्था से ही अपने पर्यावरण का प्रेक्षण करता रहा है । ग्रीस, रोम, चीन, फारस, मिस्त्र, बेबीलोन और भारतवर्ष में विभिन्न विद्वानों द्वारा व्यवस्थित अध्ययन, अनुसंधान और ज्ञानार्जन के प्रयत्न शताब्दियों से किये जाते रहे है । उन विद्वानो ने ज्ञान को एक समष्टि माना था । कालान्तर में ज्ञान के विकास के साथ -साथ विशेषज्ञता अर्जित करने के लिये, ज्ञान को टुकड़ों में बाँट कर उसका गहन अध्ययन किया जाने लगा है । प्रकृति से मानव के अद्भुद संबंधोे का परिणाम थे ऊचे पर्वत हिमाच्छादित शिखर, खुुबसूरत नजारे, भरपूर पानी और शुद्ध हवा, जिनका भरपूर आनन्द उठाया वर्तमान पीढ़ी ने और जो भूल, गई भावी पीढ़ी को जिसे प्रकृति के प्रकोप से बचने की तैयारी में ही शायद अपना संपूर्ण जीवन बिताना पड़े । वनों के विनाश के साथ समाप्त् होते वन्य जीव निश्चित ही मानव की समािप्त् का भी संकेत कर रहे है । प्रकृति में पर्यावरण के जीवीय घटकों हेतु आवश्यक अजीवीय घटकों वायु , जल और मृदा में होता प्रदूषण आधुनिक तथाकथित विकसित मानव को बीमारी, भूख, प्यास कुपोषण, गरीबी और प्राकृतिक आपदाएं भेट स्वरूप प्रदान कर रहा है । विश्व के आर्थिक विकास के साथ राष्ट्रों की आवश्यकताएँ भी बढ़ी है इन बढ़ती हुई आकांक्षाआें की पूर्ति के लिये मानव ने प्रकृति का बेतहाशा दोहन किया है इससे वन विरल होते जा रहे है, जीवों की प्रजातियाँ विलुप्त् हो रही है, और वायुमण्डल की ओजोन परत चरमरा रही है । उद्योग जनित प्रदूषण का प्रभाव ग्रीन हाउस प्रभाव एवं अम्ल वर्षा के रूप में महसूस किया जा सकता है । मानव और प्रकृति का सह-संबंध सकारा- त्मक न होकर विध्वंसात्मक होता जा रहा है । ऐसी स्थिति में पर्यावरण का प्रदूषण सिर्फ समुदाय या राष्ट्र विशेष की निजी समस्या न होकर एक सार्वभौमिक चिन्ता का विषय है । पारिस्थितिकीय असन्तुलन हर प्राणी को प्रभावित करता है अत: यह जरूरी हो जाता है कि विश्व के सभी नागरिक पर्यावरण समस्याआेंके सृजन में अपनी हिस्सेदारी को पहचाने और इन समस्याआें के समाधान के लिए अपना अपना योगदान दे । आज विश्व में पर्यावरण में असंतुलन गंभीर चिंता का विषय बन गया है जिस पर अब विचार नहीं ठोस पहल की आवश्यकता है अन्यथा बदलता जलवायु, गर्माती धरती और पिघलते ग्लेश्यिर मानव जीवन के अस्तित्व को खतरे में डाल देंगे । प्रकृति में उत्पन्न असंतुलन प्राकृतिक प्रकोपों का जन्मदाता बनेगा । जिनसे बचने की पूर्व तैयारी अब समय की आवश्यकता बन चुकी है । पर्यावरण शिक्षा का पाठ सीखकर पर्यावरण नागरिक की भूमिका निभाने से ही प्राकृतिक प्रकोपों से बचा जा सकेगा। वर्तमान में स्थिति यह है कि विकसित देशों द्वारा लगातार पर्यावरण को नुकसान पहुचाने वाली हानिकारक गैसो का उत्सर्जन किया जा रहा है । मानवीय जरूरतो के लिए विश्वभर में बड़े पैमाने पर वनों का सफाया किया जा रहा है । विकासशील देशों द्वारा विकास के नाम पर सड़को , पुलों और शहरो को बसाने के लिए अंधाधुध वृक्षों की कटाई की जा रही है । बिजली की जरूरत के लिए बड़े पैमाने बांध बनाकर नदियों के प्रवाह को अवरूद्ध करने के साथ ही अवैज्ञानिक एवं अनियोजित खनन को बढ़ावा दिया जा रहा है। फलस्वरूप हमारी धरती विनाश और प्राकृतिक प्रकोपो की ओर अग्रसर है । विश्व पर्यावरण की अधिकतर समस्याआें का सीधा सम्बन्ध मानव के आर्थिक विकास से है । शहरीकरण औद्योगीकरण और संस्थानोंं के विवेकहीन दोहन के परिणामस्वरूप संसाधनों पर बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है । परिणामत: पर्यावरण अवनयन की बढती दर के कारण पारितंत्र लड़खड़ाने लगा है । आज विश्व के सामने वैश्विक आतपन (ग्लोबल वार्मिंग) जैसी समस्याएं मुंह बाये खड़ी है औद्योगिक गैसों के लगातार बड़ते उर्त्सजन और वन आवरण के तेजी से होते ह्ास के कारण ग्रीन ओजोन गैस की परत का क्षरण हुआ है ।से जाने वाली हानिकारक (पैराबैंगन) विकिरणों से जैवमंण्डल को बचाने वाली कार्बन-डाई-ऑक्साईड और ओजोन गैस की मात्रा में हुए इस अस्वाभाविक बदलाव का प्रभाव स्थानीय, प्रादेशिक और वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु परिर्वतनों के रूप में दिखलाई पड़ता है । सार्वभौमिक तापमान में लगातार होती इस वृद्धि क कारण विश्व के हिम और हिमनद पिघलने लगे है । हिम के तेजी से पिघलते का प्रभाव महासागर में जलस्तर के बढ़ने में दिखाई देता है । यदि तापमान में ऐसी बढोतरी होती रही तो विश्व की समस्त हिमराशियों के पिघलने से महासागरो का बढ़ता हुआ क्षेत्रफल और जल स्तर एक दिन तटवर्ती स्थल भागों और द्धीपों का जलमग्न कर देगा । पर्यावरणवेत्ताओ के अनुसार पर्यावरण असंतुलन के विभिन्न कारण है, जैसे विवकहिन और संवेदनशील और औद्योगिकरण,अनियोजित नगरीकरण बेलगाम जनसंख्या वृद्धि और स्थानीय भूमि उपयोग अचानक हुए परिर्वतन । मानव अपने जीवनयापन के लिए सदैव पर्यावरण पर निर्भर रहता चला आया है । मानव के विकास के साथ-साथ उसकी आवश्यकताएँ तो बड़ी है । पर्यावरण पर निर्भरता भी बढ़ती चली गई है । उपभोक्ता संस्कृति नें मनुष्य की पर्यावरण के दोहन की प्रवृति को शोषण की प्रवृति में बदल दिया है । हम जानते है कि एक अनुकूल पर्यावरण के लिये जैवमण्डल के विभीन्न घटकोंका आपसी तादात्म्य अनिवार्य है भौतिक विकास के साथ हमारी बेतहाशा बढ़ती जरूरतों को को पूरा करने के लिये पर्यावरण के उपलब्ध संसाधनों का अनुबंध अंधाधुंध दोहन लगातार जारी है । इस दोहन के परिणामों को हम सभी वैश्विक आतपन ओजोन कवच क्षरण (जूिशि वशश्रिशींळिि) विश्व में विभीन्न स्थानों पर जलवायू का प्रलयकारी औद्योगिक और ऑटोमोबाईल प्रदूषण, आद रूपों में पहचानने लगे है । ग्रिफीथ टेलर (१९५७) के अनुसार मानव अपनी इच्छा अनुसार अपने देश की प्रगति को रोक भी सकता, धीमा भी कर सकता और त्वरित भी । लेकिन अगर वह विवेकवान है तो उसे उस दिशा से कभी भटकना नहीं चाहिए । जिस और उसका पर्यावरण उसे निदेशित करता है । हर व्यक्ति अपने पर्यावरण की एक सक्रिय इकाई है इसलिए यह आवश्यक है कि बेहतर जीवन जीने के लिए अपने पर्यावरण के उन्नयन और अवनयन में वे अपनी जिम्मेदारी को समझे । आज हम दूर दराज गांव से महानगर तक प्लास्टिक कचरे की सर्वव्यापकता से त्रस्त है जगह-जगह पॉलीथीन की थैलियों और प्लास्टिक बोतलवातावरण को प्रदूषित कर रही है इस दृश्य के रचियता हम आम और खास लोग ही है । पर्यावरण की भयावह होती तस्वीर और पारिस्थतिक असन्तुलन की समस्या का सामना करने के लिए प्रत्येेक व्यक्ति को अपने पर्यावरण के प्रति एक सजग दायित्व निभाना होगा । हमें यह नही भुलना चाहिए कि राजस्थान के खेजड़ली ग्राम की अमृता देवी एक सामान्य ग्रामीण महिला थी किन्तु उनकी पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता ने पश्चिमी राजस्थान के कई समुदायों की पीढ़ियों मेंे वृक्ष और वन्यजीव प्रेम का संस्कार डाला है । पर्यावरण अवनयन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी उन सम्पन्न औद्योगिक राष्ट्रों की है जिन्होने उर्जा के विवेकहीन उपयोग के द्वारा सम्पूर्ण पर्यावरण किरणों के लिए भी रास्ता लगभग साफ कर दिया है अब आवश्यक हो गया है कि व्यक्ति ही नही समुदायों, राष्ट्रीय और सम्पूर्ण विश्व, पर्यावरण के प्रति अपनी नीतियों और उनके क्रियानवयन में एक सह संवेदनशीलता लायें । विश्व के विभिन्न भागों में पर्यावरण के प्रति सजगता हालांकि अब बढ़ती दिखाई देने लगी है और लोग पर्यावरण अवनयन के परिणामस्वरूप होने वाली समस्याआें को समझने लगे है । लेकिन सरकारे अभी भी अपने तत्कालिक आर्थिक हितोंं के भावी खतरों को नजर अन्दाज कर रही है । औ़द्योगिक कार्बन-डाई-ऑक्साइड उतसर्जन पर नियंत्रण, विश्व में बढ़ते ग्रीन हाउस प्रभाव को नियंत्रित करने की दिशा में प्राथमिक कदम है । किन्तु कार्बन-डाई-ऑक्साइड उत्सर्जन नियंत्रण पर विभिन्न सरकारे प्रतिबद्ध नहीं होना चाहती । अभी तक क्लोरोफ्लोरोकार्बन का उत्पादन नहीं रोका जा सका है जबकि मॉन्ट्रियल कन्वेन्शन (१९८९) में सन् २००० तक सी.एफ.सी.उत्पादन शत प्रतिशत बंद कर दिया जाने का लक्ष्य तय किया था ।यह उत्पादन अभी तक जारी है। अब यह जनभावना पर निर्भर है कि सरकारे इसी पर्यावरण के स्वास्थ्य की कीमत पर भौतिक आर्थिक विकास को तरजीह देती रहें या अपनी प्राथमिकताआें पर पुर्नविचार करें आधुनिक समाज में एक स्वास्थ संतुलित जीवन को एक नागरिक अधिकार के रूप में देखा जाने लगा है हरित औद्योगिक राष्ट्र यह स्वीकार कर लेंगे कि पारिस्थितिकी दृष्टि से गैर जिम्मेदार होना आर्थिक रूप से भी फायदे का सौदा नहीं है । तभी पर्यावरण के पक्ष में स्थितियाँ बदलेंगी । आज जरूरत इस बात की है कि सरकारे पर्यावरण के विभिन्न घटको के महत्व को समझकर तुरंत प्रभाव से उचित आदेश प्रसारित करें महती भूमिका अदा कर सके। अन्यथा एक पृथ्वी को गरीब और अमीर की पृथ्वी में बंटने से कोई नही रोक सकेगा ।तब शायद यही पालिटिक्स हमारी पृथ्वी की आवश्यकता होगी।***

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