पर्यावरण परिक्रमा
क्या अब कहानी में ही बचेगी गौरेया
घरों के आंगन, मुंडेर, खपरैल और छत पर चहचहाती, तिनका-तिनका घोंसला बनाती, अपने नन्हें बच्चें को सारा दिन दाना चुगाती, इंसान के ईद-गिर्द रहकर उसकी कोमल संवेदनाआेंको बचाती गौरेया आने वाले दिनों में महादेवी वर्मा की कहानी के पन्नों में ही तो नहीं बचेगी ।
आधुनिक इंसान के जेहन मेंअब यह सवाल कौंधने लगा है क्योंकि गौरेया के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। भारत हीं नहीं दुनिया के अन्य हिस्सों में भी खासकर शहरों में गौरेया की संख्या तेजी से घट रही है । ब्रिटेन की रायल सोसायटी आफ प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड ने भारत समेत दुनिया के विभिन्न हिस्सों के शोधोंके निष्कर्षो के आधार पर इंसान के साथ रहने वाली छोटी गौरेया को वर्ष २०१० में लाल सूची यानी लुप्त्प्राय पक्षियों की सूची में शामिल कर लिया है । इसके बाद से गौरेया को लेकर लोगों की चिताएं बढ़ी और इसके संरक्षण के उपाय शुरू किए गए ।
गौरेया को बचाने की कवायद के तहत दिल्ली सरकार ने इसे राजपक्षी घोषित किया है । पक्षी विशेषज्ञों का कहना है कि गौरेया के लापता होने के कई कारण हैं जिनमें मोबाइल के टावर प्रमुख हैं । गौरेया के घटती संख्या के कारणोंपर अध्ययन करने वाले केरल के पक्षी विज्ञानी डॉ. सैनुदीन ने बताया कि मोबाइल टॉवर ९००-१८०० मेगाहर्ट्ज की आवृत्ति उत्सर्जित करते हैं जिससे निकलने वाली विद्युत चुंबकीय विकिरण इलेक्ट्रोमैनेटिक रैडिएशन से गौरेया का नर्वस सिस्टम प्रभावित होता है । इससे दिशा पहचानने की उसकी क्षमता भी बाधित होती है । आम तौर पर १० से १४ दिनों तक अंडे सेने के बाद गौरेया के बच्च्े निकल आते हैंलेकिन मोबाइल टॉवरों के पास ३० दिन सेेने के बावजूद अंडा नहीं फूटता है ।
कोयंबटूर स्थित सलीम अली पक्षी विज्ञान एवं प्राकृतिक इतिहास केन्द्र के डॉ. वी.एस. विजयन के आधुनिक जीवन शैली और मकानों एवं भवनों के वास्तु में बदलाव के कारण मकानों में दरारें नहीं रह गई हैं तथा घरों के बगीचे भी समाप्त् हो गए जिससे गौरेया का पर्यावास समाप्त् हो रहा है । इंडियन क्रेन्स एेंड वेटलैंड वर्किंग ग्रुप के केएस गोपीसुन्दर के अनुसार सीसारहित पेट्रोल से निकलने वाले मिथेन और नाइट्रेट से तथा रासायनिक खादों से गौरेया के पसंदीदा आहार छोटे कीड़े-मकोड़े समाप्त् हो रहे है । शहर में कौआें की संख्या बढ़ रही है और ये गौरेया के अंडोंको खा जाते हैं । भारत के अलावा ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चेक गणराज्य, बेल्जियम, इटली और फिनलैंड के शहरों में भी गौरेया की संख्या तेजी से कम हो रही है ।
अमेरिकी इतिहास में २०१२ सबसे गर्म साल
वर्ष २०१२ अमेरिका के इतिहास का सबसे गर्म वर्ष था । औसत तापमान के आधार पर बीते साल को अब तक के सबसे गर्म साल के तौर पर देखा जा रहा है ।
अमेरिका में वर्ष २०१२ का औसत तापमान ५५.३ डिग्री फेरेनहाइट रहा जो कि पिछली सदी के औसत तापमान से ३.२ डिग्री फेरेनहाइट अधिक था । अब तक वर्ष १९९८ को सबसे गर्म साल माना जाता था लेकिन २०१२ में तापमान उससे भी १ डिग्री फेरेनहाइट अधिक रहा । ये आंकड़े नेशनल क्लाइमेट डेटा सेंटर ऑफ द नेशनल ओशियनिक एंड एट्मॉस्फिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) की ओर से जारी किए गए हैं । पर्यावरण एवं लोक सेवा समिति के अध्यक्ष सीनेटर बारबरा बॉक्सर के मुताबिक यह रिपोर्ट चौंकाने वाली है ।
सीनेटर ने कहा कि तेजी से बढ़ता तापमान और सैंडी से होने वाली तबाही भविष्य के खतरों की ओर इशारा करते हैं । हमें इस ओर अभी से ध्यान देने की आवश्यकता है ताकि हम अपने लोगों और समुदाय को बचा सकें ।
अब चन्द्रमा से मिलेगी बिजली
चंद्रमा पृथ्वी के गिर्द परिभ्रमण करता है । सौरमंडल के अन्य ग्रहों की अपेक्षा चंद्रमा पृथ्वी के काफी समीप है यानी केवल २ लाख् ४० हजार मील के फासले पर । चंद्रमा को सूर्य से ही प्रकाश व ऊर्जा मिलती है और वहींसे प्रकाश परिवर्तित होकर पृथ्वी पर आता है ।
खास बात यह है कि अब चंद्रमा से बिजली प्राप्त् होगी । यह अनुसंधान अमेरिका यूनिवर्सिटी ऑफ ह्यूस्टन के इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस सिस्टम के प्रो. डेविड क्रिसवेल ने किया है । डेविड की मान्यता है कि चंद्रमा के विभिन्न स्थानोंपर सूर्य की ऊर्जा एकत्रित कर उसे पृथ्वी की ओर माइक्रोवेव बीम के रूप में मोड़ा जा सकता है । पृथ्वी पर इस माइक्रोवेव बीम को विद्युत ग्रिड के माध्यम से विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकेगा ।
यदि इस परियोजना को स्वीकृति मिल गई और क्रियान्वित हुई तो चंद्रमा विद्युत उत्पादन का बड़ा स्त्रोत बन जाएगा । कई विकासशील एवं पिछड़े देश इस प्रोजेक्ट से लाभ उठा सकेगें ।
समंदर के तल में फफूंद मिली
शोधकर्ताआें ने प्रशांत महासागर की गहराईयों में जीवित फंफूद खोजी है । इतनी गहराई पर जो तलछट जमा है वह संभवत:१० करोड़ वर्ष पुरानी है और इसमें पौषक तत्वों का घोर अभाव है । इतने गहरे में सजीव फंफूद की उपस्थिति बताती है कि जीवन कितनी अति-परिस्थितियों में संभव है ।
इस फंफूद का अध्ययन लॉस एंजेल्स के दक्षिण कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के जैव रसायन शास्त्री ब्रांडी रीस ने किया है । वे बताती है कि इनमें से कुछ फंफूद पेनिसिलियम जीनस की है जो पेनिसिलिन का स्त्रोत है । इस अध्ययन के परिणाम हाल ही मेंअमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन की बैठक मेंप्रस्तुत किए गए ।
वैसे तो पहले भी गहरे संमदर में फंफूद मिल चुकी है मगर जीव वैज्ञानिकों ने शंका जाहिर की थी कि हो सकता है कि यह फंफूद उपकरणों में संदूषण की वजह से वहां पहूंचती है । कुछ जीव वैज्ञानिकोंका मत था कि जो फंफूद वहां खोजी गई है वह समुद्र के पानी में उपस्थित फंफूद के बीजाणु है, जो किसी वजह से तलछट में बैठ गए है । यानी यह माना जा रहा था कि यह फंफूद वहां जीती नहीं बल्कि किसी अन्य वजह से वहां पहुंच गई है ।
मगर रूस के दल ने पूरी सावधानी बरती कि बाहर से फंफूद संक्रमण न होने पाए । इसके अलावा उन्होंने प्रशांत महासागर के पेंदे से जो आनुवांशिक सामग्री हासिल की उसमें डीएनए के अलावा आरएनए भी था । आरएनए वह अणु है जो कोशिका के प्रोटीन बनाने की क्रिया का संचालन करता है । यानी यह ऐसी कोशिका है जिसमेंजीवन क्रियाएं चल रही है । अर्थात ये फंफूद वहां सिर्फ पड़ी नहीं है बल्कि जीवन की प्रक्रियाएं संपन्न कर रही है ।
इस खोज से कई सवाल उठ रहे है । पहला सवाल तो यह है कि इतने कम पोषण कर यह फंफूद जीवित कैसे है । एक व्याख्या यह है कि वहां जो पदार्थ है उनका उपभोग एक-कोशिकीय जीव नहीं कर पाते हैं इसलिए फंफूद को ये पोषण तत्व उपलब्ध हो जाते है । एक अन्य सवाल यह भी है कि इतनी गहराई में उपस्थित इस इकोतंत्र में ये फंफूद क्या व किस तरह की भूमिका निभाती है ।
वैसे इन फंफूदों की खोज से नई औषधियां मिलने की उम्मीद भी जगी है । हमारी कई एंटीबायोटिक औषधियां फंफूदों से ही मिली है और फंफूदों की नई प्रजातियों के साथ नई औषधियां मिलने की उम्मीद है ।
अब मशीनों के पहरे से रोकेंगे प्रदूषण
अब मध्यप्रदेश के उद्योगों से निकलने वाला धुंआ और शहर में वाहनों से होने वाले प्रदूषण पर मशीनों का पहरा होगा । यह आटो कंटीनुअस मानीटरिंग सिस्टम (एयर मानीटरिंग सिस्टम) हवा मेंही प्रदूषण की मात्रा को माप कर उसे बोर्ड पर डिस्पले कर देगा । प्रदूषण रोकने के लिये यह करोड़ों की मशीन उद्योगों के अलावा प्रदेश के चार बड़े शहरों में भी लगाई जाएगी ।
मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने प्रदेश के चार शहरों में प्रमुख चौराहों पर एयर मानीटरिंग सिस्टम लगाने की योजना बनाई है । करीब पौने दो करोड़ की यह मशीन शहर में होने वाले प्रदूषण को बताएगी । इसकी शुरूआत भोपाल के रोशनपुरा चौराहे से की जायेगी । इसके लिये मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अस्सी लाख रूपए केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को भेज दिये हैं । इसमें आधी-आधी कीमत प्रदेश और केन्द्र को देना है । प्रदूषण पर नियंत्रण के लिये एयर मानीटरिंग सिस्टम लगाए जा रहे है । अभी तक दस से अधिक उद्योगों में इन सिस्टमों को लगा दिया है । उद्योगों से निकलने वाले धुंए की मानीटरिंग के लिये दो तरह के सिस्टम लगाए गये हैं। इनमें जो उद्योग बिना चिमनी के चल रहे हैं उनमें एबीएेंट मानीटरिंग सिस्टम (वातावर-णीय परिवेश) लगाया जायेगा । जिन उद्योगों में चिमनी से धंुआ निकलता है, उनमें स्टेक मानीटरिंग सिस्टम लगाया जायेगा ।
क्या अब कहानी में ही बचेगी गौरेया
घरों के आंगन, मुंडेर, खपरैल और छत पर चहचहाती, तिनका-तिनका घोंसला बनाती, अपने नन्हें बच्चें को सारा दिन दाना चुगाती, इंसान के ईद-गिर्द रहकर उसकी कोमल संवेदनाआेंको बचाती गौरेया आने वाले दिनों में महादेवी वर्मा की कहानी के पन्नों में ही तो नहीं बचेगी ।
आधुनिक इंसान के जेहन मेंअब यह सवाल कौंधने लगा है क्योंकि गौरेया के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। भारत हीं नहीं दुनिया के अन्य हिस्सों में भी खासकर शहरों में गौरेया की संख्या तेजी से घट रही है । ब्रिटेन की रायल सोसायटी आफ प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड ने भारत समेत दुनिया के विभिन्न हिस्सों के शोधोंके निष्कर्षो के आधार पर इंसान के साथ रहने वाली छोटी गौरेया को वर्ष २०१० में लाल सूची यानी लुप्त्प्राय पक्षियों की सूची में शामिल कर लिया है । इसके बाद से गौरेया को लेकर लोगों की चिताएं बढ़ी और इसके संरक्षण के उपाय शुरू किए गए ।
गौरेया को बचाने की कवायद के तहत दिल्ली सरकार ने इसे राजपक्षी घोषित किया है । पक्षी विशेषज्ञों का कहना है कि गौरेया के लापता होने के कई कारण हैं जिनमें मोबाइल के टावर प्रमुख हैं । गौरेया के घटती संख्या के कारणोंपर अध्ययन करने वाले केरल के पक्षी विज्ञानी डॉ. सैनुदीन ने बताया कि मोबाइल टॉवर ९००-१८०० मेगाहर्ट्ज की आवृत्ति उत्सर्जित करते हैं जिससे निकलने वाली विद्युत चुंबकीय विकिरण इलेक्ट्रोमैनेटिक रैडिएशन से गौरेया का नर्वस सिस्टम प्रभावित होता है । इससे दिशा पहचानने की उसकी क्षमता भी बाधित होती है । आम तौर पर १० से १४ दिनों तक अंडे सेने के बाद गौरेया के बच्च्े निकल आते हैंलेकिन मोबाइल टॉवरों के पास ३० दिन सेेने के बावजूद अंडा नहीं फूटता है ।
कोयंबटूर स्थित सलीम अली पक्षी विज्ञान एवं प्राकृतिक इतिहास केन्द्र के डॉ. वी.एस. विजयन के आधुनिक जीवन शैली और मकानों एवं भवनों के वास्तु में बदलाव के कारण मकानों में दरारें नहीं रह गई हैं तथा घरों के बगीचे भी समाप्त् हो गए जिससे गौरेया का पर्यावास समाप्त् हो रहा है । इंडियन क्रेन्स एेंड वेटलैंड वर्किंग ग्रुप के केएस गोपीसुन्दर के अनुसार सीसारहित पेट्रोल से निकलने वाले मिथेन और नाइट्रेट से तथा रासायनिक खादों से गौरेया के पसंदीदा आहार छोटे कीड़े-मकोड़े समाप्त् हो रहे है । शहर में कौआें की संख्या बढ़ रही है और ये गौरेया के अंडोंको खा जाते हैं । भारत के अलावा ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चेक गणराज्य, बेल्जियम, इटली और फिनलैंड के शहरों में भी गौरेया की संख्या तेजी से कम हो रही है ।
अमेरिकी इतिहास में २०१२ सबसे गर्म साल
वर्ष २०१२ अमेरिका के इतिहास का सबसे गर्म वर्ष था । औसत तापमान के आधार पर बीते साल को अब तक के सबसे गर्म साल के तौर पर देखा जा रहा है ।
अमेरिका में वर्ष २०१२ का औसत तापमान ५५.३ डिग्री फेरेनहाइट रहा जो कि पिछली सदी के औसत तापमान से ३.२ डिग्री फेरेनहाइट अधिक था । अब तक वर्ष १९९८ को सबसे गर्म साल माना जाता था लेकिन २०१२ में तापमान उससे भी १ डिग्री फेरेनहाइट अधिक रहा । ये आंकड़े नेशनल क्लाइमेट डेटा सेंटर ऑफ द नेशनल ओशियनिक एंड एट्मॉस्फिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) की ओर से जारी किए गए हैं । पर्यावरण एवं लोक सेवा समिति के अध्यक्ष सीनेटर बारबरा बॉक्सर के मुताबिक यह रिपोर्ट चौंकाने वाली है ।
सीनेटर ने कहा कि तेजी से बढ़ता तापमान और सैंडी से होने वाली तबाही भविष्य के खतरों की ओर इशारा करते हैं । हमें इस ओर अभी से ध्यान देने की आवश्यकता है ताकि हम अपने लोगों और समुदाय को बचा सकें ।
अब चन्द्रमा से मिलेगी बिजली
चंद्रमा पृथ्वी के गिर्द परिभ्रमण करता है । सौरमंडल के अन्य ग्रहों की अपेक्षा चंद्रमा पृथ्वी के काफी समीप है यानी केवल २ लाख् ४० हजार मील के फासले पर । चंद्रमा को सूर्य से ही प्रकाश व ऊर्जा मिलती है और वहींसे प्रकाश परिवर्तित होकर पृथ्वी पर आता है ।
खास बात यह है कि अब चंद्रमा से बिजली प्राप्त् होगी । यह अनुसंधान अमेरिका यूनिवर्सिटी ऑफ ह्यूस्टन के इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस सिस्टम के प्रो. डेविड क्रिसवेल ने किया है । डेविड की मान्यता है कि चंद्रमा के विभिन्न स्थानोंपर सूर्य की ऊर्जा एकत्रित कर उसे पृथ्वी की ओर माइक्रोवेव बीम के रूप में मोड़ा जा सकता है । पृथ्वी पर इस माइक्रोवेव बीम को विद्युत ग्रिड के माध्यम से विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकेगा ।
यदि इस परियोजना को स्वीकृति मिल गई और क्रियान्वित हुई तो चंद्रमा विद्युत उत्पादन का बड़ा स्त्रोत बन जाएगा । कई विकासशील एवं पिछड़े देश इस प्रोजेक्ट से लाभ उठा सकेगें ।
समंदर के तल में फफूंद मिली
शोधकर्ताआें ने प्रशांत महासागर की गहराईयों में जीवित फंफूद खोजी है । इतनी गहराई पर जो तलछट जमा है वह संभवत:१० करोड़ वर्ष पुरानी है और इसमें पौषक तत्वों का घोर अभाव है । इतने गहरे में सजीव फंफूद की उपस्थिति बताती है कि जीवन कितनी अति-परिस्थितियों में संभव है ।
इस फंफूद का अध्ययन लॉस एंजेल्स के दक्षिण कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के जैव रसायन शास्त्री ब्रांडी रीस ने किया है । वे बताती है कि इनमें से कुछ फंफूद पेनिसिलियम जीनस की है जो पेनिसिलिन का स्त्रोत है । इस अध्ययन के परिणाम हाल ही मेंअमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन की बैठक मेंप्रस्तुत किए गए ।
वैसे तो पहले भी गहरे संमदर में फंफूद मिल चुकी है मगर जीव वैज्ञानिकों ने शंका जाहिर की थी कि हो सकता है कि यह फंफूद उपकरणों में संदूषण की वजह से वहां पहूंचती है । कुछ जीव वैज्ञानिकोंका मत था कि जो फंफूद वहां खोजी गई है वह समुद्र के पानी में उपस्थित फंफूद के बीजाणु है, जो किसी वजह से तलछट में बैठ गए है । यानी यह माना जा रहा था कि यह फंफूद वहां जीती नहीं बल्कि किसी अन्य वजह से वहां पहुंच गई है ।
मगर रूस के दल ने पूरी सावधानी बरती कि बाहर से फंफूद संक्रमण न होने पाए । इसके अलावा उन्होंने प्रशांत महासागर के पेंदे से जो आनुवांशिक सामग्री हासिल की उसमें डीएनए के अलावा आरएनए भी था । आरएनए वह अणु है जो कोशिका के प्रोटीन बनाने की क्रिया का संचालन करता है । यानी यह ऐसी कोशिका है जिसमेंजीवन क्रियाएं चल रही है । अर्थात ये फंफूद वहां सिर्फ पड़ी नहीं है बल्कि जीवन की प्रक्रियाएं संपन्न कर रही है ।
इस खोज से कई सवाल उठ रहे है । पहला सवाल तो यह है कि इतने कम पोषण कर यह फंफूद जीवित कैसे है । एक व्याख्या यह है कि वहां जो पदार्थ है उनका उपभोग एक-कोशिकीय जीव नहीं कर पाते हैं इसलिए फंफूद को ये पोषण तत्व उपलब्ध हो जाते है । एक अन्य सवाल यह भी है कि इतनी गहराई में उपस्थित इस इकोतंत्र में ये फंफूद क्या व किस तरह की भूमिका निभाती है ।
वैसे इन फंफूदों की खोज से नई औषधियां मिलने की उम्मीद भी जगी है । हमारी कई एंटीबायोटिक औषधियां फंफूदों से ही मिली है और फंफूदों की नई प्रजातियों के साथ नई औषधियां मिलने की उम्मीद है ।
अब मशीनों के पहरे से रोकेंगे प्रदूषण
अब मध्यप्रदेश के उद्योगों से निकलने वाला धुंआ और शहर में वाहनों से होने वाले प्रदूषण पर मशीनों का पहरा होगा । यह आटो कंटीनुअस मानीटरिंग सिस्टम (एयर मानीटरिंग सिस्टम) हवा मेंही प्रदूषण की मात्रा को माप कर उसे बोर्ड पर डिस्पले कर देगा । प्रदूषण रोकने के लिये यह करोड़ों की मशीन उद्योगों के अलावा प्रदेश के चार बड़े शहरों में भी लगाई जाएगी ।
मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने प्रदेश के चार शहरों में प्रमुख चौराहों पर एयर मानीटरिंग सिस्टम लगाने की योजना बनाई है । करीब पौने दो करोड़ की यह मशीन शहर में होने वाले प्रदूषण को बताएगी । इसकी शुरूआत भोपाल के रोशनपुरा चौराहे से की जायेगी । इसके लिये मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अस्सी लाख रूपए केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को भेज दिये हैं । इसमें आधी-आधी कीमत प्रदेश और केन्द्र को देना है । प्रदूषण पर नियंत्रण के लिये एयर मानीटरिंग सिस्टम लगाए जा रहे है । अभी तक दस से अधिक उद्योगों में इन सिस्टमों को लगा दिया है । उद्योगों से निकलने वाले धुंए की मानीटरिंग के लिये दो तरह के सिस्टम लगाए गये हैं। इनमें जो उद्योग बिना चिमनी के चल रहे हैं उनमें एबीएेंट मानीटरिंग सिस्टम (वातावर-णीय परिवेश) लगाया जायेगा । जिन उद्योगों में चिमनी से धंुआ निकलता है, उनमें स्टेक मानीटरिंग सिस्टम लगाया जायेगा ।
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