मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

ज्ञान विज्ञान
पनडुब्बी से मिसाइल दागने वाला भारत पहला देश
    भारत ने २९० किमी से ज्यादा दूर तक मार करने वाली ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल के सबमरीन वर्जन का पिछले दिनों बंगाल की खाड़ी में सफल परीक्षण किया । इसके साथ ही पनडुब्बी से मिसाइल दागने की क्षमता हासिल करने वाला भारत दुनिया का पहला देश बन गया है । 
     ब्रह्मोस के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) ए. सिवथानु पिल्लई ने बताया कि ब्रह्मोस के पनडुब्बी से छोड़े जा सकने वाले वर्जन का पानी के भीतर सफल परीक्षण किया गया । उन्होंने बताया के पानी के भीतर सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल का दुनिया में कहीं भी यह पहला परीक्षण है । मिसाइल ने अपनी क्षमता के अनुरूप २८० किमी से ज्यादा दूरी तय की । परीक्षण के दौरान मिसाइल का प्रदर्शन एकदम सटीक था ।
    पानी के जहाज और जमीन से छोड़े जाने वाली ब्रह्मोस मिसाइल सफल परीक्षण के बाद भारतीय थल सेना और नौ सेना में तैनात कर दी गई है । पनडुब्बी में आड़े तरीके से फिट करने के लिए  ब्रह्मोस मिसाइल पूरी तरह है सक्षम । पनडुब्बी में मसाइल लगने के बाद यह दुनिया की सबसे मारक पनडुब्बी बन जाएगी । रक्षा मंत्री एके एंटोनी ने रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के वैज्ञानिकों तथा रूसी विशेषज्ञों सहित इस परियोजना से जुड़े भारतीय नौ सेना के अधिकारियों को सफल परीक्षण के लिए बधाई दी है ।

ऊर्जा का स्त्रोत बनेगी जलती बर्फ

    तेल और गैस के भारी आयात ने भारत का व्यापार घाटा बहुत बढ़ा दिया है । यह चीज देश की तेज आर्थिक वृद्धि की राह में रोड़ा बन रही है । लेकिन पिछले हफ्ते जापान ऑयल गैस एंड मेटल्स नैशनल कॉरपोरेशन (जेओजीएम ईसी)की एक तकनीकी उपलब्धि हमारे लिए अंधेरे में आशा की किरण बनकर आई है । वे लोग समुद्र तल पर जमा मीथेन हाइड्रेट के भंडार से प्राकृतिक गेैस निकालने में कामयाब रहे । इस चीज को आम बोलचाल में फायर आइस या जलती बर्फ भी कहते हैं, क्योंकि यह चीज सफेद ठोस क्रिस्टलाइन रूप मेंपाई जाती है और ज्वलनशील होती है । भारत के पास संसार के सबसे बड़े मीथेन हाइड्रेट भंडार है । 

     मीथेन हाइड्रेट प्राकृतिक गैस और पानी का मिश्रण है । गहरे समुद्र तल पर पाई जाने वाली निम्न ताप और उच्च् दाब की विशेष स्थितियोंमें यह ठोस रूप धारण कर लेता है । कनाडा और रूस के स्थायी रूप से जमे रहने वाले उत्तरी समुद्रतटीय इलाकों में यह जमीन पर भी पाया जाता है । इन जगहों से निकाले जाने के बाद इसे गरम करके या कम दबाव की स्थिति मेंलाकर  (जेओजीएमईसी ने यही तकनीक अपनाई थी) इससे प्राकृतिक गैस निकाली जा सकती है । एक लीटर ठोस हाइड्रेट से १६५ लीटर गैस प्राप्त् होती है । यह जानकारी काफी पहले से है कि भारत के पास मीथेन हाइड्रेट के बहुत बड़े भंडार हैं । अपने यहां इसकी मात्रा का अनुमान १८,९०० खरब घन मीटर का लगाया गया है । भारत और अमेरिका के एक संयुक्त वैज्ञानिक अभियान के तहत २००६ में चार इलाकों की खोजबीन की गई । ये थे - केरल-कोंकण बेसिन, कृष्णा गोदावरी बेसिन, महानदी बेसिन और अंडमान द्वीप सूह के आसपास के समुद्री इलाके । इनमें कृष्णा गोदावरी बेसिन हाइड्रेट के मामले में संसार का सबसे समृद्ध और सबसे बड़ा इलाका साबित हुआ । अंडमान क्षेत्र में समुद्र तल से ६०० मीटर नीचे ज्वालामुखी की राख में हाइड्रेट के सबसे भंडार पाए गए । महानदी बेसिन में भी हाइड्रेटस का पता लगा ।
    बहरहाल, आगे का रास्ता आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियों से होकर गुजरता है । हाइड्रेट से गैस निकालने का किफायती तरीका अभी तक कोई नहीं खोज पाया है । उद्योग जगत का मोटा अनुमान है कि इस पर प्रारंभिक लागत ३० डॉलर प्रति एमएमबीटीयू (मिलियन मीट्रिक ब्रिटिश थर्मल यूनिट) आएगी, जो एशिया में इसके हाजिर भाव को दोगुना और अमेरिका में इसकी घरेलू कीमत का नौगुना है । जेओजीएम ईसी को उम्मीद है कि नई तकनीक  और बड़े पैमाने के उत्पादन के क्रम में इस पर आने वाली लागत घटाई जा सकेगी । लेकिन पर्यावरण की चुनौतियां फिर भी अपनी जगह कायम रहेगी । गैस निकालने के लिए चाहे हाइड्रेट को गरम करने का तरीका अपनाया जाए, या इसे कम दाब की स्थिति में ले जाने का, या फिर या दोनों तरीकें एक साथ अपनाए जाएं, लेकिन हर हाल में गैस की काफी बड़ी मात्रा रिसकर वायुमंडल में जाएगी और इसका असर पर्यावरण पर पड़ेगा । कार्बन डाई ऑक्साइड की तुलना में प्राकृतिक गैस १५-२० गुना गर्मी रोकती है । पर्यावरण से जुड़ी इन आशंकाआें के चलते कई देशों ने अपने यहां शेल गैस का उत्पादन ठप कर दिया है और हाइड्रेट से गैस निकालने के तो पर्यावरणवादी बिल्कुल ही खिलाफ   है । लेकिन शेल गैस के रिसाव को रोकना ज्यादा कठिन नहीं है । कौन जाने आगे हाइड्रेट गैस के मामले मेंभी ऐसा हो सके । काफी पहले, सन् २००६ मेंमुकेश अंबानी ने गैस हाइड्रेट्स के बारे में एक राष्ट्रीय नीति बनाने को कहा था, लेकिन आज तक दिशा में कुछ नहीं किया सका है । अमेरिका, जापान और चीन में हाइड्रेट्स पर काफी शोध चल रहे हैं लेकिन भारत में इस पर न के  बराबर ही काम हो पाया है । राष्ट्रीय गैस हाइड्रेट कार्यक्रम के तहत पहला इसके भंडार खोजने के लिए पहला समुद्री अभियान भी २००६ में चला था । दूसरे अभियान की तब अब तक बात ही चल रही है ।

जीएम फसलों का जंजाल


    देश में आधुनिक जैव प्रौघोगिक के अन्तर्गत आनुवांशिक बदलाव वाली या जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) फसलों और देश की खाद्य सुरक्षा के संभावित मूल्यांकन को लेकर बहस चल रही है । बीटी फसलों में टॉक्सिन (जहर) बनाने वाली जीन डाली जाती है, जो मिट्टी में पाए जाने वाले एक बैक्टीरिया बैसिलस थूरिजेनेसिस (बीटी) में पाई जाती है । इससे तैयार होने वाली फसल बीटी फसल कहलाती है ।
    यह जीन फसलों पर खुद जहर बनकर उन पर लगने वाले कीट को मार देती है । कुछ बड़ी जैव प्रॉद्योगिकी कंपनियां, कृषि वैज्ञानिक और प्रबुद्ध लोगों का एक वर्ग बढ़ती  आबादी, घटती खेतिहर भूमि के कारण देश में खाद्य सुरक्षा के लिए जीएम बीज तकनीक को अपनाने पर जोर दे रहा है । मगर क्या वाकई जीएम फसलेंहमारे लिए उपयोगी है ?

     पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के बीटी बैंगन के व्यावसा-यीकरण के स्थगन के बाद बहुराष्ट्रीय बीज उद्योग ने भारत मेंजीएम फसलों के पक्ष में अभियान छेड़ दिया । प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहाकार समिति ने देश की खाद्यान्न सुरक्षा के लिए जीएम फसल अपनाने की सलाह दे डाली  है । स्वयं कृषि मंत्री शरद पंवार इसके बड़े पैरोकार हैं ।
    मगर देश में पहले ही हरित क्रांति ने रसायनों का अंधाधंुध प्रयोग करके भूमि की उर्वरता, भूमिगत जल और पर्यावरण को इस कदर विषैला बना दिया है कि इसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं है । जीएम फसलों के घोड़े पर सवार होकर जो दूसरी कथित हरित क्रांति आ रही है, उससे कृषि पर्यावरण, मानस स्वास्थ्य, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पर पड़ने वाले असर का आकलन करना आवश्यक है ।
    दुनिया भर के विशेषज्ञ पिछले ५० वर्षो में सभी कृषि प्रौघोगिकियों और पद्धतियों का मूल्यांकन कर इस नतीजे पर पहुंचे है कि ऐसी कृषि पद्धति, जो पारस्थितिकी दृष्टिकोण एवं टिकाऊ कृषि पद्धतियों को अपनाते हुए जैविक खेती का समर्थन करती है, गरीबी कम करने और खाद्य सुरक्षा को आत्मनिर्भर बनाने में ज्यादा सार्थक सिद्ध हुई है । स्वामीनाथन टास्क फोर्स ने २००४ में सरकार को सौंपी रिपोर्ट में कहा कि जीएम फसल अपनाने की तकनीक उन्हीं स्थिति में अपनाई जाए, जब और कोई विकल्प न बचे ।

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