विशेष लेख
दोहा वार्ता : जलवायु परिवर्तन पर सालाना पिकनिक
के. जयलक्ष्मी
वर्ष २०१२ में वैश्विक स्तर पर कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के एक बार फिर उंचाइयों पर पहुंचने की संभावना है । युनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंग्लिया स्थित टिन्डाल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च अनुसंधानकर्ताआें के नेतृत्व में चलाए जा रहे वैश्विक कार्बन प्रोजेक्ट के ताजा आंकड़ों के अनुसार इस साल ३५.६ अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होगा । यह पिछले साल की तुलना में २.६ फीसदी ज्यादा होगा । क्योटो प्रोटोकॉल में कार्बन उत्सर्जन को वर्ष १९९० के स्तर तक लाने की बात कही गई थी । यह उससे ५८ फीसदी अधिक होगा ।
दोहा वार्ता : जलवायु परिवर्तन पर सालाना पिकनिक
के. जयलक्ष्मी
वर्ष २०१२ में वैश्विक स्तर पर कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के एक बार फिर उंचाइयों पर पहुंचने की संभावना है । युनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंग्लिया स्थित टिन्डाल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च अनुसंधानकर्ताआें के नेतृत्व में चलाए जा रहे वैश्विक कार्बन प्रोजेक्ट के ताजा आंकड़ों के अनुसार इस साल ३५.६ अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होगा । यह पिछले साल की तुलना में २.६ फीसदी ज्यादा होगा । क्योटो प्रोटोकॉल में कार्बन उत्सर्जन को वर्ष १९९० के स्तर तक लाने की बात कही गई थी । यह उससे ५८ फीसदी अधिक होगा ।
वैश्विक कार्बन प्रोजेक्ट का यह ताजा विश्लेषण जर्नल नेचर क्लाइमेट चेंज के २दिसंबर के अंक में समग्र आंकड़ों के साथ प्रकाशित हुआ है । इसी विश्लेषण को पत्रिका अर्थ सिस्टम साइंस डैटा डिस्कशंस द्वारा भी जारी किया गया है । इसके अनुसार वर्ष २०११ में वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में सबसे बड़ा हिस्सा चीन (२८ फीसदी) का रहा है । इसके बाद अमरीका (१६ फीसदी), युरोपीय संघ (११ फीसदी) और भारत (७ फीसदी) का योगदान रहा है । चीन में कार्बन उत्सर्जन में ९.९ फीसदी और भारत में कार्बन उत्सर्जन में ७.५ फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई, जबकि अमरीका में १.८ फीसदी और युरोपीय संघ के देशों में २.८ फीसदी की कमी आई । चीन में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन ६.६ टन तक पहुंच गया है जो युरोपीय संघ के ७.३ टन के आसपास है । हालांकि यह अब भी अमरीका से पीछे है, जहां प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन १७.२ टन प्रति व्यक्ति है । वर्ष २०११ में वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता ३९१ पीपीएम (पाट्र्स पर मिलियन) तक पहुंच गई थी ।
ये नतीजे हमें अगाह कर रहे हैं कि कार्बन उत्सर्जन की दर पहले से ही काफी खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी है और अगर इस पर समय रहते काबू नहीं पाया गया तो समाज को इसकी भारी कीमत चुकानी होगाी । इससे पहले अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम, विश्व बैंक, युरोपीय पर्यावरण एजेंसी और प्राइसवाटरहाउस कूपर्स भी अपनी रिपोट्र्स में ऐसी ही चिंता जता चुके हैं । प्राइसवाटरहाउस कूपर्स का अध्ययन तो कहता है कि दुनिया इस सदी में भयावह वैश्विक जलवायु परिवर्तन के दौर से गुजरेगी । इसके अनुसार जीवाश्म इंर्धन के विकल्प तलाशने में सरकारों की विफलता के कारण वैश्विक तापमान में ६ डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है ।
जलवायु परिवर्तन पर सरकारों की समिति (आईपीसीसी) के दो डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य का पूरा करने के लिए दुनिया की अर्थ व्यवस्थाआें को अगले ३९ सालों तक ५.१ फीसदी की कार्बन-मुक्ति दर हासिल करनी होगी । लेकिन यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से आज तक नहीं हो पाया है ।
दोहा वार्ता
जलवायु परिवर्तन से तालमेल बैठाने के लिए विकसित देशों द्वारा गरीब देशों को मदद करने का पक्का आश्वासन सदैव बहस के केन्द्र में रहा है । विकसित देशों ने वर्ष २००९ में जो वादा किया था, उसके अनुरूप वे करीब ३० अरब डॉलर की राशि अनुदान और कर्ज के रूप में जारी कर चुके हैं । यह प्रतिबद्धता इस साल समाप्त् हो जाएगी । गरीब देशों को सालाना १०० अरब डॉलर की राशि मुहैया करवाने के लिए ग्रीन क्लाइमेट फंड तैयार किया गया है, लेकिन इसकी शुरूआत में अभी वक्त है ।
कार्बन उत्सर्जन की सीमा बांधने वाली एकमात्र संधि क्योटो प्रोटोकॉल की अवधि भी इसी साल के अंत मेंखत्म हो रही है । कतर की राजधानी दोहा में एकत्र विभिन्न देशों के पर्यावरण मंत्रियों और जलवायु से जुड़े अधिकारियों ने इस संधि को वर्ष २०२० तक बढ़ाने पर सहमति देकर इस सम्मेलन को पूरी तरह विफल होने से बचा लिया ।
कार्बन उत्सर्जन में कमी को लेकर विकसित देश अपनी प्रतिबद्धता पूरी नहीं कर पाए हैं । और तो और, इस लक्ष्य को पूरा करने के मामले में वे विकासशील देशों से भी पीछे रहे हैं । इससे कार्बन उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य काफी हद तक पूरा नहीं हो पाया है । एक तो विकसित देश अपना वादा पूरा नहीं कर पाए, ऊपर से विकासशील देशों को इस उत्सर्जन में और कटौती करने को कह रहे हैं ।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की दो दशक पुरानी वार्ता ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने के अपने मुख्य उद्देश्य में विफल रही है । ये वही गैसें हैं, जिनकी वजह से धरती गर्म हो रही है । इस वार्ता का एकमात्र सकारात्मक परिणाम जलवायु वित्त पोषण व्यवस्था है, लेकिन इससे भी सस्या उलझ गई है । अब जलवायु परिवर्तन पर होने वाली बैठकें भी कार्बन उत्सर्जन में कटौती के बदले धन कमाने का जरिया बनती जा रही है ।
ऑक्सफैम की रिपोर्ट
दोहा में जलवायु परिवर्तन पर होने वाली वार्ता की पूर्व संध्या पर जारी एक रिपोर्ट में कहा गया कि विकसित व संपन्न देशों को धोखा दिया है । विकसित देशों ने वर्ष २००९ में २०१० से २०१२ के बीच गरीब देशों को ३० अरब डॉलर की फास्ट ट्रेक फंडिंग और वर्ष २०२० से हर साल १०० अरब डॉलर देने का वादा किया था । यह राशि कर्ज या मदद के तौर पर नहीं बल्कि क्षतिपूर्ति के तौर पर दी जानी दी थी । यह राशि गरीब देशों को इसलिए दी जानी थी ताकि वे स्वयं को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बना सके । यह रायिा ओवरसीज डेवलपमेंट एड (ओडीए) के अतिरिक्त दी जानी थी । वास्तव में हुआ यह है कि विकसित देशों ने पुराने फंडों के नाम बदल दिए हैं ।
इस रिपोर्ट में ब्रिटिश संस्था ऑक्सफैम द्वारा किए गए एक रिसर्च के हवाले से कहा गया है कि विकसित देशोंने क्लाइमेट फडिंग के नाम पर पूरी दुनिया को मुर्ख बनाया है और वे जलवायु परिवर्तन की आड़ में गरीब देशों को अनुदान देने की बजाय कर्ज दे रहे हैं । इतना ही नहीं, यह राशि भी ओडीए से ही जा रही है । अब तक जो राशि दी गई है, उसमें से केवल २४ फीसदी ही ओडीए के अतिरिक्त है । इस राशि में से भी केवल ४३ फीसदी ही अनुदान के रूप में है । शेष राशि कर्ज पर दी गई हैं, जिस पर विकसित देश ब्याज भी कमाएंगे । प्रदान की गई राशि में से केवल२१ फीसदी का ही इस्तेमाल जलवायु अनुकूलन में किया गया । विकसित देशों द्वारा वर्ष २०१३ से २०२० की अवधि के लिए ठोस वित्तीय वादे का ऐलान अभी बाकी है ।
इसी बीच भारत ने दोहराया है कि २००५ में कार्बन उत्सर्जन का जो स्तर था, उसमें से २० से २५ फीसदी तक की कटौती वर्ष २०२० तक करने के स्वेच्छा से किए गए वादे पर वह टिका रहेगा । एक ऐसी नई संधि होने की भी संभावना जताई जा रही है जो चीन सहित तमाम विकासशील देशों पर लागू होगी । गौरतलब है कि दुनिया में कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन चीन ही कर रहा है । इस संधि पर २०१५ में दस्तखत होने की संभावना है । लागू यह इसके पांच साल बाद होगी ।
दक्षिण एशिया पर खतरा
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट ४ डिग्री सेल्सियस वृद्धि से बचें को पूरे दक्षिण एशिया के लिए खतरे की घंटी के रूप में लिया जाना चाहिए । चाहे समुद्र तल से २.७ मीटर की ऊंचाई पर स्थित मालदीव हो या ५२४२ मीटर की ऊंचाई पर स्थित नेपाल, वैश्विक तापमान का असर सभी पर एक समान होगा । पिछले दो दशक के दौरान दक्षिण एशिया की ५० फीसदी आबादी यानी करीब ७५ करोड़ लोग प्राकृतिक आपदाआेंसे प्रभावित हुए हैं । इसमें ६० हजार से भी अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है और ४५ अरब डॉलर से भी अधिक का नुकसान हुआ है । इस अवधि में बंगाल की खाड़ी में आठ भयंकर तूफान आए हैं और इसके आसपास का क्षेत्र बाढ़ की सर्वाधिक आशंका वाले क्षेत्रों में शामिल है । वर्ष २०१० में पाकिस्तान में आई बाढ़ इतनी भयावह थी कि उसका देश के करीब २० फीसदी हिस्से पर असर पड़ा था और उस वजह से दो करोड़ लोग विस्थापित हुए थे । वर्ष २०११ और २०१२ में भी पाकिस्तान को कई बार बाढ़ का सामना करना पड़ा ।
दक्षिण एशिया के अधिकांश देशों में दो-तिहाई आबादी अपनी आजीविका के लिए खेती पर निर्भर है और यह खेती मुख्यत: मानसून पर आश्रित है । इन देशों में ७० फीसदी बारिश मानसून के चार महीनों में होती है । अनियमित मानसून के कारण खाद्य पदार्थोंा की कीमतें पहले ही आसमान छू रही हैं । एशिया के १.३० अरब लोग मुख्य रूप से सात बड़ी नदियों पर निर्भर हैं जिनके पानी का स्त्रोत हिमालय के ग्लेशियर हैंं । ये ग्लेशियर पहले ही संकट में हैं । ६० करोड़ गरीब और ३३ करोड़ कुपोषित आबादी वाला दक्षिण एशिया जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले प्रभावोंको शायद ही सहन कर सकेगा ।
विश्व बैंक की रिपोर्ट का मुख्य सार यह है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के वादोंको पूरा नहीं करने के परिणामस्वरूप वैश्विक तापमान में तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी । नतीजतन, समुद्र के जल स्तर में वृद्धि होगी, सूखे और बाढ़ की घटनाएं अभूतपूर्व ढंग से बढ़ेंगी और कृषि की पैदावार में गिरावट आएगी ।
रिपोर्ट में विकास सम्बंधी और भी कई चुनौतियों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें इस क्षेत्र की नीतियों में शामिल नहीं किया गया है, जैसे महासागरों का अम्लीकरण, समुद्रों के जल स्तर में वृद्धि के कारण भारत के तटीय इलाकोंपर पड़ने वाला असर आदि ।
यहां यह भी गौरतलब है कि दक्षिण एशिया क्षेत्र में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में सालाना ३.३ फीसदी की दर से वृद्धि हो रही है । मध्य पूर्व को छोड़ दें, तो यह वृद्धि अन्य तमाम क्षेत्रों की तुलना में कहां ज्यादा है । प्रति व्यक्ति ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की मात्रा की आड़ में खुद को छिपाना आसान है, लेकिन तथ्य यही है कि पर्यावरण को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उत्सर्जन प्रति व्यक्ति कितना है । क्षेत्र के लिए विकास गतिविधियों की अनिवर्यता के मद्देनजर यह सुनिश्चित करना बहुत ही अहम हो गया है कि जलवायु सम्बंधी वित्त-पोषण ऐसा हो कि उससे सभी सम्बंधित पक्ष संतुष्ट हों और इस तरह कार्बन उत्सर्जन पर ब्रेक लग सके ।
ये नतीजे हमें अगाह कर रहे हैं कि कार्बन उत्सर्जन की दर पहले से ही काफी खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी है और अगर इस पर समय रहते काबू नहीं पाया गया तो समाज को इसकी भारी कीमत चुकानी होगाी । इससे पहले अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम, विश्व बैंक, युरोपीय पर्यावरण एजेंसी और प्राइसवाटरहाउस कूपर्स भी अपनी रिपोट्र्स में ऐसी ही चिंता जता चुके हैं । प्राइसवाटरहाउस कूपर्स का अध्ययन तो कहता है कि दुनिया इस सदी में भयावह वैश्विक जलवायु परिवर्तन के दौर से गुजरेगी । इसके अनुसार जीवाश्म इंर्धन के विकल्प तलाशने में सरकारों की विफलता के कारण वैश्विक तापमान में ६ डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है ।
जलवायु परिवर्तन पर सरकारों की समिति (आईपीसीसी) के दो डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य का पूरा करने के लिए दुनिया की अर्थ व्यवस्थाआें को अगले ३९ सालों तक ५.१ फीसदी की कार्बन-मुक्ति दर हासिल करनी होगी । लेकिन यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से आज तक नहीं हो पाया है ।
दोहा वार्ता
जलवायु परिवर्तन से तालमेल बैठाने के लिए विकसित देशों द्वारा गरीब देशों को मदद करने का पक्का आश्वासन सदैव बहस के केन्द्र में रहा है । विकसित देशों ने वर्ष २००९ में जो वादा किया था, उसके अनुरूप वे करीब ३० अरब डॉलर की राशि अनुदान और कर्ज के रूप में जारी कर चुके हैं । यह प्रतिबद्धता इस साल समाप्त् हो जाएगी । गरीब देशों को सालाना १०० अरब डॉलर की राशि मुहैया करवाने के लिए ग्रीन क्लाइमेट फंड तैयार किया गया है, लेकिन इसकी शुरूआत में अभी वक्त है ।
कार्बन उत्सर्जन की सीमा बांधने वाली एकमात्र संधि क्योटो प्रोटोकॉल की अवधि भी इसी साल के अंत मेंखत्म हो रही है । कतर की राजधानी दोहा में एकत्र विभिन्न देशों के पर्यावरण मंत्रियों और जलवायु से जुड़े अधिकारियों ने इस संधि को वर्ष २०२० तक बढ़ाने पर सहमति देकर इस सम्मेलन को पूरी तरह विफल होने से बचा लिया ।
कार्बन उत्सर्जन में कमी को लेकर विकसित देश अपनी प्रतिबद्धता पूरी नहीं कर पाए हैं । और तो और, इस लक्ष्य को पूरा करने के मामले में वे विकासशील देशों से भी पीछे रहे हैं । इससे कार्बन उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य काफी हद तक पूरा नहीं हो पाया है । एक तो विकसित देश अपना वादा पूरा नहीं कर पाए, ऊपर से विकासशील देशों को इस उत्सर्जन में और कटौती करने को कह रहे हैं ।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की दो दशक पुरानी वार्ता ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने के अपने मुख्य उद्देश्य में विफल रही है । ये वही गैसें हैं, जिनकी वजह से धरती गर्म हो रही है । इस वार्ता का एकमात्र सकारात्मक परिणाम जलवायु वित्त पोषण व्यवस्था है, लेकिन इससे भी सस्या उलझ गई है । अब जलवायु परिवर्तन पर होने वाली बैठकें भी कार्बन उत्सर्जन में कटौती के बदले धन कमाने का जरिया बनती जा रही है ।
ऑक्सफैम की रिपोर्ट
दोहा में जलवायु परिवर्तन पर होने वाली वार्ता की पूर्व संध्या पर जारी एक रिपोर्ट में कहा गया कि विकसित व संपन्न देशों को धोखा दिया है । विकसित देशों ने वर्ष २००९ में २०१० से २०१२ के बीच गरीब देशों को ३० अरब डॉलर की फास्ट ट्रेक फंडिंग और वर्ष २०२० से हर साल १०० अरब डॉलर देने का वादा किया था । यह राशि कर्ज या मदद के तौर पर नहीं बल्कि क्षतिपूर्ति के तौर पर दी जानी दी थी । यह राशि गरीब देशों को इसलिए दी जानी थी ताकि वे स्वयं को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बना सके । यह रायिा ओवरसीज डेवलपमेंट एड (ओडीए) के अतिरिक्त दी जानी थी । वास्तव में हुआ यह है कि विकसित देशों ने पुराने फंडों के नाम बदल दिए हैं ।
इस रिपोर्ट में ब्रिटिश संस्था ऑक्सफैम द्वारा किए गए एक रिसर्च के हवाले से कहा गया है कि विकसित देशोंने क्लाइमेट फडिंग के नाम पर पूरी दुनिया को मुर्ख बनाया है और वे जलवायु परिवर्तन की आड़ में गरीब देशों को अनुदान देने की बजाय कर्ज दे रहे हैं । इतना ही नहीं, यह राशि भी ओडीए से ही जा रही है । अब तक जो राशि दी गई है, उसमें से केवल २४ फीसदी ही ओडीए के अतिरिक्त है । इस राशि में से भी केवल ४३ फीसदी ही अनुदान के रूप में है । शेष राशि कर्ज पर दी गई हैं, जिस पर विकसित देश ब्याज भी कमाएंगे । प्रदान की गई राशि में से केवल२१ फीसदी का ही इस्तेमाल जलवायु अनुकूलन में किया गया । विकसित देशों द्वारा वर्ष २०१३ से २०२० की अवधि के लिए ठोस वित्तीय वादे का ऐलान अभी बाकी है ।
इसी बीच भारत ने दोहराया है कि २००५ में कार्बन उत्सर्जन का जो स्तर था, उसमें से २० से २५ फीसदी तक की कटौती वर्ष २०२० तक करने के स्वेच्छा से किए गए वादे पर वह टिका रहेगा । एक ऐसी नई संधि होने की भी संभावना जताई जा रही है जो चीन सहित तमाम विकासशील देशों पर लागू होगी । गौरतलब है कि दुनिया में कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन चीन ही कर रहा है । इस संधि पर २०१५ में दस्तखत होने की संभावना है । लागू यह इसके पांच साल बाद होगी ।
दक्षिण एशिया पर खतरा
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट ४ डिग्री सेल्सियस वृद्धि से बचें को पूरे दक्षिण एशिया के लिए खतरे की घंटी के रूप में लिया जाना चाहिए । चाहे समुद्र तल से २.७ मीटर की ऊंचाई पर स्थित मालदीव हो या ५२४२ मीटर की ऊंचाई पर स्थित नेपाल, वैश्विक तापमान का असर सभी पर एक समान होगा । पिछले दो दशक के दौरान दक्षिण एशिया की ५० फीसदी आबादी यानी करीब ७५ करोड़ लोग प्राकृतिक आपदाआेंसे प्रभावित हुए हैं । इसमें ६० हजार से भी अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है और ४५ अरब डॉलर से भी अधिक का नुकसान हुआ है । इस अवधि में बंगाल की खाड़ी में आठ भयंकर तूफान आए हैं और इसके आसपास का क्षेत्र बाढ़ की सर्वाधिक आशंका वाले क्षेत्रों में शामिल है । वर्ष २०१० में पाकिस्तान में आई बाढ़ इतनी भयावह थी कि उसका देश के करीब २० फीसदी हिस्से पर असर पड़ा था और उस वजह से दो करोड़ लोग विस्थापित हुए थे । वर्ष २०११ और २०१२ में भी पाकिस्तान को कई बार बाढ़ का सामना करना पड़ा ।
दक्षिण एशिया के अधिकांश देशों में दो-तिहाई आबादी अपनी आजीविका के लिए खेती पर निर्भर है और यह खेती मुख्यत: मानसून पर आश्रित है । इन देशों में ७० फीसदी बारिश मानसून के चार महीनों में होती है । अनियमित मानसून के कारण खाद्य पदार्थोंा की कीमतें पहले ही आसमान छू रही हैं । एशिया के १.३० अरब लोग मुख्य रूप से सात बड़ी नदियों पर निर्भर हैं जिनके पानी का स्त्रोत हिमालय के ग्लेशियर हैंं । ये ग्लेशियर पहले ही संकट में हैं । ६० करोड़ गरीब और ३३ करोड़ कुपोषित आबादी वाला दक्षिण एशिया जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले प्रभावोंको शायद ही सहन कर सकेगा ।
विश्व बैंक की रिपोर्ट का मुख्य सार यह है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के वादोंको पूरा नहीं करने के परिणामस्वरूप वैश्विक तापमान में तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी । नतीजतन, समुद्र के जल स्तर में वृद्धि होगी, सूखे और बाढ़ की घटनाएं अभूतपूर्व ढंग से बढ़ेंगी और कृषि की पैदावार में गिरावट आएगी ।
रिपोर्ट में विकास सम्बंधी और भी कई चुनौतियों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें इस क्षेत्र की नीतियों में शामिल नहीं किया गया है, जैसे महासागरों का अम्लीकरण, समुद्रों के जल स्तर में वृद्धि के कारण भारत के तटीय इलाकोंपर पड़ने वाला असर आदि ।
यहां यह भी गौरतलब है कि दक्षिण एशिया क्षेत्र में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में सालाना ३.३ फीसदी की दर से वृद्धि हो रही है । मध्य पूर्व को छोड़ दें, तो यह वृद्धि अन्य तमाम क्षेत्रों की तुलना में कहां ज्यादा है । प्रति व्यक्ति ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की मात्रा की आड़ में खुद को छिपाना आसान है, लेकिन तथ्य यही है कि पर्यावरण को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उत्सर्जन प्रति व्यक्ति कितना है । क्षेत्र के लिए विकास गतिविधियों की अनिवर्यता के मद्देनजर यह सुनिश्चित करना बहुत ही अहम हो गया है कि जलवायु सम्बंधी वित्त-पोषण ऐसा हो कि उससे सभी सम्बंधित पक्ष संतुष्ट हों और इस तरह कार्बन उत्सर्जन पर ब्रेक लग सके ।
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