सामाजिक पर्यावरण
नक्सलवाद : इतिहास ही भविष्य बतलाएगा
डॉ. कश्मीर उप्पल
नक्सलवाद की बढ़ती समस्या के बीच इसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी लंबा खिंचता जा रहा है। आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को कानून की प्रस्तावना में स्थान देने वाली सरकारें इस अन्याय की समाप्ति को जमीनी हकीकत नहीं बना पा रही हैं ।
२० अक्टूबर १९६२ को चीन का भारत पर आक्रमण सभी को याद होगा । इस युद्ध से ``हिंदी-चीनी भाई-भाई`` के नारे और पंचशील के सिद्धांतों के साथ और भी कई कुछ टूटकर बिखर गया था । इस युद्ध ने भारत के कम्युनिस्टों में भी सैद्धांतिक दरारें पैदा कर दी थीं । इनका एक धड़ा लेनिन के रूस के सिद्धांतों और दूसरा धड़ा माओ के चीन के सिद्धांतों के आधार पर भारत में राजनीति करना चाहता था । इस पर तीव्र मतभेद चीन के आक्रमण के बाद ही उभरे थे ।
नक्सलवाद : इतिहास ही भविष्य बतलाएगा
डॉ. कश्मीर उप्पल
नक्सलवाद की बढ़ती समस्या के बीच इसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी लंबा खिंचता जा रहा है। आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को कानून की प्रस्तावना में स्थान देने वाली सरकारें इस अन्याय की समाप्ति को जमीनी हकीकत नहीं बना पा रही हैं ।
२० अक्टूबर १९६२ को चीन का भारत पर आक्रमण सभी को याद होगा । इस युद्ध से ``हिंदी-चीनी भाई-भाई`` के नारे और पंचशील के सिद्धांतों के साथ और भी कई कुछ टूटकर बिखर गया था । इस युद्ध ने भारत के कम्युनिस्टों में भी सैद्धांतिक दरारें पैदा कर दी थीं । इनका एक धड़ा लेनिन के रूस के सिद्धांतों और दूसरा धड़ा माओ के चीन के सिद्धांतों के आधार पर भारत में राजनीति करना चाहता था । इस पर तीव्र मतभेद चीन के आक्रमण के बाद ही उभरे थे ।
कम्युनिस्ट पार्टी में चली लंबी बहस के बाद अंत में १९६४ में उसका विभाजन हो गया । इसके फलस्वरूप रूस समर्थक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) और चीन समर्थक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी (सीपीएम) का जन्म हुआ । चीन समर्थक सीपीएम के लोग चीन के माओ की ``रेड बुक`` या लाल किताब को धार्मिक पुस्तक गीता के समान मानते हैं । चीन में माओ ने हजारों लोगों के लांग मार्च से केंद्रीय सत्ता पर अधिकार किया था । इस लाल किताब का एक वाक्य `सत्ता बंदूक की नली से निकलती है` को युवा मार्क्सवादी माओवादी युवकों ने अपने देश, भारत के, संदर्भ में समझने और परखने का कष्ट नहीं किया ।
माओ के अनुसार सत्ता बंदूक की नली से निकलती है परन्तु हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने बहुत पहले ही इस विचार को गलत सिद्ध कर दिया है। प्रारंभ में बंगाल के माओ समर्थक युवकों ने वहां के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में बंदूक के प्रयोग से समानता लाने के आंदोलन शुरू किए । इन युवकों का सपना था कि वे चीन की तरह बंगाल से मार्च शुरू कर के विभिन्न राज्यों में पहुंचेंगे और उन राज्यों के युवक, भूमिहीन, किसान, मजदूर और अन्य शोषित वर्ग लोग उनके मार्च में जुड़ते जाएंगे । इस तरह कुछ वर्षों में वे दिल्ली पर कब्जा कर लेंगे ।
इन माओवादी सिद्धांतों के समर्थकों ने सन् १९६७ में बंगाल के नक्सलवाड़ी क्षेत्र में भूमिहीन किसानों को लेकर बड़े जमींदारों की जमीन पर कब्जा करना शुरू किया। कई बड़े जमींदारों ने इस हिंसक कार्यवाही पर ध्यान नहीं दिया और कई जगह जमींदारों ने इस कार्रवाई का विरोध भी किया । नक्सलवाड़ी के इस आंदोलन में कुछ सफलता मिली थी । इससे नक्सलवाड़ी में माओवादी युवकों को एक बड़ा सपना मिल गया । विशेषकर कलकत्ता के पढ़े लिखे युवकों को लगा कि वे भी पूरे बंगाल में सत्ता का समान वितरण कर सकते हैं ।
इस आंदोलन से प्रेरित होकर कुछ युवक बंदूक लेकर बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंचने लगे और कुछ कलकत्ता में कार्यवाही करने लगे। इसी समय नक्सलियों के भी कई समूह बन गए, उन सबके अपने-अपने सिद्धांत थे। कुछ मार्क्सवादी कुछ लेनिनवादी, कुछ माओवादी और कुछ लेनिन और मार्क्सवादी दोनों बन गए । फलस्वरूप अनेक युवकों और पुलिसकर्मियों की हत्या होने लगी। इन्हीं लोगों को नक्सलवादी कहा जाने लगा । पुलिस ने कोर कार्यवाही करते हुए हजारों नक्सलियों को कोलकत्ता और बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में खत्म कर दिया । कुछ ही वर्षों में बंगाल में नक्सलवादियों की रीढ़ टूट गई थी । कुछ नक्सली बंगाल से निकल बिहार और उड़ीसा में पहुंचने लगे । आगे बढ़कर इन्होंने आंध्रप्रदेश में `पीपुल्स वार ग्रुप` के नाम से तेलंगाना में प्रवेश किया । आंध्रप्रदेश से छत्तीसगढ़ में प्रवेश कठिन नहीं था । सन् १९८० में छत्तीसगढ़ में नक्सली सक्रिय हुए और मध्यप्रदेश के कई जिलों में भी उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई ।
नक्सलियों के लिए आधार भूमि बनाने का काम राज्यों में बढ़ती सामाजिक असमानता और बढ़ते अत्याचार करते हैं। कंपनियों और ठेकेदारोंके लिए कच्च माल और खनिज पदार्थ जंगलों में मिलते हैं । आजकल की बढ़ती पूंजीवादी व्यवस्था और मशीनी खेती ने गांवों में रोजगार के अवसर समाप्त कर दिए हैं। उद्योगों, बांधों, खनिजों और कई-कई परियोज-नाओं के बहानों से हजारों वर्षों से अपनी भूमि पर रह रहे लोगों को उनकी परंपरागत भूमि से बेदखल कर दिया जा रहा है। हमारी सरकारी मशीनरी अपने मंत्रियों और घूस खिलाने वालों के लिए क्या कुछ नहीं कर देती है । इसका विरोध करने पर पुलिस की लाठी और जेल तैयार रहती है ।
अभी कुछ दिन पहले मेधा पाटकर का भोपाल में दिया गया बयान अत्यंत गंभीर और दर्दभरा है कि ``यदि सरकार हम आंदोलनकारियों की बाते नहीं सुनेगी तो इंसाफ पाने के लिए लोग नक्सलवादियों के पास जाएंगे । `मेधा पाटकर के वक्तव्य की तरह देश के कई बड़े बुद्धिजीवी भी यही बात कह रहे हैं कि नक्सलवाद की फसल वहीं फलती फैलती है जहां सरकार आम आदमी को इंसाफ नहीं दे पाती है ।
नक्सलवादियों को विदेशों से भी गोला-बारूद और धन की सहायता मिलती है । नक्सलवाद सामाजिक और सरकार के अत्याचार पीड़ितों से ही अपनी ताकत बढ़ाते हैं । अत: प्रयास यही होना चाहिए कि अच्छी-अच्छी बातें नारों और भाषणों में ही नहीं हों उन्हें जमीन पर भी उतारा जाए । यह बात भी चिंताजनक है कि मध्यप्रदेश के छात्रों में नक्सली विचार का उन्माद फैलाया जा रहा है। इसके साथ यह भी ध्यान में रखना होगा कि नर्मदा किनारे मंडला से आगे कई बड़ी परियोजनाएं आने वाली हैं । आम लोगों के विस्थापन और पुनर्वास नीति पर पुनर्विचार बहुत जरूरी है, क्योंकि किसी भी समाज के विघटन के बहुत दूरगामी दुष्परिणाम होते हैं ।
छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले की कहानी बहुत ताजी है और सभी को उसके बारे में विस्तार से पढ़ने को भी मिल रहा है। यहां यह उल्लेखनीय है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सलवाजुडूम के संस्थापक महेंद्र कर्मा सबसे पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से दो बार विधायक रह चुके थे । इसके बाद वे कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए थे ।
माओ के अनुसार सत्ता बंदूक की नली से निकलती है परन्तु हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने बहुत पहले ही इस विचार को गलत सिद्ध कर दिया है। प्रारंभ में बंगाल के माओ समर्थक युवकों ने वहां के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में बंदूक के प्रयोग से समानता लाने के आंदोलन शुरू किए । इन युवकों का सपना था कि वे चीन की तरह बंगाल से मार्च शुरू कर के विभिन्न राज्यों में पहुंचेंगे और उन राज्यों के युवक, भूमिहीन, किसान, मजदूर और अन्य शोषित वर्ग लोग उनके मार्च में जुड़ते जाएंगे । इस तरह कुछ वर्षों में वे दिल्ली पर कब्जा कर लेंगे ।
इन माओवादी सिद्धांतों के समर्थकों ने सन् १९६७ में बंगाल के नक्सलवाड़ी क्षेत्र में भूमिहीन किसानों को लेकर बड़े जमींदारों की जमीन पर कब्जा करना शुरू किया। कई बड़े जमींदारों ने इस हिंसक कार्यवाही पर ध्यान नहीं दिया और कई जगह जमींदारों ने इस कार्रवाई का विरोध भी किया । नक्सलवाड़ी के इस आंदोलन में कुछ सफलता मिली थी । इससे नक्सलवाड़ी में माओवादी युवकों को एक बड़ा सपना मिल गया । विशेषकर कलकत्ता के पढ़े लिखे युवकों को लगा कि वे भी पूरे बंगाल में सत्ता का समान वितरण कर सकते हैं ।
इस आंदोलन से प्रेरित होकर कुछ युवक बंदूक लेकर बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंचने लगे और कुछ कलकत्ता में कार्यवाही करने लगे। इसी समय नक्सलियों के भी कई समूह बन गए, उन सबके अपने-अपने सिद्धांत थे। कुछ मार्क्सवादी कुछ लेनिनवादी, कुछ माओवादी और कुछ लेनिन और मार्क्सवादी दोनों बन गए । फलस्वरूप अनेक युवकों और पुलिसकर्मियों की हत्या होने लगी। इन्हीं लोगों को नक्सलवादी कहा जाने लगा । पुलिस ने कोर कार्यवाही करते हुए हजारों नक्सलियों को कोलकत्ता और बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में खत्म कर दिया । कुछ ही वर्षों में बंगाल में नक्सलवादियों की रीढ़ टूट गई थी । कुछ नक्सली बंगाल से निकल बिहार और उड़ीसा में पहुंचने लगे । आगे बढ़कर इन्होंने आंध्रप्रदेश में `पीपुल्स वार ग्रुप` के नाम से तेलंगाना में प्रवेश किया । आंध्रप्रदेश से छत्तीसगढ़ में प्रवेश कठिन नहीं था । सन् १९८० में छत्तीसगढ़ में नक्सली सक्रिय हुए और मध्यप्रदेश के कई जिलों में भी उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई ।
नक्सलियों के लिए आधार भूमि बनाने का काम राज्यों में बढ़ती सामाजिक असमानता और बढ़ते अत्याचार करते हैं। कंपनियों और ठेकेदारोंके लिए कच्च माल और खनिज पदार्थ जंगलों में मिलते हैं । आजकल की बढ़ती पूंजीवादी व्यवस्था और मशीनी खेती ने गांवों में रोजगार के अवसर समाप्त कर दिए हैं। उद्योगों, बांधों, खनिजों और कई-कई परियोज-नाओं के बहानों से हजारों वर्षों से अपनी भूमि पर रह रहे लोगों को उनकी परंपरागत भूमि से बेदखल कर दिया जा रहा है। हमारी सरकारी मशीनरी अपने मंत्रियों और घूस खिलाने वालों के लिए क्या कुछ नहीं कर देती है । इसका विरोध करने पर पुलिस की लाठी और जेल तैयार रहती है ।
अभी कुछ दिन पहले मेधा पाटकर का भोपाल में दिया गया बयान अत्यंत गंभीर और दर्दभरा है कि ``यदि सरकार हम आंदोलनकारियों की बाते नहीं सुनेगी तो इंसाफ पाने के लिए लोग नक्सलवादियों के पास जाएंगे । `मेधा पाटकर के वक्तव्य की तरह देश के कई बड़े बुद्धिजीवी भी यही बात कह रहे हैं कि नक्सलवाद की फसल वहीं फलती फैलती है जहां सरकार आम आदमी को इंसाफ नहीं दे पाती है ।
नक्सलवादियों को विदेशों से भी गोला-बारूद और धन की सहायता मिलती है । नक्सलवाद सामाजिक और सरकार के अत्याचार पीड़ितों से ही अपनी ताकत बढ़ाते हैं । अत: प्रयास यही होना चाहिए कि अच्छी-अच्छी बातें नारों और भाषणों में ही नहीं हों उन्हें जमीन पर भी उतारा जाए । यह बात भी चिंताजनक है कि मध्यप्रदेश के छात्रों में नक्सली विचार का उन्माद फैलाया जा रहा है। इसके साथ यह भी ध्यान में रखना होगा कि नर्मदा किनारे मंडला से आगे कई बड़ी परियोजनाएं आने वाली हैं । आम लोगों के विस्थापन और पुनर्वास नीति पर पुनर्विचार बहुत जरूरी है, क्योंकि किसी भी समाज के विघटन के बहुत दूरगामी दुष्परिणाम होते हैं ।
छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले की कहानी बहुत ताजी है और सभी को उसके बारे में विस्तार से पढ़ने को भी मिल रहा है। यहां यह उल्लेखनीय है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सलवाजुडूम के संस्थापक महेंद्र कर्मा सबसे पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से दो बार विधायक रह चुके थे । इसके बाद वे कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए थे ।
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