कविता
धरती मां, सूरज पिता
डॉ. रामनिवास मानव
आज न वट-पीपल रहे, रही न शीतल छांव ।
शहरों जैसे हो गये, अब तो सारे गांव ।।
पर्वत, हिमनद, वन सघन, समझो इन्हें विशेष ।
पूरी दुनिया को यही, माणा का सन्देश ।।
पेड़ों के रोमांच से, उपजाती है नेह ।
हरी-भरी लगती तभी, धरती मां की देह ।।
शुद्ध हवा-पानी मिलें, उजली-निर्मल धूप ।
निखरे सारे विश्व में, तब-जीवन का रूप ।।
हरी-भरी लगती धरा, सचमुच सुखद सुरम्य ।
कण-कण में जीवन-भरा, पावन और प्रणम्य ।।
धरती मां, सूरज पिता, हम इनकी सन्तान ।
कर्त्ता-भर्ता सब यही, और यही भगवान ।।
इनसे ही गतिशीलता, इनसे सर्दी धूप ।
इनसे जीवन को मले, सुन्दर-मोहक रूप ।।
पर्वत, घाटी, वन, नदी, निर्झर, की जलधार ।
धरती मां का ये सभी, करते हैं श्रृंगार ।।
सागर सुन्दर पांवड़ा, अम्बर तना वितान ।
जी-भर इन्हें निहारिये, दोनों ही छविमान ।।
सूरज ने पाती लिखी, पुलकित हुआ दिगन्त ।
धरा-देह झंकृत हुई, कण-कण खिला बसन्त ।।
धरती मां, सूरज पिता
डॉ. रामनिवास मानव
आज न वट-पीपल रहे, रही न शीतल छांव ।
शहरों जैसे हो गये, अब तो सारे गांव ।।
पर्वत, हिमनद, वन सघन, समझो इन्हें विशेष ।
पूरी दुनिया को यही, माणा का सन्देश ।।
पेड़ों के रोमांच से, उपजाती है नेह ।
हरी-भरी लगती तभी, धरती मां की देह ।।
शुद्ध हवा-पानी मिलें, उजली-निर्मल धूप ।
निखरे सारे विश्व में, तब-जीवन का रूप ।।
हरी-भरी लगती धरा, सचमुच सुखद सुरम्य ।
कण-कण में जीवन-भरा, पावन और प्रणम्य ।।
धरती मां, सूरज पिता, हम इनकी सन्तान ।
कर्त्ता-भर्ता सब यही, और यही भगवान ।।
इनसे ही गतिशीलता, इनसे सर्दी धूप ।
इनसे जीवन को मले, सुन्दर-मोहक रूप ।।
पर्वत, घाटी, वन, नदी, निर्झर, की जलधार ।
धरती मां का ये सभी, करते हैं श्रृंगार ।।
सागर सुन्दर पांवड़ा, अम्बर तना वितान ।
जी-भर इन्हें निहारिये, दोनों ही छविमान ।।
सूरज ने पाती लिखी, पुलकित हुआ दिगन्त ।
धरा-देह झंकृत हुई, कण-कण खिला बसन्त ।।
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