बुधवार, 12 जून 2013

पर्यावरण परिक्रमा'
पर्यटक चांद पर फरमाएंगे आराम
    जल्दी ही निजी अंतरिक्ष यात्री चांद पर आराम फरमाएंगे । अंतरिक्ष स्टेशन कार्यक्रम के तहत अंतरिक्ष यात्रियों को एक क्षुद्रग्रह की यात्रा पर रवाना करने का है । अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का कहना है कि एयरोस्पेस क्षेत्र में सक्रिय निजी कंपनियां का भी कई महत्वाकांक्षी परियोजनाआें को लेकर बेहद उत्साहित है । अगर सब कुछ सही रहता है तो जब नासा के एस्ट्रोनॉट्स एक क्षुद्रग्रह का मुआयना करने की यात्रा पर रवाना होंगे तो बहुत मुमकिन है कि निजी अंतरिक्षयात्री चंद्रमा पर बसी मानव बस्ती में रह रहे हो । नासा द्वारा कमीशन किए गए बिगेलो एयरोस्पेस द्वारा कराए गए एक शोध में यह बात सामने आई   है । संस्थान के निदेशक रॉबर्ट बिगेलो ने बताया कि निजी कंपनियोंने इन परियोजनाआें को लेकर काफी रूचि दिखाई है ।
    इन परियोजनाआें में आसपास के ग्रहोंपर फार्माक्यूटिकल शोधों का माहौल तलाशना और चंद्रमा पर जाने वाले मानवीय मिशनों से जुड़ी परियोजनाएं शामिल है । नासा का इरादा भी २०२५ तक अंतरिक्ष यात्रियों को क्षुद्रग्रह की यात्रा पर रवाना करने का है ।
    अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस वर्ष नासा के लिए १०.५ करोड़ डॉलर के बजट की घोषणा की है । इसके तहत इसे एक क्षुद्रग्रह को चंद्रमा की कक्षा में स्थापित किया जाएगा और भविष्य में अंतरिक्ष यात्री इसकी यात्रा पर जा रहे होगें ।

बिना मिट्टी के पानी में उगेंगी सब्जियां


    राजस्थान में बिना मिट्टी के पानी के पोषक तत्व डालकर ही हरी सब्जी का उत्पादन हो सकेगा । इसके लिए इजराइली विशेषज्ञों के दल जल्द राजस्थान आएगा । यही नहीं, राज्य  के हजारों गांवों में निम्न गुणवत्ता के खारे पानी तथा नाइट्रेट और फ्लोराइड से मुक्त पानी उपलब्ध कराने के लिए इजराइल की मैकरोल कंपनी राज्य सरकार के साथ समझौता करेगी । उल्लेखनीय है कि  पिछले दिनों भारत में इजरायल के राजदूत आलोन उसपीज बस्सी में सेंटर ऑफ एक्सीलेन्स की स्थापना करने आये थे और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ उनकी अनौपचारिक भेंट हुई थी, जिसमें उन्हें इजरायली तकनीकी का अवलोकन करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया था ।
    श्री गेहलोत के ६ दिवसीय इजरायल दौरे का मुख्य उद्देश्य इजरायल के सहयोग से राजस्थान में जल संसाधन (कृषि) बागवानी और अन्य क्षेत्रोंमें तकनीकी आधारित प्रयोगों की संभावनाआें का आंकलन करने के साथ ही इजरायल में अपनाई जा रही खारे पानी द्वारा फलों की खेती और कृषि कार्य में उच्च् तकनीकी के प्रयोग से पैदावार बढ़ाने के लिए किये जा रहे प्रयासों का अध्ययन करना था । साथ ही इजरायल में सीवरेज तथा निम्न गुणवत्ता के पानी के शुद्धिकरण के साथ खेती में जिस प्रकार पानी का  उपयोग किया जा रहा है, इजरायल की विश्व प्रसिद्ध तकनीक को लागू करने की संभावना की तलाश, राज्य में जल प्रबंधन एवं जल विज्ञान आदि प्रमुख है ।

देवभूमि को बनाया बांध भूमि

    उत्तराखंड में चार पवित्र धाम - गंगोत्री, यमनोत्री, बद्रीनाथ और केदारनाथ की भूमि । छोटे बड़े बांध हिमालय के पहाड़ों और नदियों की शक्ल तेजी से बदल रहे हैं । नदियां झीलों में जा सिमटी हैं । हरियाली से ढके पहाड़ बांधों के कारण मलबे का ढेर बनकर घाटियों में धंस रहे है । यह १३ जिलों का प्रदेश है और ४२२ बांध चिन्हित किए गए है । पर्यावरणविद् प्रो. जीडी अग्रवाल का कहना है देवभूमि बांध भूमि में बदल रही है । जब पहाड़ और गंगा समेत दूसरी नदियां ही नहीं रहेंगे तो कौन यहां आना चाहेगा ?
    एक तरफ पर्यावरणवादी संगठनों ने बांधों के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है । दूसरी तरफ, सत्ता में बैठी कांग्रेस और विपक्ष में बैठी भाजपा दोनों को ही उत्तराखंड की भलाई सिर्फ बांधों में नजर आ रही  है । मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा कहते हैं कि हमारी नदियों में २७ हजार मेगावॉट बिजली पैदा करने की क्षमता है जबकि सिर्फ ३६ सौ मेगावॉट का ही उत्पादन हो रहा है ।
    हाल ही में उत्तरकाशी से गंगोत्री के बीच के ४१७९ किमी इलाके को ईको सेसीटिव जोन (ईएसजेड) घोषित किया गया है । इसकी वजह से उत्तराखंड मेंबवाल मचा हुआ है । यह वही इलाका है, जहां आधे-अधूरे लोहारीनागा पाला बांध के अवशेष घाटी में बिखरे है ।
    तीन साल पहले निरस्त हुए ६०० मेगावॉट के इस बांध ने १८ कि.मी. लंबी पहाड़ियों को हमेशा के लिए जख्मी करके छोड़ा है । जगह-जगह सुरंगे बनाने के लिए हुई खुदाई और धमाकों ने पहाड़ों को इस कदर कमजोर कर दिया कि भूस्खलन की घटनाएं आम हो गई । गांव-गांव में इसके ताजे सबूत हैं ।
    पिछले साल उत्तरकाशी में कई मकानों, पुलों और रास्तों के नामोनिशान मिट गए । भटवाड़ी गांव में सड़क समेत आधा तहसील कार्यालय ही गंगा में समा गया । गंगा आव्हान समिति के कार्यकर्ता हेमंत ध्यानी कहते है, यह कहानी पूरे उत्तराखंड की है । बेहिसाब बांधों के सिवा सरकार के पास विकास का कोई विजन नहींहै ।
    ईको सेसिटिव जोन बनाने का फैसला केन्द्र सरकार का है । उत्तराखंड में इसका विरोध कांग्रेस और भाजपा दोनों मिलकर कर रहे  है । जबकि पर्यावरण के हिमायती इसे अब तक की अपनी सबसे बड़ी जीत बता रहे है । इससे पहले प्रो.जी.डी. अग्रवाल समेत कई संगठनों के दबाव में गंगोत्री के पास चार बांधों का बोरिया-बिस्तर बांध चुका है । इनमें सबसे बड़ा लोहारीनाग पाला बांध भी शामिल है, जिस पर सरकार सरकारी खजाने से ५०० करोड़ रूपये खर्च कर चुकी थी । ये बांध हिमालय के कच्च्े पहाड़ों में बन रहे है, जो भूकंप के लिहाज से सर्वाधिक संवेदनशील जोन ५ में आते है । इससे उत्तराखंड की मूल पहचान ही खत्म हो रही   है ।
    ईको सेंसिटिव जोन बनने से यहां नदी के आसपास निर्माण कार्योपर रोक लगेगी । डामर की सड़के नहीं बनेगी । तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के लिए पैदल रास्तों पर जोर दिया जाएगा । ऐसे में राज्य सरकार को दो सालों में इस इलाके की जरूरतों के हिसाब से विशेष मास्टर प्लान बनाना होगा । लेकिन इसकी बजाए पिछले दिनों मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने प्रधानमंत्री से मुलाकात करके इस फैसले को ही वापस लेने की मांग की है वे कह रहे है कि ईको सेसीटिव जोन बनने से ८८ गांव बेदखल होगे, हालांकि गजट नोटिफिकेशन में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है । बांध परियोजनाआें से जुड़े रहे ठेकेदारों और सप्लायरों के स्थानीय गुट भी लोगों को भड़काने में लगे है । उनका तर्क है कि पर्यटन  ही आमदनी का खास जरिया है ।
    ईको सेंसीटिव जोन से यहां की अर्थव्यवस्था स्था तबाह हो  जाएगी । भाजपा की पूर्व सरकार तो विधानसभा में संकल्प पारित करके पहले ही इसके खिलाफ खड़ी है । हिमालय एनवायरो स्टडीज एण्ड कंसर्वेशन ऑर्गनाईजेशन (हेस्को) के निदेशक अनिल जोशी कहते है कि प्रभावित गांवों की बेहतरी पर सरकार को लोगों से खुलकर बहस करनी   चाहिए । उन्हें भरोसे में लेकर योजनाएं बने तो पर्यटन बढ़ाने के साथ पर्यावरण को भी बचाना मुमकिन   है । उत्तराखंड घरेलू और विदेशी पर्यटकों के लिए खास आकर्षण रहा है । सालाना १३ फीसदी दर से यहां पर्यटक बढ़ रहे है । पर्यटकों को लुभाने के लिए सरकार भी नए-नए इलाके खोज रही है । हाल ही में २१ नए स्पॉट चिन्हित किए है । इन्हें विकसित करने का मतलब होगा कई पहाड़ और नदियों की सूरत बदलना ।
   
दुनिया में २६ करोड़ लोगों से जातिगत आधार पर भेदभाव
    दुनियाभर में २६ करोड़ से ज्यादा लोगों के साथ जातिगत आधार पर भेदभाव होता है । उनके मानवाधिकारोंका उल्लघंन होता है । यह निष्कर्ष संयुक्त राष्ट्र द्वारा नियुक्त विशेषज्ञों ने एक स्वतंत्र ग्रुप ने दी   है । इसने दक्षिण एशियाई देशों को इनकी रक्षा के लिए कानूनों को सख्त करने की भी चेतावनी दी है । विशेषज्ञों ने कहा है कि जाति-आधारित भेदभाव की जड़े बहुत गहरी हैं । इसके पीड़ितों को संरचनात्मक भदेभाव, उपेक्षा व व्यवस्थित बहिष्कार का सामना करना पड़ता है । यह मानवाधिकारों का घोर उल्लघंन है और क्रूर किस्म की हिंसा । दक्षिण एशिया में निचली जाति के लोगों को दलित या अछूत माना जाता है ।
    रिपोर्ट के अनुसार कई देशों में ऐसे लोगों को हाशिए पर रखा जाता है । इनका आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार किया जाता है । पीने का पानी, साफ-सफाई तथा रोजगार के मामले में भारी भेदभाव होता है । इनके काम करने की स्थितियां गुलामों की तरह होती है । दलित महिलाआें को देह व्यापार और हिंसा से जूझना पड़ता है । बच्चें की बिक्री होती है तथा उनका भी यौन शोषण होता है ।

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