हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर विशेष
विलुप्त् होती भाषाएं एवं बोलियां
कनग राजा
दुनिया को एक सा बना देने और वैश्विक गांव में तब्दील करने की जिद ने भाषाआें को संभवत: सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है । भाषा की विविधता ही संस्कृति की विविधता को जन्म देती है । हम बंगाल, ओडिशा, पंजाब या महाराष्ट्र की संस्कृति कहकर नहीं पुकारते वरन बंगाली, ओडिया, मराठी या पंजाबी संस्कृति ही कहते हैं । लेकिन सारी दुनिया को एकरूप कर देने की जिद ने हमारी विविधता को बहुत ठेस पहुंचाई है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के स्वतंत्र विशेषज्ञ के अनुसार विश्व के सभी अंचलों में कम बोली जाने वाली भाषाआें की संख्या में आ रही गिरावट चिंता का विषय है और यह गिरावट दिखा रही है कि इन भाषाआें को पहुंच रहे नुकसान की पूर्ति कमोवेश असंभव है । मानवाधिकार परिषद् के २२ वें सम्मेलन में विशेषज्ञ सुश्री रीटा इझाक का कहना है कि कई स्थानों पर यह वैश्वीकरण और सदृशीकरण एवं सांस्कृतिक ह्ास के कारण हुआ है । लेकिन कुछ मामलों में कम बोली जाने वाली भाषाआें के विलुप्त् होने का कारण है अल्पसंख्यक समुदायों के भाषागत अधिकारों की रक्षा में असफलता । लेकिन यह राष्ट्र की सांस्कृतिक एवं भाषागत विरासत एवं विविधता के लिए बड़ी हानि है । भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए उनकी भाषा एक केन्द्रीय तत्व है एवं उनकी पहचान की अभिव्यक्ति और अपने समूह की पहचान बनाए रखने की मूलभूत आवश्यकता भी है । दुर्भाग्यवश सभी अंचलो में ऐसे भाषाई अल्पसंख्यकों जो कि कम प्रचलित भाषाएं बोलते है और सार्वजनिक एवं निजी जीवन में उनका उपयोग करना चाहते हैं, के समक्ष अनेक चुनौतियां खड़ी हो गई है ।
विलुप्त् होती भाषाएं एवं बोलियां
कनग राजा
दुनिया को एक सा बना देने और वैश्विक गांव में तब्दील करने की जिद ने भाषाआें को संभवत: सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है । भाषा की विविधता ही संस्कृति की विविधता को जन्म देती है । हम बंगाल, ओडिशा, पंजाब या महाराष्ट्र की संस्कृति कहकर नहीं पुकारते वरन बंगाली, ओडिया, मराठी या पंजाबी संस्कृति ही कहते हैं । लेकिन सारी दुनिया को एकरूप कर देने की जिद ने हमारी विविधता को बहुत ठेस पहुंचाई है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के स्वतंत्र विशेषज्ञ के अनुसार विश्व के सभी अंचलों में कम बोली जाने वाली भाषाआें की संख्या में आ रही गिरावट चिंता का विषय है और यह गिरावट दिखा रही है कि इन भाषाआें को पहुंच रहे नुकसान की पूर्ति कमोवेश असंभव है । मानवाधिकार परिषद् के २२ वें सम्मेलन में विशेषज्ञ सुश्री रीटा इझाक का कहना है कि कई स्थानों पर यह वैश्वीकरण और सदृशीकरण एवं सांस्कृतिक ह्ास के कारण हुआ है । लेकिन कुछ मामलों में कम बोली जाने वाली भाषाआें के विलुप्त् होने का कारण है अल्पसंख्यक समुदायों के भाषागत अधिकारों की रक्षा में असफलता । लेकिन यह राष्ट्र की सांस्कृतिक एवं भाषागत विरासत एवं विविधता के लिए बड़ी हानि है । भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए उनकी भाषा एक केन्द्रीय तत्व है एवं उनकी पहचान की अभिव्यक्ति और अपने समूह की पहचान बनाए रखने की मूलभूत आवश्यकता भी है । दुर्भाग्यवश सभी अंचलो में ऐसे भाषाई अल्पसंख्यकों जो कि कम प्रचलित भाषाएं बोलते है और सार्वजनिक एवं निजी जीवन में उनका उपयोग करना चाहते हैं, के समक्ष अनेक चुनौतियां खड़ी हो गई है ।
उन्होनें जोर देते हुए कहा कि उपनिवेशवाद जैसे ऐतिहासिक कारणों का भी वैश्विक तौर पर भाषाआें पर भारी प्रभाव पड़ा है जिसके परिणामस्वरूप इनका सीमांतीकरण हुआ है और देशज एवं अल्प (कम) प्रचलित भाषाआें के प्रयोग में तेजी से गिरावट आई, क्योंकि अक्सर इसे पिछड़ेपन, औपनिवेशक आधिपत्य एवं राष्ट्रीय विकास में मंदी का प्रतीक माना जाने लगा था । वैश्वीकरण के युग में इंटरनेट और वेब आधारित जानकारी प्रणाली के विकास ने अल्प प्रचलित भाषाआेंएवं बोलियों की विविधता पर सीधा एवं निर्णायक प्रभाव डाला है, क्योंकि वैश्विक सूचना तंत्र एवं बाजार के लिए वैश्विक समझ का होना आवश्यक है ।
उनका यह भी मानना है कि भाषा बोलने वालों की संख्या कम होने के पीछे कई कारण हो सकते है, जैसे समुदाय के सदस्यों की संख्या में कमी, दूसरे स्थान पर बसना, सांस्कृतिक ह्मस, भूमि का छिनना एवं पर्यावरणीय कारण । वहीं कुछ समूहों के लिए स्थितियां स्वयं के नियंत्रण से बाहर हैं । ये है सदृशीकरण की नीतियां जो कि प्रभुत्वशाली राष्ट्रीय या अधिकारिक भाषा थोपती है तथा संघर्ष के प्रभाव और अपनी पारंपरिक भूमि से जबरिया विस्थापन । कुछ देश सार्वभौमिकता, राष्ट्रीय एकता एवं क्षेत्रीय प्रभुसत्ता को कारगर बनाने के लिए आक्रामक तरीके से एक राष्ट्र सिद्धांत को प्रोत्साहित करते हैं ।
यूनेस्को ने वैश्विक तौर पर बोली जाने वाली ६००० से अधिक ऐसी भाषाआें की पहचान की है जिन्हें कम बोली जाने वाली भाषाएं माना जा सकता है । अल्पसंख्यकों को जिस साझा समस्या का सामना करना पड़ रहा है वह है उनकी भाषा का प्रयोग राष्ट्रीय या स्थानीय प्रशासन में अथवा विद्यालयों में पढ़ाए जाने में नहीं हो पा रहा है । इसके परिणामस्वरूप इन भाषाई अल्पसंख्यकों को पूरी तरह से सार्वजनिक जीवन में भागीदारी करने एवं बच्चें की शुरूआत से ही शिक्षा प्राप्त् करने में हानि पहुंचती है । अधिकांश देशों में इनसे संबंधित आंकड़े मिलना तो कठिन है, लेकिन यह कहा जा सकता है कि भाषाई अल्पसंख्यकों के सामाजिक आर्थिक सूचकांक बहुसंख्यक के मुकाबले दयनीय है । शिक्षा की स्थिति बद्तर है एवं शिक्षा के परिणाम भी दयनीय है । परिणामस्वरूप इनकी आमदनी कम है और गरीबी के स्तर मेंअसमानता विद्यमान है ।
आधिकारिक भाषा में पारंगतता से अल्पसंख्यकों को बहुत लाभ मिलता है, जिससे कि वे समाज में पूरी तरह से घुल मिल जाते हैं एवं अपना योगदान भी कर पाते है और मिलने वाले अवसरों का आनंद भी उठा पाते है । बिना इस पारंगतता के अल्पसंख्यकों को सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन में भागीदारी करने में अनेक रूकवटों का सामना करना पड़ता है । उदाहरण के तौर पर भाषाई कुशलता की कमी के चलते उनकी श्रम बाजार मेंपहुंच या व्यापारिक उद्यम स्थापित करने में पहुंच कम हो जाती है । अल्प प्रचलित भाषा संबंधी अधिकार एवं भाषा अक्सर राज्यों एवं राज्यों के भीतर दोनों ही स्थानों पर अक्सर तनाव का कारण बन जाती है । भाषाई अधिकारों की वकालत करने वालों को कई बार अलगाववादी आंदोलन से जुड़ा हुआ या राज्य की एकता और सार्वभौमिकता के लिए एक खतरा मान लिया जाता है ।
किसी व्यक्ति के लिए निजी एवं सार्वजनिक जीवन मेंअपनी भाषा को बिना किसी भेदभाव के इस्तेमाल, सीखने एवं फैलाने को पूरी स्वतंत्रता है और इसे अंतर्राष्ट्रीय मानवधिकार कानूनो में नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञा पत्र, बच्चें के अधिकार सम्मेलन एवं सन् १९९२ के अल्पसंख्यक घोषणा पत्र के माध्यम से मान्यता भी मिली हुई है । विशेषज्ञ का मानना है कि यदि आचंलिक परिप्रेक्ष्य में देखे तो यूरोप में आचंलिक मापदण्डों के माध्यम से भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों का काफी विकास हुआ है । इस विषय में वे यूरोपीय आंचलिक या कम बोली जाने वाली भाषाई चार्टर और राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के संरक्षण हेतु यूरोपिय ढांचागत सम्मेलन परिषद् का उदाहरण देती है । यदि अन्य अंचलों के संदर्भ मेंबात करें तो आंचलिक मानक कमजोर है । अफ्रीका में २००० तरह की भाषाएं बोली जाती है, लेकिन कम प्रचलित भाषाआें की गुणवत्ता हेतु कोई आंचलिक केन्द्र नहीं है । एशिया और मध्यपूर्व के परिप्रेक्ष्य में उनका कहना है कि कुछ सकरात्मक प्रावधानों के बावजूद आंचलिक स्तर को मजबूत करने का प्रयास किए जाने आवश्यक है । कम बोली जाने वाली भाषाआें का पतन एक वैश्विक चुनौती है । यूनेस्को संकटग्रस्त भाषाएं कार्यक्रम ने चेतावनी दी है कि विश्व में प्रचलित ६००० भाषाआें में से आधी इस शताब्दी के अंत तक विलुप्त् हो जाएंगी । अभी भी ३००० भाषाआें को बोलने वाले १० हजार से कम बचे हैं । हालांकि कम्बोडिया में २० से अधिक भाषाएं बोली जाती है, लेकिन यूनेस्को ने चेतावनी दी है कि आने वाले दशकों में इनमें से १९विलुप्त् हो जाएंगी । ये कोई बिरला उदाहरण नहीं है । इस स्थिति को सुधारने हेतु वैश्विक शोध की आवश्यकता है । जिससे कि भाषाई अल्पसंख्यक भविष्य की पीढ़ियों के लिए अपनी भाषा, संस्कृति और परंपराएं बचाकर रख सके ।
इन भाषाआेंको अपने ही देश में कम संरक्षण मिलना भी चिंता का विषय है । अतएव आवश्यक है कि इन भाषाआें-बोलियों को कानूनी मान्यता मिले तथा सांस्थानिक रूप से इनके संरक्षण का प्रयत्न हो । ऐसी न होने की स्थिति में ये अल्प प्रचलित भाषाएं भाषा के इस्तेमाल, फैलाव एवं शिक्षा के नजरिए से सामान्यतया निजी क्षेत्र में ही रहती है । कई बार ऐसा भी होता है कि जहां भाषाआें को आधिकारिक मान्यता भी मिली होती है, कानूनी प्रावधान भी विद्यमान होते हैं, लेकिन इसके बावजूद भी इन्हें व्यावहारिक तौर पर प्रयोग में नहीं लिया जाता । शिक्षा के क्षेत्र में इन अल्प प्रचलित भाषाआें का शामिल न होना विशेष रूप से संवेदनशील मसला है और यह चिंता का विषय भी है ।
भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा में मीडिया संचालित करने का अधिकार भी है, लेकिन अनेक देशों में इन पर रोकटोक की बात सामने आई है । इसी के साथ इंटरनेट पर भी तुलनात्मक रूप से इन भाषाआें में कम ही जानकारी उपलब्ध है । जो लोग राष्ट्रीय भाषा में पारंगत नहीं है । या जो ग्रामीण व सुदूर बस्तियों में रह रहे हैं या गरीब है । ये माध्यम उनकी पहुंच से बाहर है । इस वजह से पहले से ही विद्यमान जानकारी की कमी बढ़ती जा रही है ।
उनका यह भी मानना है कि भाषा बोलने वालों की संख्या कम होने के पीछे कई कारण हो सकते है, जैसे समुदाय के सदस्यों की संख्या में कमी, दूसरे स्थान पर बसना, सांस्कृतिक ह्मस, भूमि का छिनना एवं पर्यावरणीय कारण । वहीं कुछ समूहों के लिए स्थितियां स्वयं के नियंत्रण से बाहर हैं । ये है सदृशीकरण की नीतियां जो कि प्रभुत्वशाली राष्ट्रीय या अधिकारिक भाषा थोपती है तथा संघर्ष के प्रभाव और अपनी पारंपरिक भूमि से जबरिया विस्थापन । कुछ देश सार्वभौमिकता, राष्ट्रीय एकता एवं क्षेत्रीय प्रभुसत्ता को कारगर बनाने के लिए आक्रामक तरीके से एक राष्ट्र सिद्धांत को प्रोत्साहित करते हैं ।
यूनेस्को ने वैश्विक तौर पर बोली जाने वाली ६००० से अधिक ऐसी भाषाआें की पहचान की है जिन्हें कम बोली जाने वाली भाषाएं माना जा सकता है । अल्पसंख्यकों को जिस साझा समस्या का सामना करना पड़ रहा है वह है उनकी भाषा का प्रयोग राष्ट्रीय या स्थानीय प्रशासन में अथवा विद्यालयों में पढ़ाए जाने में नहीं हो पा रहा है । इसके परिणामस्वरूप इन भाषाई अल्पसंख्यकों को पूरी तरह से सार्वजनिक जीवन में भागीदारी करने एवं बच्चें की शुरूआत से ही शिक्षा प्राप्त् करने में हानि पहुंचती है । अधिकांश देशों में इनसे संबंधित आंकड़े मिलना तो कठिन है, लेकिन यह कहा जा सकता है कि भाषाई अल्पसंख्यकों के सामाजिक आर्थिक सूचकांक बहुसंख्यक के मुकाबले दयनीय है । शिक्षा की स्थिति बद्तर है एवं शिक्षा के परिणाम भी दयनीय है । परिणामस्वरूप इनकी आमदनी कम है और गरीबी के स्तर मेंअसमानता विद्यमान है ।
आधिकारिक भाषा में पारंगतता से अल्पसंख्यकों को बहुत लाभ मिलता है, जिससे कि वे समाज में पूरी तरह से घुल मिल जाते हैं एवं अपना योगदान भी कर पाते है और मिलने वाले अवसरों का आनंद भी उठा पाते है । बिना इस पारंगतता के अल्पसंख्यकों को सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन में भागीदारी करने में अनेक रूकवटों का सामना करना पड़ता है । उदाहरण के तौर पर भाषाई कुशलता की कमी के चलते उनकी श्रम बाजार मेंपहुंच या व्यापारिक उद्यम स्थापित करने में पहुंच कम हो जाती है । अल्प प्रचलित भाषा संबंधी अधिकार एवं भाषा अक्सर राज्यों एवं राज्यों के भीतर दोनों ही स्थानों पर अक्सर तनाव का कारण बन जाती है । भाषाई अधिकारों की वकालत करने वालों को कई बार अलगाववादी आंदोलन से जुड़ा हुआ या राज्य की एकता और सार्वभौमिकता के लिए एक खतरा मान लिया जाता है ।
किसी व्यक्ति के लिए निजी एवं सार्वजनिक जीवन मेंअपनी भाषा को बिना किसी भेदभाव के इस्तेमाल, सीखने एवं फैलाने को पूरी स्वतंत्रता है और इसे अंतर्राष्ट्रीय मानवधिकार कानूनो में नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञा पत्र, बच्चें के अधिकार सम्मेलन एवं सन् १९९२ के अल्पसंख्यक घोषणा पत्र के माध्यम से मान्यता भी मिली हुई है । विशेषज्ञ का मानना है कि यदि आचंलिक परिप्रेक्ष्य में देखे तो यूरोप में आचंलिक मापदण्डों के माध्यम से भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों का काफी विकास हुआ है । इस विषय में वे यूरोपीय आंचलिक या कम बोली जाने वाली भाषाई चार्टर और राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के संरक्षण हेतु यूरोपिय ढांचागत सम्मेलन परिषद् का उदाहरण देती है । यदि अन्य अंचलों के संदर्भ मेंबात करें तो आंचलिक मानक कमजोर है । अफ्रीका में २००० तरह की भाषाएं बोली जाती है, लेकिन कम प्रचलित भाषाआें की गुणवत्ता हेतु कोई आंचलिक केन्द्र नहीं है । एशिया और मध्यपूर्व के परिप्रेक्ष्य में उनका कहना है कि कुछ सकरात्मक प्रावधानों के बावजूद आंचलिक स्तर को मजबूत करने का प्रयास किए जाने आवश्यक है । कम बोली जाने वाली भाषाआें का पतन एक वैश्विक चुनौती है । यूनेस्को संकटग्रस्त भाषाएं कार्यक्रम ने चेतावनी दी है कि विश्व में प्रचलित ६००० भाषाआें में से आधी इस शताब्दी के अंत तक विलुप्त् हो जाएंगी । अभी भी ३००० भाषाआें को बोलने वाले १० हजार से कम बचे हैं । हालांकि कम्बोडिया में २० से अधिक भाषाएं बोली जाती है, लेकिन यूनेस्को ने चेतावनी दी है कि आने वाले दशकों में इनमें से १९विलुप्त् हो जाएंगी । ये कोई बिरला उदाहरण नहीं है । इस स्थिति को सुधारने हेतु वैश्विक शोध की आवश्यकता है । जिससे कि भाषाई अल्पसंख्यक भविष्य की पीढ़ियों के लिए अपनी भाषा, संस्कृति और परंपराएं बचाकर रख सके ।
इन भाषाआेंको अपने ही देश में कम संरक्षण मिलना भी चिंता का विषय है । अतएव आवश्यक है कि इन भाषाआें-बोलियों को कानूनी मान्यता मिले तथा सांस्थानिक रूप से इनके संरक्षण का प्रयत्न हो । ऐसी न होने की स्थिति में ये अल्प प्रचलित भाषाएं भाषा के इस्तेमाल, फैलाव एवं शिक्षा के नजरिए से सामान्यतया निजी क्षेत्र में ही रहती है । कई बार ऐसा भी होता है कि जहां भाषाआें को आधिकारिक मान्यता भी मिली होती है, कानूनी प्रावधान भी विद्यमान होते हैं, लेकिन इसके बावजूद भी इन्हें व्यावहारिक तौर पर प्रयोग में नहीं लिया जाता । शिक्षा के क्षेत्र में इन अल्प प्रचलित भाषाआें का शामिल न होना विशेष रूप से संवेदनशील मसला है और यह चिंता का विषय भी है ।
भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा में मीडिया संचालित करने का अधिकार भी है, लेकिन अनेक देशों में इन पर रोकटोक की बात सामने आई है । इसी के साथ इंटरनेट पर भी तुलनात्मक रूप से इन भाषाआें में कम ही जानकारी उपलब्ध है । जो लोग राष्ट्रीय भाषा में पारंगत नहीं है । या जो ग्रामीण व सुदूर बस्तियों में रह रहे हैं या गरीब है । ये माध्यम उनकी पहुंच से बाहर है । इस वजह से पहले से ही विद्यमान जानकारी की कमी बढ़ती जा रही है ।
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