बुधवार, 12 जून 2013

ज्ञान विज्ञान
ट्राफिक के अनुकूल ढल रहे हैंपक्षी

    करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक सड़क किनारे रहने वाले पक्षियों में कुछ अनुकूलन हो रहे हैं जो उन्हें ट्राफिक से निपटने में मददगार साबित हो रहे है ।
    उपरोक्त अध्ययन मुंडेरों पर रहने वाले पक्षी अबाबील (पेट्रोचेलिडॉन पायरोनोटा) पर किया गया है । ये पक्षी अपने मिट्टी के शंकु आकार के घोंसले सड़क किनारे इमारतों की मुंडेरो पर बनाते हैं । वैसे ये आजकल अंडरब्रिजों और फ्लाईओव्हर के नीचे  भी रहने लगे हैं । ये १२००० तक की बस्तियों के रूप में रहते हैं । मुडेंरो पर घोंसला बनाने और रहने वाले अबाबील की एक विशेषता यह है कि ये जाड़े के दिनों में दक्षिण अमरीका चले जाते हैं और प्रजनन उत्तरी अमरीका में करते हैं । 


     ओक्लाहामा विश्वविद्यालय में जीव वैज्ञानिक चार्ल्स ब्राउन और नेब्रास्का लिंकन विश्वविद्यालय की मैरी बॉमबर्गर ब्राउन ने अपने अध्ययन के दौरान पाया कि कारों से टकराकर मरने वाले अबाबील की संख्या में पिछले तीन दशकों में कमी आई है । ब्राउन और बॉमबर्गर ब्राउन का ख्याल है कि यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि अबाबील में सड़क-अनुकूलनहो रहा है ।
    मजेदार बात यह है कि इस अध्ययन के लिए आंकड़े जुटाना आसान नहीं रहा । ब्राउन एक टेक्सीड-र्मिस्ट भी हैं । टेक्सीडर्मिस्ट मृत जानवरों की खाल में मसाला भरकर उन्हें संरक्षित रखने का काम करते हैं । वे पिछले तीन सालों से मृत अबाबील के ऐसे शव जमा करते रहे हैं । इन तीस सालों में उन्होनें १०४ ऐसे अबावील के शव एकत्रित किए जो वाहनों से टकराकर मरे थे जबकि १३४ ऐसे शव संग्रहित किए गए जो अपने घोंसलों में अन्य कारणों से मारे गए थे । ये सारे शव व्यस्क पक्षियों के थे । उन्होनें देखा कि इन तीस सालों में वाहनों से टकराकर मरने वाले अबाबील की संख्या में कमी आई है जब कि अबाबील की कुल आबादी बढ़ी है ।
    अब उन्होेंने वाहनों से टकराकर मरने वाले और सामान्य रूप से मरने वाले अबाबीलों के पंखोंकी लंबाई की तुलना की । यह देखा गया कि इन वर्षो में वाहन से टकराकर मरने वाले अबाबील के पंखों की लंबाई तो बड़ी है मगर उन अबाबील के पंख छोटे हुए है जो घोसलों में मरे थे ।
    शोधकर्ताआें का मत है कि छोटे पंखों से पक्षियों को अपनी उड़ान का बेहतर नियंत्रण करने में मदद मिलती है । खासतौर से अचानक मुड़ना ज्यादा फुर्ती से हो सकता है, जो तेज गति के वाहनों से बचने के लिए जरूरी है ।
    डेनमार्क के एक अन्य टेक्सीडर्मिस्ट ने भी देखा है कि डेनमार्क मेंभी वाहनों से टकराकर मरने वाले पक्षियों की संख्या में कमी आई है । अब वे भी अपने पास संग्रहित पक्षी शवों के पंखोंका तुलनात्मक अध्ययन करने की योजना बना रहे हैं ।
    वैसे उक्त शोधकर्ताआें ने स्पष्ट किया है कि वे यह नहीं कह रहे हैं कि अबाबील में अनुकूलन का यही एक मात्र आधार है । उनका कहना है कि पंखों की साइज में परिवर्ततन से पता चलता है कि अनुकूलन हो रहा है और काफी तेजी से हो रहा है ।
मकड़ियों के जालों से प्रजाति की पहचान

    आपने फिंगरप्रिंट से व्यक्ति की पहचान की बात तो सुनी होगी । अब कुछ शोधकर्ता कह रहे हैं कि मकड़ी के जाले का अध्ययन करके वे यह बता सकते हैं कि यह किस प्रजाति द्वारा बनाया गया है ।
    स्पैन के ला पामास डी ग्रान केनेरिया विश्वविद्यालय के कार्लोस ट्रेविएसो और उनके साथियों ने एक कॉबबेब (मकड़जाल) पहचान प्रणाली विकसित की है और यह ९९.६ प्रतिशत मामलों में सही साबित हुई  है । ट्रेविएसो का सोचना है कि कोई भी मकड़ी जिस ढंग से अपना जाला बुनती है, वह प्रजाति का खास गुण होता है । हरेक प्रजाति की जिनेटिक बनावट और शरीर रचना किसी भी अन्य प्रजाति से अलग होती है । इसलिए उनके जाले भी अलग-अलग होते हैं । यह लगभग इंसानों के फिंगरप्रिंट जैसा है । 
     इसे परखने के लिए ट्रेविएसो  ने कोस्टरिका स्थित स्मिथसोनियन ट्रॉपिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के विलियम एबरहार्ड की मदद ली । एबरहार्ड के पास पनाामा और कोस्टा रिका की कई मकड़ियों के जालों की तस्वीरें हैं । इन तस्वीरों पर पैटर्न की कई तकनीकें आजमाई गई । अंतत: ट्रेविएसो और उनके साथी उस  तरीके तक पहुंच गए जिससे वे यह पता लगा सकते थे कि कौन सी प्रजाति किस तरह का जाल बुनती  है ।
    उन्होंने पाया कि यदि वे जाले के केन्द्र से शुरू करेंऔर फिर पूरे चित्र का विश्लेषण करें तो पहचान की विश्वसनीयता बहुत बढ़ जाती    है । गौरतलब है कि जाले का केन्द्रीय भाग अत्यन्त जटिल होता है और इसमें पहचान के कई लक्षण पाए जाते हैं । उन्होनें इस तकनीक का उपयोग मकड़ी की तीन प्रजातियों पर करके देखा है - एनापिसोना साइमोनी, मिक्राथेना ड्यूओडेसिम-स्पाइनोसा और जोसिस जेनिक्- यूलेटा ।    
    दरअसल ये शोधकर्ता मकड़ियों की विभिन्न प्रजातियों की संख्याआें का आंकलन करना चाहते थे । कारण यह है कि मकड़ियां अधिकांश इकोसि-स्टम्स में पाई जाती है और ये किसी भी इकोसिस्टम में जैव विविधता की अच्छी द्योतक हो सकती है । यदि उनकी विधि से गिनती को स्वचालित ढंग से किया जा सके तो काम बहुत आसान हो जाएगा । टीम ऐसी पहचान प्रणाली कुछ अन्य प्राणियों के लिए भी विकसित करने की कोशिश कर रही है ।

आंतोंके बैक्टीरिया बदलकर मोटापे का इलाज

    अत्यधिक मोटापे के लिए आजकल सर्जरी का सहारा लिया जाता है । इस सर्जरी में व्यक्ति के पेट या आंतोंको काट-छांटकर छोटा कर दिया जाता । परिणाम यह होता है कि व्यक्ति कम भोजन का सेवन करता है या उसके शरीर मेंकम भोजन का अवशोषण हो पाता है । तो मोटापा कम हो जाता है । वजन में ६५-७० प्रतिशत तक की कमी इस तकनीक से हासिल की गई है । इसके अलावा इससे मधुमेह पर नियंत्रण में भी मदद मिलती है । मगर जाहिर है कि इस तरह की शल्य क्रिया के खतरे भी कम नहीं हैं । 


     अब बोस्टन के एक अस्पताल में कार्य-रत ली केप्लान और उनके साथियोंने इस सर्जरी का एक विकल्प ढूंढ निकाला है जिसमें सर्जरी की जरूरत ही नहीं पड़ेगी । इस टीम ने कुछ चूहों के पेट की सर्जरी की । फिर इन चूहोंकी निचली आंत के सूक्ष्मजीव स्वस्थ चूहों को खिला  दिए । देखा गया कि सर्जरीशुदा चूहों से प्राप्त् सूक्ष्मजीव मिश्रण का सेवन करने वाले चूहों के वजन में दो सप्तह में ५ प्रतिशत की कमी आई । तुलना के लिए कुछ अन्य चूहोंको सूक्ष्मजीव की खिचड़ी नहीं खिलाई गई थी और उन्हें भी उसी तरह के भोजन पर रखा गया था । इनके वजन मेंकोई कमी नहीं आई ।
    यह काफी मजेदार बात है । जब आप पेट को छोटा कर देते हैं तो स्वाभाविक है कि व्यक्ति कम भोजन खाता है और उसका वजन कम हो जाता है । मगर सिर्फ सूक्ष्मजीवों के ट्रांसफर से भी वही प्रभाव क्यों हो रहा है ? शोधकर्ताआें को भी शायद इस सवाल का जवाब पता नहीं है मगर उनका विचार है कि शायद सर्जरी के बाद आंतों के बैक्टीरिया में कुछ ऐसे परिवर्तन होते हैंकि पचे हुए पदार्थो का अवशोषण कम होने लगता है । यह भी हो सकता है कि नई परिस्थिति में ये बैक्टीरिया पाचन क्रियाको ही बदलने का काम करते हैं ।
    शोधकर्ता यह समझना चाहते हैं कि ये बैक्टीरिया जो भी कर रहे हैं, क्या उसे हम किसी और तरीके से दोहरा सकते हैं । वैसे उपचार के रूप मेंबैक्टीरिया की अदला-बदली कोई नया विचार नहीं है ।

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