बुधवार, 12 जून 2013

सामयिक
उत्तराखंड को बचाने की जद्दोेजहद
सुरेश भाई

    उत्तराखंड को भारत का वाटर टैंक कहा जाता है और अब वहां ५०० से अधिक बांधों के निर्माण की योजना बन रही है । इनमें से कुछ पर काम शुरू भी हो गया है । भरपूर पानी वाले क्षेत्र में लोग अब पीने के पानी को तरस रहे हैं ।
    उत्तराखंड राज्य समेत सभी हिमालयी राज्यों में सुरंग आधारित जलविद्युत परियोजनाआें के कारण नदियों का प्राकृतिक स्वरूप बिगड़  रहा है । ढालदार पहाड़ी पर बसे हुए गांवों के नीचे धरती को खोदकर बांधों की सुरंग बनाई जा रही है । इन बांधों का निर्माण करने के लिए निजी कंपनियोंके अलावा एनटीपीसी और एनएचपीसी जैसी कमाऊ कंपनियों को बुलाया जा रहा है ।
    राज्य सरकार इन्हीं के सहारे ऊर्जा प्रदेश का सपना भी देख रही है और पारंपरिक जल संस्कृतिऔर पारंपरिक संरक्षण जैसी बातों को बिल्कुल भुला बैठी है । निजी क्षेत्र के पीछे वैश्विक ताकतों का दबाव है । दूसरी ओर इसे विकास का मुख्य आधार मानकर स्थानीय लोगों की आजीविका की मांग को कुचला जा रहा है । लोगों की दुविधा यह भी है कि टिहरी जैसा विशालकाय बांध तो नहीं बन रहा है, जिसके कारण उन्हें विस्थापन की मार झेलनी पड़ सकती है । 
  

    सरकार का मानना है कि इस तरह के बांधोंसे विस्थापन नहीं होगा, किन्तु टनल के आउटलेट और इनलेट पर बसे सैकड़ों गांवों की सुरक्षा कैसी होगी ? सन् १९९१ के भूकंप के समय उतरकाशी में मनेरी भाली जलविद्युत परियोजना के प्रथम चरण के टनल के ऊपर के गांव तथा उसकी कृषि भूमि भूकम्प से जमींदोज हुई है, और नमी लगभग खत्म हुई है । इसके अलावा जहां पर सुरंग बांध बन रहे है वहां के गांव के धारे व जलस्त्रोत सूख रहे हैं । इस बात पर भी पर्यावरण प्रभाव आंकलन की रिपोर्ट कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है ।
    राज्य सरकार सोचती है कि पंचायतें, गांव आदि की क्षमताएं कम करके कंपनियां विद्युत परियोजनाएं बनाकर राज्य का विकास कर देगी, जबकि गांव की पुश्तैनी व्यवस्था का अक्षम समझना बड़ी भूल है । सत्ता और विपक्ष से जुड़े स्थानीय जनप्रतिनिधियों को यही पाठ पढ़ाया जा रहा है, कि स्थानीय स्तर पर बनने वाली लोक लुभावनी परियोजनाआें के  क्रियान्वयन मेंसक्रिय सहयोग देकर ही वे सत्ता सुख प्राप्त् कर सकते     हैं । अत: यह समझने योग्य बात है कि जिन लोगों ने टिहरी बांध निर्माण कंपनी की पैरवी की है वे ही बाद में टिहरी बांध झील बनने के विरोधी कैसे हो गए ? यह एक तरह से आम जनता के हितों के साथ खिलवाड़ ही तो है । पाला मनेरी, लोहारी नागपाला, घनसाली में फलेण्डा लघु जल विघुत योजना, विष्णु प्रयाग, तपोवन, बुढ़ाकेदार चानी, श्रीनगर आदि कई जल विद्युत परियोजनाआें के निर्माण करवाने के लिए, लोगों को पैसे और रोजगार का झूठा आश्वासन देकर समझौता किया गया है ।
    इन परियोजनाआें के निर्माण के दौरान लोगों के बीच में एक ऐसी हलचल पैदा हो जाती है, जिसका एक तरफा लाभ केवल निर्माण एजेंसी को ही मिलता है । परियोजना के पर्यावरण प्रभाव की जानकारी दबाव के कारण ही बाद मेंसमझ में आने लगती है । इसी तरह श्रीनगर हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट (३३० मेगावाट) की पर्यावरणीय रिपोर्ट की खामियां ८० प्रतिशत निर्माण के बाद याद आई ।
    उत्तराखण्ड हिमालय गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों और उनकी सैकड़ों सदानीरा जलधाराआें के कारण पूरे विश्व में जलभण्डार के रूप में प्रसिद्ध है । इन पवित्र पावनी नदियों के तटों एवं उन्हें पोषित करने वाले ऊंचे पर्वतों पर ऋषि-मुनियों ने अध्ययन एवं तपस्या की तथा सामाजिक व्यवस्था के संचालन के नियम-विधान बनाए । लेकिन तथाकथित विकास और समृद्धि के झूठे दम्भ से ग्रस्त सरकारें गंगा तथा उसकी धाराआें के प्राकृतिक सनातन प्रवाह को बांधों से बाधित कर रही  है । इनसे इन नदियों के अस्तित्व खतरे में है ।
    इसके कारण राज्य की वर्षा पोषित एवं हिमपोषित तमाम नदियों पर संकट खड़ा हो गया है । जहां वर्षा पोषित कोसी, रामगंगा व जलकर आदि नदियों का पानी निरन्तर सुख रहा है वहीं भागीरथी, यमुना, अलकनंदा, भिलगंना, सरयू, महाकाली, मन्दकिनी आदि पवित्र हिमपोषित नदियों पर सुरंग बांधों का खतरा है । इन नदियों पर बनने वाले ५५८ बांधों से सरकार उत्तराखंड को ऊर्जा प्रदेश बनाना चाहती है, लेकिन विशिष्ठ भू-भाग की पहचान की दृष्टि से जैसे बाढ़, भूस्खलन, भूकंप के लिए संवेदनशील हिमालय को नंजरअंदाज नहीं किया जा सकता    है ।
    इसको ध्यान में रखकर नदियों के उद्गम से लेकर आगे लगभग १५० किलोमीटर तक श्रृंखलाबद्ध रूप से दर्जनों सुरंग बांधों का निर्माण खतरनाक  संकेत दे रहा है । लोगों ने प्रारंभ से ही सुरंग बांधों का विरोध किया है । सुरंगों के निर्माण में प्रयोग किये गये भारी विस्फोटों से लोगों के घरों में दरारें आयी हैं और पेयजल स्त्रोत सूखे हैं । सिंचाई नहरों तथा घराटों का पानी बंद हुआ है । चारगाह, जंगल और गांव तक पहुंचने वाले रास्ते उजाड़ दिए गए    है । इसके साथ ही लघु एवं सीमान्त किसानों की खेती बाड़ी प्रभावित हुई है और वे भूमिहीन हो गये हैं ।
    नदी बचाओ अभियान ने सन् २००८ को इसलिए नदी बचाओ वर्ष घोषित किया था, कि राज्य सरकार प्रभावितों के साथ मिलकर समाधान करेगी, लेकिन दुख की बात यह है कि प्रदेश के निवासियोंकी अनसुनी की गई है । केन्द्रीय पूर्व वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने इसकी गंभीरता को समझा था, जिसके परिणामस्वरूप सुरंग बांधों से नदी व नदी के आर-पार रहने वाले लोगोंका पर्यावरण एवं आजीविका बचाने के उद्देश्य से ही तीन परियोजनाएं रोकी गई थी । यदि नदी बचाओ अभियान के साथियों की बात सन् २००६ में ही सुनी जाती तो बंद पड़ी परियोजनाआें पर इतना खर्च भी नहीं होता । उत्तराखण्ड में बड़ी मात्रा में सिंचाई नहरें, घराट और कुछ शेष बची जलराशि अवश्य है, लेकिन पानी की उपलब्धता के आधार पर छोटी टरबाइनें लगाकर इनसे हजारों मेगावाट बिजली पैदा करने की क्षमता है । इसको ग्राम पंचायतें एवं जिला पंचायतें बना सकती है । इससे उत्तराखंड की बेरोजगारी समाप्त् होगी । इसके लिए सरकार को जलनीति बनानी चाहिए । यहां कई संगठनों ने राज्य सरकार को लोक जलनीति सौंपी है ।
    वैसे सन् २००७ की पुनर्वास नीति में भी लिखा है कि ऐसी परियोजनायें बनें जिसमें विस्थापन न होता हो । जल नीति में जलधाराआें, जल सरंचनाआें, नदियों, गाड़-गदेरों में जल राशि बढ़ाने, ग्लेशियरों को बचाने तथा प्रत्येक जीवन को जल नि:शुल्क मिलना चाहिए । उत्तराखण्ड के भारत का वाटर टैंक होने पर भी यहां लोगों को पीने का पानी नसीब नहीं होता  है । पानी और जंगल का जिस तरह रिश्ता है, उसे बरकरार रखना भी जलनीति का मुख्य बिन्दु होना  चाहिए । प्रत्येक सिंचाई नहर से एक घराट चलाकर अथवा टरबाईन चलाकर बिजली बनाने का प्रयोग हमारे प्रदेश में मौजूद है ।
    वर्षा जल संग्रहण के पारम्परिक तरीकों से सरकार को सीखना होगा । प्रदेश में वर्षा जल का २ प्रतिशत भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है । जल संरचनाआें चाल, खाल पर मनरेगा में जिस तरह से सीमेंट पोता जा रहा है, उससे भी उत्तराखण्ड के जलस्त्रोत सुख जायेंगे । जलनीति में इसके लिए पारम्परिक चालों के बढ़ावा देने पर जोर देना चाहिए ।

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