सोमवार, 12 अगस्त 2013

विशेष लेख
जैव समुदाय और मानव समाज
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

    सृष्टि में सब कुछ योजनाबद्ध है, नियति का विधान एवं प्रकृति का प्रतिदान । छोटे अथवा बड़े किसी भी परितंत्र में विशेष काल में एवं स्थान में विशिष्ट परिस्थितियों में जीवों का प्राकृतिक समूहन समुदाय कहलाता     है । समुदाय में सभी जीव परस्पर सहनशील एवं अन्योन्याश्रित (इन्टरडिपेडेंट) रहते है तथा निरन्तर ऊर्जा का स्थाईकरण एवं उपयोग करते हैं । 
     समस्त सामुदायिक प्रजातियों में मनुष्य स्वयं का ही पालन नहीं करता वरन् अन्य जैव समुदायों को जीवनाधारी संपोषित तंत्र प्रच्छन्नता से प्रदान करना भी उसका धर्म-कर्म एवं कर्तव्य है । किन्तु मानव स्वार्थवश अपने धर्म-कर्म, कर्तव्य से च्युत हो गया है । इसी आत्म विस्मृति से मनुष्य को बाहर निकलना होगा, ताकि समष्टि एवं सृष्टि में समाकलन (इंटीग्रेशन) बना रह सके, और सबकुछ प्रतिपालित (सस्टेनेवल) रहे ।
    किसी भी परितंत्र में विविध समुदाय उत्पत्ति के पश्चात् वृद्धि एवं विकास करते हुए चरमावस्था में पहुंचते हैं । ऊर्जा प्रवाह एवं खनिज पदार्थ समुदायों का यह सहअस्तित्व दीर्घकाल तक रहता है । मूलभूत आवश्यक आश्रयता का भाव है  और यही सहजीवन है । किन्तु मानव ने सहजीवन को तोड़ा है ।
    आदिम युग से आज तक मानव सभ्यता के चार चरण बतलाये गए हैं । प्रथम आखेट तथा भोजन ग्रहण, द्वितीय पशुपालन एवं पशु चारण, तृतीय पौधारोपण एवं चतुर्थ औद्योगिक विस्तार एवं तकनीकी विकास । हमारे विचार से अब हम अपनी सीमाआें का अतिक्रमण  करके आनुवांशिक अनुसंधान एवं ईश्वरीय विधान में अनुचित हस्तक्षेप के पंचम चरण में प्रवेश कर गए हैं । इससे पारिस्थितिकी को और भी अधिक खतरा हो गया है । चंचल मानव पृथ्वी को अस्थिर करने लगा । मानव समाज आधुनिक तो हुआ, किन्तु पर्यावरण क्षरित होता गया है ।
    विकास क्रम में हमें अपने जीवन स्तर को सुधारने के लिए आर्थिक उन्नति की जरूरत होती हैं । पर्यावरण संरक्षित किए बिना आर्थिक आधार भी टिकाऊ नहीं रह सकता । किसी भी राष्ट्र की आर्थिक उन्नति उस राष्ट्र के उद्योग विस्तार पर निर्भर करती है । अत: आर्थिक विकास किया भी जाना चाहिए किन्तु यह विकास न्याय संगत हों । कहीं विकास एवं विनाश के अंतर को हम भूल न जायें । औद्योगिक इकाइयों से उत्पादन के साथ-साथ बहुत से अर्वाहनीय अपशिष्ट पदार्थ भी बनते हैं जिनका दीर्घकालिक संचयी (क्यूमुलेटिव) पार्श्वप्रभाव बहुत भयानक होते हैं, जो प्राकृतिक पर्यावरण का मूल रूप ही बदल डालते है ।
    यह दुष्प्रभाव स्थिर नहीं रहते वरन अन्य कारकों को भी प्रभावित करते हुए श्रंखलाबद्ध हो जाते हैं और पर्यावरण में प्रतिकूलता लाते हैं । अनेकानेक सामाजिक एवं आर्थिक समस्याआें कारण भी बनते हैं । कहने यह भाव यह है कि परिवर्तन प्रक्रिया में हमारे कदम कौटुम्बिक भावना पर आधारित समाज रचना की दिशा में आगे बढ़ने चाहिए । आवश्यक वस्तुआें का वितरण एवं विनियोग सुचारू रहना चाहिए ।
    संसार में जितने भी रूपों में जीवन रचना है उसमें मनुष्य श्रेष्ठतम  हैं । ऐसा नहीं कि दैहिक सुंदरता या भावप्रवणता के कारण मनुष्य को योनिश्रेष्ठ कहा गया वरन् मनुष्य के अन्दर तार्किकता एवं उद्देश्यपरक कर्मशीलता ही उसे विशिष्ट बनाती है । मानुषी सहयोग ही जीवन को अर्थवत्ता प्रदान करता है । अत: मनुष्य को अपनी समाज रचना मेंदुनिया एवं जिन्दगी को समझने की कोशिश शामिल रखनी चाहिए । मनुष्य की आजादी दुनिया की खुशहाली के लिए है । यह बात शिद्दत से समझनी चाहिए । तभी हम दे सकते हैं सुखी समृद्ध समाज ।
    पृथ्वी पर मनुष्य ही ऐसा जीवंत प्राणी है जो सम्पूर्ण जीवसमूह की भलाई का ध्यान रखने योग्य है । इस प्रकार जीव उपकार के साथ जन स्वास्थ्य एवं समाज की भलाई का कार्य मनुष्य करता है । घर,परिवार, समाज और देश के कार्योंा में सहयोग करता है ।  पर्यावरणविदों एवं समाजशास्त्रियों ने मानव जीव समूह के सम्बन्ध में अनेक महत्वपूर्ण अवधारणाएँ नियोजित की  है । मानव परिस्थितिकी एवं मानवेत्तर जीव समूह संरचना की समस्या पर ध्यान केन्द्रित किया गया है । शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण के साथ-साथ समाज-अर्थ प्रतिष्ठा (सोशियो इकॉनोमिक स्टेटस) ने परिस्थितियों को बदला है ।
    जीव समूहों के घनत्व एवं भोजन उत्पादन में भी गहरा सम्बनध   है । बढ़ती हुई आबादी एक बड़ी समस्या है । जो कृषि भूमि हमारे पास उपलब्ध है ।  उस पर जनसंख्या का अतिशय दबाव है । भूख तथा अंसतुलित आहार के कारण जीव संख्या परिमितता तक पहुँच चुकी है । हम जल, जंगल, जमीन, खनिज-सम्पदा और मृदा किसी को भी संरक्षित एवं सुरक्षित नहीं कर पा रहे है । जीव संख्या स्थाई रखने के जो उपाय अपनाये जा रहे हैं वह व्यवहारिक रूप से नाकाफी सिद्ध हुए हैं ।
    अब मानव को ही अपने उत्तरदायित्वों को पूर्ण शुचिता एवं ईमानदारी के साथ निभाना होगा । सबसे महत्तवपूर्ण है प्रकृति को माँ के रूप में पूजना । धरती मातृ वत्सला है । तृण खाकर अमृत तूल्य दूध देने वाली गऊ माँ है तथा सरस नाड़ियाँ सरीखी हमारी नदियाँ हमारी माँ है । जब तक हम श्रेयसकारी भाव अपनाते हैं तो सजीव ही नहीं निर्जीव पदार्थोंा के प्रति भी समादार का भाव रखते हैं । यह हम पर निर्भर करता है कि हम जैव समुदायों के प्रति कितने अंतरंग रहते हैं । प्रत्येक जीव का सहिष्णुता स्तर अलग-अलग होता हैं । हमारे किसी भी कार्य से कोई  से कोई जीव आहत नहीं होना चाहिए । जीवों के साथ सहअस्तित्व का भाव जरूरी  है ।
    यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक जीव अपने अपने निकेत पर लम्बे समय तक संघर्ष एवं सामजस्य के बाद स्थापित होता है । दो समान जैव जातियां समान निकेत पर समानता के साथ निवास नहीं कर सकती क्योंकि संघर्ष पनपते है । प्रत्येक प्रजाति परस्पर पूरक होती है । किन्तु प्रभाविता के कारण सबल सदैव उत्तरजीवी रहता है । निकेत को परिभाषित करते समय हम कहते है अनेक विशिष्ट आयाम वाला क्षेत्र जिसकी विशिष्ट भौगोलिक जलवायुगत एवं जैविक दशांए होती है । जिसमें समन्वयकारी प्रजातियाँ सम्मिलित रूप से निवास करती है जिससे परितंत्र प्रगतिशील रहता है ।
    जैसा कि स्पष्ट है जैव समुदाय का निर्माण छोटे-बड़े अनेक जीव-जन्तुआें के समूहन से होता है जो निरन्तर पारस्परिक अनुक्रिया और तालमेल से जीवन यापन करते है । बाह्य रूप से जैस समुदाय का अस्तित्व भौतिक एवं रासायनिक कारकों पर निर्भर प्रतीत होता है किन्तु जैविक कारकों की भी भूमिका महत्वपूर्ण होती है । प्रत्येक समुदाय के सदस्य भोजन, प्रजनन और सुरक्षा हेतु तथा मूलभूत आवश्यकताआें की पूर्ति हेतु एक दूसरे पर आश्रित रहते है तथा परस्पर सहयोग करते हैं । देखा जा रहा है कि यह सहयोग भी स्वार्थवश टूट रहा है । सबसे ज्यादा खतरनाक हमला किसान खेत, जड़ी बूटियाँ तथा हजारों साल से संचित हमारे ज्ञान-विज्ञान पर हुआ है । जिस तरह से विश्व व्यापार संगठन, बौद्धिक सम्पदा का अधिकार दे रहे हैं । यह हमारी आनुवंशिक परम्परा के लिए घातक है और इससे मानव समाज आहत हैं ।
    मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । वह जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक समाज में रहता है । सामाजिक समूह का निर्माण करता है जिसके माध्यम से विभिन्न प्रकार की आवश्यकताआें की पूर्ति करता है । ऐसा इसलिए होता है कि मनुष्य की मूल प्रवृत्ति संघचारी (गिग्रेरियास इन्सटिक्ट) होती है । किन्तु यहाँ यह समझना जरूरी है कि मानव का मानवेत्तर जीवों से भी सहचारी संबंध होता है जिसे निभाने में वह नाकामयाब हो रहा है । इसीलिए अपना अस्तित्व आधार खो रहा है । मनुष्य को समाज में रहकर विभिन्न प्रकार के जैविक, भौतिक एवं सामाजिक दायित्व निभाने होंगे तथा प्रकृति एवं पर्यावरण से समायोजन भी करना होगा । तभी सुरक्षित रह सकेगा हमारा जैव समुदाय, जैविक विविधता, मनुष्य का सम्मान और सह अस्तित्व ।

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