सोमवार, 12 अगस्त 2013

प्रसंगवश
बाघ संरक्षण के नाम पर मगर के आंसू
घनश्याम सक्सैना, भोपाल 
    मध्यप्रदेश मेंवाइल्ड लाइफ बोर्ड की मीटिंग जुलाई माह में दो बार स्थगित होने के बाद २९ जुलाई को हो पाई है । इसमें इस पर सहमति बनी है कि बांधवगढ़ नेशनल पार्क से चार बाघिनोंको पन्ना और दो बाघों को संजय गांधी नेशनल पार्क में शिफ्ट कर दिया जाएगा । सरकार मानकर चल रही है कि इससे ही बाघों का संरक्षण हो जाएगा ।
    वर्तमान में बाघ संरक्षण के लिए जितना पैसा और प्रौद्योगिकी हमारे पास है, उतनी ही बाघों की संख्या कम होती जा रही है । जंगल में जहां बाघ को तस्करों और शिकारियों से बचाना कठिन है, तो वहीं कोर्ट में शिकारी को सजा दिला पाना और भी कठिन । कहते हैं कि बाघ संरक्षण संबंधित प्राकृतिक पर्यावास के स्वास्थ्य का संकेतक है ।
    बाघ वही होंगे, जहां शाकाहारी वन्यप्राणियों का उसका प्रे-बेस यानी शिकार होगा । ऐसे प्रे-बेस के लिए एक भरा-पूरा जंगल, जल व प्रजनन योग्य पर्यावास चाहिए । अत: बाघ संरक्षण से पर्यावरण संरक्षण स्वत: हो जाता है । राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के लिए जहां खूब बजट आ रहा है, वहीं ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध हैं, जिनसे बाद्य के मूवमेंट पर नजर रखी जा सकती है, मगर अब तो यह जीपीएस गश्ती वन-रक्षकों की गतिविधि पर नजर रखने के लिए ज्यादा काम में आएगा कि वे अपनी बीट में सक्रिय है या नहीं ? एनटीसीए की गाइड लाइन-अनुसार राष्ट्रीय उद्यानों की दस किलोमीटर की परिधी में कोई औघोगिक गतिविधि नहीं होनी चाहिए, पर नवगठित बोर्ड की पहली बैठक के एजेंडे में अंडर-ग्राउंड माइनिंग लीज पर देने का बिन्दु था । स्थिति का व्यंग्य यह है कि इसकी शुरूआत कान्हा राष्ट्रीय उद्यान से होनी है । क्या इसमें टनेल बनाने के लिए खुदाई नहीं होगी ? ट्रक, मजदूर व मशीनरी की आवाजाही नहीं होगी ? क्या इससे वन्य जीवन में बाधा नहीं होगी ? कहते हैं कि यह कॉरीडोर में ही होगा । कॉरीडोर यानी दो संरक्षित क्षेत्रों के बीच का वनक्षेत्र, जिसे वन्यप्राणियों की निर्विध्न आवाजाही के लिए संरक्षित रखना है । जो बोर्ड वन्य जीवन हेतु निर्विध्न पर्यावास सुनिश्चित करके उसके संरक्षण हेतु सिफारिश करने के साथ ही संरक्षण कामों पर नजर रखने के लिए बना है ।

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