सोमवार, 12 अगस्त 2013

हमारा भूमण्डल
वैश्वीकरण : गरीब का और गरीब होना
रमेश जौरा

    वैश्वीकरण के आर्थिक लाभों का ढिंढोरा पीटने वालों के लिए विश्व के  समृद्धतम ३४ देशों के  संगठ न द्वारा तैयार यह रिपोर्ट आंखें खोलने वाली है । इसमें स्पष्ट दर्शाया गया है कि  वैश्वीकरण का लाभ बहुत सीमित वर्ग को मिला है। चीन जहां इससे अत्यंत लाभान्वित हुआ है वहीं दूसरी ओर भारत जैसे देशों में अत्यंत निर्धनों की संख्या में वृद्धि हुई है ।
    क्या वैश्वीकरण से विकास होता है ? यदि आप ओईसीडी की रिपोर्ट को खंगालेंगे तो पाएंगे कि वर्तमान वित्त व्यवस्था के धराशायी होने के पहले से ही जोखिम में पड़े लोग अधिक  संकट में आ गए हैं और कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण अमीर को और अमीर तथा गरीब को अधिक गरीब बनाने में मददगार रहा है । इस नए अध्ययन के मुताबिक सन् २०११ में निर्धनतम देश सन् १९८० के मुकाबले ज्यादा गरीब हो गए हैं और यहां की अधिकांश आबादी एक डॉलर प्रतिदिन से कम पर गुजारा कर रही है । इस रिपोर्ट को जिन ३४ देशों के संगठन ने तैयार किया है  वे मुख्यतया औद्योगिक एवं कुछ उभरती अर्थव्यवस्थाएं हैं । जहां कुछ देश इनका अनुकरण कर रहे हैं वहीं तमाम देश अंतर्राष्ट्रीय बाजारों के खुल जाने से कमजोर हुए हैं । विश्व में दारुण गरीबी अभी भी कुछ क्षेत्रों में पाई जाती है ।  अनेक  देशों में असमानताएं बढ़ी हैं । गौरतलब है कि वैश्वीकरण भी तभी विकास में सहायक होता है जबकि विशिष्ट राजनीतिक परिस्थितियां विद्यमान हों ।


     इस अध्ययन का शीर्षक है, ``आर्थिक वैश्वीकरण : उद्गम एवं परिणाम`` इसके लेखक वैश्वीकरण से जुड़ी दो कहानियां प्रस्तुत करते हैं । ``बारह बरस पहले, व्यावसायिक  सौंदर्य
प्रसाधन विशेषज्ञ सिलाव एवं उनकी साझेदार नीनो उत्तरपूर्वीब्राजील के ग्रामीण प्रांत को छोड़कर साओ पाअलो के उपनगर में बस गई । दो दशक की राष्ट्रीय आर्थिक   स्थिरता एवं निरंतर वृद्धि के परिणामस्वरूप पिछले १० वर्षों में  इस अंचल की बेरोजगारी दर में आश्चर्यजनक  गिरावट देखने में आई । यह सफलता ब्राजील की अर्थव्यवस्था द्वारा अंतरराष्ट्रीय बाजार में घुसपैठ की वजह से मिली  । पिछले २० वर्षों में ब्राजील की अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भागीदारी दुगनी हो गई है । इससे अनेक  परिवारों को रोजगार मिला एवं उनकी क्रयशक्ति में भी वृद्धि हुई । उनका कहना है ``हमारे पास पहले की बनिस्बत काफी अधिक  अवसर हैं ।`` आज उनके पास एक छोटी कार, मोबाइल और स्वास्थ्य बीमा भी है । वे अब पुन: विद्यालय जाकर नर्सिंग की पढ़ाई  करना चाहती है । वह  कहती हैं, ``मुझ में अब अधिक आत्मविश्वास है और भविष्य हम पर मुस्करा रहा है ।``
    ठीक इसी समय माली की राजधानी बामाको से २५० किलोमीटर दूर एक किसान याकोबा त्राओरे मालिअन टेक्सटाइल डेवलेपमेंट कंपनी की शिकायत कर रहा है । यह कंपनी माली के कपास उत्पादकों एवं अंतर्राष्ट्रीय बाजार के  मध्य का कार्य करती है । उनका कहना है कि ``गत वर्ष उन्होंने मुझे प्रति किलो कपास के बदले २१० फ्रेंक दिए थे । लेकिन  इस  वर्ष केवल १५० फ्रेंक ही दिए । अच्छी गुणवत्ता के बावजूद माली की कपास विकसित देशों के  किसानों द्वारा उत्पादित कपास का मुकाबला नहीं कर सकती, क्योंकि  उन्हें सब्सिडी नहीं मिलती । इसी सब्सिडी की वजह से अमीर देशों के किसान विलासितापूर्ण जीवन जी पाते हैं ।
    खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों ने स्थितियों को और भी बद्तर बना दिया  । आयातित चावल जो कि स्थानीय चावल से भी सस्ता है का मूल्य २५० फ्रेंक से बढ़कर ३५० फ्रेंक प्रति किलोे हो गया  । छ: बच्चें के पिता याकोबा का कहना है, ``मेरी कमाई दिनोंदिन कम होती जा रही है, जबकिमहंगाई लगातार बढ़ रही है । किसी आश्चर्य के चलते ही मैं अगले वर्ष अपने दो छोटे बच्चें को विद्यालय भेज पाऊंगा ।``
    ये वैश्वीकरण के दो चेहरे हैं । एक में अंतर्राष्ट्रीय बाजार के खुलने से खुशहाली आई तो दूसरे में दुर्दशा । शोधकर्ताओं का कहना है  कि ``विकास के संबंध में वैश्वीकरण के प्रभाव को समझने के दो तरीके हैं, देशों पर पड़ने वाला कुल प्रभाव एवं देश के भीतर रह रही जनसंख्या पर विकास का अध्ययन  ।``  वे स्पष्ट  कहते हैं, ``निश्चित तौर पर देश का विकास जनसंख्या के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, लेकिन यह जुड़ाव स्वमेव ही नहीं हो जाता । वैश्वीकरण की वजह से विकासशील देश भी समृद्ध देशों के समकक्ष आने के प्रयास में हैं । लेकिन विश्व जनसंख्या में अमीरों और गरीबों के बीच की खाई और चौड़ी हो गई है ।
    इसके बावजूद पिछले २० वर्षों के तेज वैश्वीकरण के चलते अत्यंत दरिद्रता में विश्वव्यापी कमी आई  है । सन् १९९० से एक डॉलर से कम पर गुजारा करने वालों की संख्या में २० प्रतिशत यानि  ५० करोड़  व्यक्तियों  की कमी आई  है । तथा इनकी कुल हिस्सेदारी ३१ प्रतिशत से घटकर १९ प्रतिशत पर आ गई  है, लेकिन  इस संख्या में सर्वाधिक योगदान चीन के बेहतर नतीजों काहै । पिछले १५ वर्षों  में चीन की प्रति व्यक्ति  आय में अन्य विकासशील देशों के  मुकाबले ज्यादा तेजी से वृद्धि हुई है । सन् १९८१ में जहां चीन में ८३.३०  करोड़ चीनी १.२५ डॉलर प्रतिदिन से कम पर रह रहे थे वहीं यह संख्या अब ``महज`` २०.८० करोड़ रह गई है । हालांकि ``विश्व का कारखाना`` पूरी क्षमता से चल रहा है, लेकिन जरूरी नहीं है कि इससे इसके पड़ौसी भी खुश हों,  क्योंकि  कई अन्य देशों में गरीबी घटने के बजाए बढ़ रही  है ।
    यदि दक्षिण एशिया को लें तो यहां  ऊंची विकास दर के बावजूद गरीबी में रहने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई  है  । भारत की दरिद्र जनता का उदाहरण लें । इनकी संख्या १५ वर्षों की इसी अवधि में ३.६ करोड़ बढ़ गई है । हालांकि  कुल जनसंख्या में वास्तव में गरीबी ५८ प्रतिशत से घटकर ४२ प्रतिशत पर आ गई है । इसके बावजूद भारत के लाखों लाख लोग अभी भी १.२५ डॉलर प्रतिदिन और ७५ प्रतिशत लोग २ डॉलर प्रतिदिन से कम पर गुजारा कर रहे हैं ।
    दूसरा मामला उप सहारा अफ्रीका का  है । यह अभी विकास के नाम पर पिछड़ा हुआ है । पिछले ३० वर्षों से यहां की पूरी ५० प्रतिशत आबादी गरीबी में रह रही है  । एक शोध का मानना है कि हमेशा से ऐसा नहीं था । सन् १९७० में विश्व के ११ प्रतिशत अत्यंत गरीब अफ्रीका में रहते थे बनिस्बत ७० प्रतिशत एशिया के । लेकिन पिछले ३० वर्षों में यह अनुपात एकदम उल्टा हो गया है । यानि विश्व के कुछ क्षेत्र अधिक  गरीब हुए हैं ।
    इस अध्ययन मेंयह भी स्वीकार किया गया है कि वैश्वीकरण से सभी विकासशील देश लाभान्वित नहीं हुए हैं  । अनेक देश पिछले २० वर्षों से एक ही जगह स्थिर हैं  । सन् २००६ में विश्व के पर ४२ देशों की प्रतिव्यक्ति  आय ८७५ डॉलर से अधिक नहीं थी । इनमें ३४ देश उप सहारा अफ्रीका (मेडागास्कर, गुइनिआ गणराज्य, कांगो) में, ४ लेटिन अमेरिका में (बोलिविया, गुयाना, होंडुरास निकारागुआ) एवं एशिया में तीन (म्यांमार, लाओस, वियतनाम शामिल हैं । ४९ कम विकसित देशों में संयुक्त राष्ट्र संघ की परिभाषा के अनुसार, बांग्लादेश, यमन और हैती शामिल हैं ।

कोई टिप्पणी नहीं: