पक्षी जगत
विलुप्त् होती नन्ही गौरेया
आकांक्षा यादव
प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलीम अली अक्सर यह जुमला दोहराया करते थे कि पक्षी हमारे पर्यावरण के थर्मामीटर है, उनकी चहचहाहट बताती है कि धरती प्रसन्न है । तभी तो कभी घर के आँगन में गौरेया, मैना और बुलबुल जैसे पक्षियों की चहचहाहट सुनायी देती थी । कोयल की कू-कू मन को भाती थी तो कौए की कॉव-कॉव दूर बसे किसी अपने रिश्तेदार या ईष्ट मित्र के आने की खबर देती थी । अमरूद के पेड पर इस डाली से उस डाली उछल-कूद करता हुआ तोता पेड़ के हर फल में चोंच मारता अपनी ही धून में मगन रहता था और उसकी हर जूठन को बड़े प्यार से खाते और उसकी अठखेलियों कोअपलक निहारते बच्चें व बड़े-बूढ़ों के होठों पर बरबस मुस्कान फैल जाती । मोर नाच-नाच कर बारिश आने का संदेश देता था । पर वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया है । पक्षियों की तमाम प्रजातियाँ आज विलुप्त् होने के कगार पर है ।
विलुप्त् होती नन्ही गौरेया
आकांक्षा यादव
प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलीम अली अक्सर यह जुमला दोहराया करते थे कि पक्षी हमारे पर्यावरण के थर्मामीटर है, उनकी चहचहाहट बताती है कि धरती प्रसन्न है । तभी तो कभी घर के आँगन में गौरेया, मैना और बुलबुल जैसे पक्षियों की चहचहाहट सुनायी देती थी । कोयल की कू-कू मन को भाती थी तो कौए की कॉव-कॉव दूर बसे किसी अपने रिश्तेदार या ईष्ट मित्र के आने की खबर देती थी । अमरूद के पेड पर इस डाली से उस डाली उछल-कूद करता हुआ तोता पेड़ के हर फल में चोंच मारता अपनी ही धून में मगन रहता था और उसकी हर जूठन को बड़े प्यार से खाते और उसकी अठखेलियों कोअपलक निहारते बच्चें व बड़े-बूढ़ों के होठों पर बरबस मुस्कान फैल जाती । मोर नाच-नाच कर बारिश आने का संदेश देता था । पर वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया है । पक्षियों की तमाम प्रजातियाँ आज विलुप्त् होने के कगार पर है ।
गौरतलब है कि दुनिया में पक्षियों की लगभग ९९०० प्रजातियाँ ज्ञात हैं और उनमें से १८९ प्रजातियाँ विलुप्त् हो चुकी है । यही परिवेश रहा तो आगामी १०० वर्षो में पक्षियों की ११०० से ज्यादा प्रजातियाँ विलुप्त् हो सकती हैं । भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात करें तो यहाँ पक्षियों की लगभग १२५० प्रजातियाँ पायी जाती है, जिनमें से ८५ प्रजातियाँ विलुिप्त् के कगार पर हैं । भारत में जिन पक्षियों के अस्तित्व पर खतरा है, उनमें मोर, गौरेया, तोता, उल्लू, सारस, गिद्ध, साइबेरियाई सारस, सोन चिरैया (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड), हिमालयन बटेर, बंगाल फ्लेरिकरन, गुलाबी सिर वाली बत्तख इत्यादि शामिल हैं । पक्षी जहाँ जैव विविधता की कड़ी हैं, वहीं हमारी फूड-चेन का एक जरूरी हिस्सा भी है । इनके अभाव में प्रकृति का पूरा संतुलन ही गड़बड़ा रहा है ।
याद कीजिये, अंतिम बार आपने गौरेया को अपने आँगन या आसपास चीं-चीं करते देखा था । कब वो आपके पैरों के पास फुदक कर उड़ गई थी । सवाल जटिल है, पर जवाब तो देना ही पड़ेगा । गौरेया सिर्फ एक चिड़िया का नाम नहीं है, बल्कि हमारे परिवेश, साहित्य, कला, संस्कृति से भी उसका अभिन्न संबंध रहा है । आज भी बच्चें को चिड़िया के रूप में पहला नाम गौरेया का ही बताया जाता है । साहित्य, कला के कई पक्ष इस नन्हीं गौरेया को सहेजते हैं, उसके साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं । घरों में धार्मिक कार्यक्रम और समारोह में दीवारों पर चित्रकारी करने में फल-पत्ती, पेड़ के साथ गौरेया के चित्र उकेरे जाते हैं । यहाँ तक कि कई आदिवासी लोक कथाआें में गौरेया का वर्णन मिलता है । महाराष्ट्र की वर्ली और उड़ीसा की सौरा आदिवासियों की लोक कलाआें में गौरेया के चित्र बनाने की प्राचीन परम्परा मिलती है । कई प्रसिद्ध लेखकों एवं कवियों ने गौरेया पर आधारित रचनाएं भी रची हैं । अपनी गौरेया नामक कहानी में प्रसिद्ध लेखिका महादेवी वर्मा ने कामना की है कि हमारे शहरी जीवन का समृद्ध करने के लिए गौरेया फिर लौटेगी ।
जैव-विविधता के संरक्षण के लिए भी गौरेया और तमाम पक्षियों का होना निहायत जरूरी है । बालमन के पारखी पं. जवाहर लाल नेहरू अक्सर कहा करते थे कि चिड़ियों को दूर से ही देख लेना और आनंद का अनुभव करना काफी नहीं हैं । अगर हम उन्हें पहचानें, उनके नाम को जानें और उन्हें चहचहाते सुनकर पहचान सकें तो, हमारा आनंद और बढ़ जायेगा । अगर हम चिड़ियों के साथ हिलमिल जाएं तो वे हर जगह हमारी दोस्त हो सकती है । गौरेया वास्तव में एक सामाजिक जीव है और इसे मनुष्यों की संगति पंसद है । कभी गौरेया घर-परिवार का एक अहम हिस्सा होती थी । हॉउस स्पैरो के नाम से मशहूर गौरेया का वैज्ञानिक नाम पेसर, डोमिस्टिकस है, जो विश्व के अधिकांशत: भागों में पाई जाती है । इसके अलावा सोमाली, सैक्सुएल, स्पेनिश, इटेलियन, ग्रेट, पेगु, डैड सी स्पैरो इसके अन्य प्रकार हैं । भारत में असम घाटी, दक्षिणी असम के निचले पहाड़ी इलाकों के अलावा सिक्किम और देश के प्रायद्वीपीय भागों में बहुतायत से पाई जाती है ।
गौरेया पूरे वर्ष प्रजनन करती है, विशेषत: अप्रैल से अगस्त तक । दो से पॉच अंडे वह एक दिन में अलग-अलग अंतराल पर देती है । नर और मादा दोनों मिलकर अंडे की देखभाल करते हैं । अनाज, बीजों, बैरी, फल, चैरी के अलावा बीटल्स, कैटरपीलर्स, द्विपंखी कीट, साफ्लाइ, बग्स के साथ ही कोवाही फूल का रस उसके भोजन में शामिल होते हैं । गौरया आठ से दस फीट की ऊँचाई पर, घरों की दरारों और छेदों के अलावा छोटी झड़ियों में अपना घोंसला बनाती है ।
कहते है कि लोग जहाँ भी घर बनाते हैं देर-सबेर गौरेया के जोड़े वहाँ रहने पहॅुंच ही जाते हैं । कभी सुबह की पहली किरण के साथ घर की दालानों में ढेरों गौरेया के झुंड अपनी चहक से सुबह को खुशगवार बना देते थे । नन्हीं गौरेया के सानिध्य भर से बच्चें को चेहरे पर मुस्कान खिल उठती थी । घर के आंगन में फुदकती गौरेया, उसके पीछे नन्हे-नन्हें कदमों से भागते बच्च्े । अनाज साफ करती माँ के पहलू में दुबक कर नन्हें परिदों का दाना चुगना और फिर फुर्र से उड़कर झरोखों में बैठ जाना । ये नजारे अब नगरों में ही नहीं गाँवों में भी नहीं दिखाते देते । बचपन में घर के बड़ों द्वारा चिड़ियों के लिए दाना-पानी रखने की हिदायत सुनी थी, पर अब तो हमें उसकी फिक्र ही नहीं ।
प्राचीन काल से ही गौरेया को हमारे उल्लास, स्वतंत्रता, परम्परा और संस्कृतिकी संवाहक माना जाता रहा है । पर यह नन्ही गौरेया अब विलुप्त् होती पक्षियों में शामिल हो चुकी है और उसका कारण भी हम ही हैं । गौरेया अब कम ही नजर आती है । दिखे भी कैसे, हमने उसके घर ही नहीं छीन लिए बल्कि उसकी मौत का इंतजाम भी कर दिया । हरियाली खत्म कर कंक्रीटों के जंगल खड़े कर दिए । गगनचुंबी इमारतें बनाने के लिए, गगन को चूमने वाले न जाने कितने परिन्दों का आशियाना उजाड़ दिया । बीते कुछ सालों से बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण, हरियाली कम होने, रहन-सहन में बदलाव, अनलेडेड पेट्रोल के इस्तेमाल से निकलने वाली जहरीली गैस, मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली तरंगे, जैसे कई कारणों से गौरेया और अन्य परिन्दों की संख्या कम होती जा रही है । गौरेया और अन्य पक्षियों का कम होना संक्रमण वाली बीमारियों और पारिस्थितिकी तंत्र बदलाव का संकेत है ।
गौरेया घर के झरोखोंमें भी घोंसले बना लेती है । अब घरों में झरोखे ही नहीं तो गौरेया घोंसला कहाँ बनाए ? आधुनिक घरों का निर्माण इस तरह किया जा रहा है कि उनमें पुराने घरों की तरह छज्जों, टाइलों और कोने के लिए जगह ही नहीं है । जबकि यही स्थान गौरेया के घोंसलों के लिए सबसे उपयुक्त होते हैं । यही नहीं, खेतों में कीटनाशकों का अंधाधंुध इस्तेमाल कर गौरेया का कुदरती भोजन भी खत्म कर दिया जबकि गौरेया हानिकारक कीड़ों-मकोड़ों को खाकर फसल की रक्षा ही करती थी । गौरेया का भोजन अनाज के दाने और मुलायम कीड़े हैं । गौरेया के चूजे तो केवल कीड़ों के लार्वा खाकर ही जीते हैं । कीटनाशकों से कीडों के लार्वा मर जाते हैं । ऐसे में चूजों के लिए तो भोजन ही खत्म हो गया है । फिर गौरेया कहाँ से आयेगी ?
भौतिकवादी जीवन शैली ने बहुत कुछ बदल दिया है । गौरेया आम तौर पर पेड़ों पर अपने घोंसले बनाती है । पर अब तो वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के चलते पेड़-पौधे लगातार कम होते जा रहे है । शहरीकरण के नये दौर में घरों में बगीचों के लिए स्थान नहीं है । पेट्रोल के दहन से निकलने वाला मेथिल नाइट्रेट छोटे कीटों के लिए विनाशकारी होता है, जबकि यहीं कीट गौरया के चूजों के खाद्य पदार्थ होते है । यही नहीं, हम जिस मोबाइल पर गौरेया की चूं-चूं कालर ट्यून के रूप में सेट करते हैं, उसी मोबाइल टावर की तरंगें इसकी दिशा खोजने वाली प्रणाली को प्रभावित कर रही है और इनके प्रजनन पर भी विपरीत असर पड़ता है । बाबू बनारसी दास नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी लखनऊ और ब्रिटिश ट्रस्ट आर्निथोलॉजी के वैज्ञानिकों ने शोध में पाया है कि गौरेया के अंडे से जिन बच्चें को निकलने में दस से बारह दिन लगते हैं, मोबाइल टावर से निकलने वाले रेडिएशन से अंडों के भीतर बच्चें का विकास रूक जाता है और गौरेया के बच्च्े अंडों से महीने भर बाद भी नहीं निकल पाते । फिर क्यों गौरेया हमारे आंगन में फुदकेगी, क्यों वह माँ के हाथ की अनाज की थाली से अधिकार के साथ दाना चुराएगी ?
आधुनिक परिवेश मेंगौरेया की घटती संख्या पर्यावरण प्रेमियों के लिए चिंता और चिंतन दोनों का विषय है । इधर कुछ वर्षो से पक्षी वैज्ञानिकों एवं संरक्षणवादियों का ध्यान घट रही गौरेया की तरफ गया । नतीजतन इसके अध्ययन व संरक्षण की बात शुरू हुई, जैसे कि पूर्व में गिद्धों व सारस के लिए हुआ । गौरेया के संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक करने हेतु तमाम कदम उठाये जा रहे है । गौरेया को बचाने के लिए भारत की नेचर्स फॉरएवर सोसायटी ऑफ इंडिया और इको सिस एक्शन फाउंडेशन फ्रांस के साथ ही अन्य तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों ने मिलकर २० मार्च को विश्व गौरेया दिवस मनाने की घोषणा की और वर्ष २०१० में पहली बार विश्व गौरेया दिवस मनाया गया । इस दिन को गौरेया के अस्तित्व और उसके सम्मान में रेड लेटर डे (अति महत्वपूर्ण दिन) भी कहा गया । इसी क्रम में भारतीय डाक विभाग ने ९ जुलाई २०१० को गौरेया पर डाक टिकट जारी किए । कम होती गौरेया की संख्या को देखते हुए अक्टूबर २०१२ में दिल्ली सरकार ने इसे राज्य पक्षी घोषित किया ।
गौरेया के संरक्षण के लिए बम्बई नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी ने इंडियन बर्ड कंजरवेशन नेटवर्क के तहत ऑनलाइन सर्वे भी आरंभ किया हुआ है । कई एनजीओ गौरेया को सहेजने की मुहिम में जुट गए हैं, ताकि इस बेहतरीन पक्षी की प्रजातियों से आने वाली पीढ़ियाँ भी रूबरू हो सके । देश के ग्रामीण क्षेत्र में गौरेया बचाओ के अभियान के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए रेडियो, समाचारपत्रों का उपयोग किया जा रहा है । कुछेक संस्थाएं गौरेया के लिए घोंसले बनाने के लिए भी आगे आई हैं । इसके तहत हरे नारियल में छेद कर, अखबार से नमी सोखकर उस पर कूलर की घास लगाकर बच्चें को घोसला बनाने का हुनर सिखया जा रहा है । वाकई आज समय की जरूरत है कि गौरेया के संरक्षण के लिए हम अपने स्तर पर भी प्रयास करें । कुछेक नयी पहल गौरेया को फिर से वापस ला सकती है । मसलन, घरों कें कुछ ऐसे झरोखे रखें, जहाँ गौरेया घोंसले बना सकें । छत और ऑगन पर अनाज के दाने बिखेरने के साथ-साथ गर्मियों में अपने घरों के पास पक्षियों के पीने के लिए पानी रखने, उन्हें आकर्षित करने हेतु आँगन और छतों पर पौधे लगाने, जल चढ़ाने में चावल के दाने डालने की परम्परा जैसे कदम भी इन नन्हें पक्षियों को सलामत रख सकते है । इसके अलावा जिनके घरों में गौरेया ने अपने घोंसले बनाए हैं, उन्हें नहीं तोड़ने के संबंध में आग्रह किया जा सकता है । फसलों में कीटनाशकों का उपयोग नहीं करने और वाहनों में अनलेडेड पेट्रोल का इस्तेमाल न करने जैसी पहलभी आवश्यक है । जरूतर है कि गौरेया को हम मनाएँ, उसके जीवनयापन के लिए प्रबंध करें और एक बार फिर से उसे अपने जीवन में शामिल करें ।
याद कीजिये, अंतिम बार आपने गौरेया को अपने आँगन या आसपास चीं-चीं करते देखा था । कब वो आपके पैरों के पास फुदक कर उड़ गई थी । सवाल जटिल है, पर जवाब तो देना ही पड़ेगा । गौरेया सिर्फ एक चिड़िया का नाम नहीं है, बल्कि हमारे परिवेश, साहित्य, कला, संस्कृति से भी उसका अभिन्न संबंध रहा है । आज भी बच्चें को चिड़िया के रूप में पहला नाम गौरेया का ही बताया जाता है । साहित्य, कला के कई पक्ष इस नन्हीं गौरेया को सहेजते हैं, उसके साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं । घरों में धार्मिक कार्यक्रम और समारोह में दीवारों पर चित्रकारी करने में फल-पत्ती, पेड़ के साथ गौरेया के चित्र उकेरे जाते हैं । यहाँ तक कि कई आदिवासी लोक कथाआें में गौरेया का वर्णन मिलता है । महाराष्ट्र की वर्ली और उड़ीसा की सौरा आदिवासियों की लोक कलाआें में गौरेया के चित्र बनाने की प्राचीन परम्परा मिलती है । कई प्रसिद्ध लेखकों एवं कवियों ने गौरेया पर आधारित रचनाएं भी रची हैं । अपनी गौरेया नामक कहानी में प्रसिद्ध लेखिका महादेवी वर्मा ने कामना की है कि हमारे शहरी जीवन का समृद्ध करने के लिए गौरेया फिर लौटेगी ।
जैव-विविधता के संरक्षण के लिए भी गौरेया और तमाम पक्षियों का होना निहायत जरूरी है । बालमन के पारखी पं. जवाहर लाल नेहरू अक्सर कहा करते थे कि चिड़ियों को दूर से ही देख लेना और आनंद का अनुभव करना काफी नहीं हैं । अगर हम उन्हें पहचानें, उनके नाम को जानें और उन्हें चहचहाते सुनकर पहचान सकें तो, हमारा आनंद और बढ़ जायेगा । अगर हम चिड़ियों के साथ हिलमिल जाएं तो वे हर जगह हमारी दोस्त हो सकती है । गौरेया वास्तव में एक सामाजिक जीव है और इसे मनुष्यों की संगति पंसद है । कभी गौरेया घर-परिवार का एक अहम हिस्सा होती थी । हॉउस स्पैरो के नाम से मशहूर गौरेया का वैज्ञानिक नाम पेसर, डोमिस्टिकस है, जो विश्व के अधिकांशत: भागों में पाई जाती है । इसके अलावा सोमाली, सैक्सुएल, स्पेनिश, इटेलियन, ग्रेट, पेगु, डैड सी स्पैरो इसके अन्य प्रकार हैं । भारत में असम घाटी, दक्षिणी असम के निचले पहाड़ी इलाकों के अलावा सिक्किम और देश के प्रायद्वीपीय भागों में बहुतायत से पाई जाती है ।
गौरेया पूरे वर्ष प्रजनन करती है, विशेषत: अप्रैल से अगस्त तक । दो से पॉच अंडे वह एक दिन में अलग-अलग अंतराल पर देती है । नर और मादा दोनों मिलकर अंडे की देखभाल करते हैं । अनाज, बीजों, बैरी, फल, चैरी के अलावा बीटल्स, कैटरपीलर्स, द्विपंखी कीट, साफ्लाइ, बग्स के साथ ही कोवाही फूल का रस उसके भोजन में शामिल होते हैं । गौरया आठ से दस फीट की ऊँचाई पर, घरों की दरारों और छेदों के अलावा छोटी झड़ियों में अपना घोंसला बनाती है ।
कहते है कि लोग जहाँ भी घर बनाते हैं देर-सबेर गौरेया के जोड़े वहाँ रहने पहॅुंच ही जाते हैं । कभी सुबह की पहली किरण के साथ घर की दालानों में ढेरों गौरेया के झुंड अपनी चहक से सुबह को खुशगवार बना देते थे । नन्हीं गौरेया के सानिध्य भर से बच्चें को चेहरे पर मुस्कान खिल उठती थी । घर के आंगन में फुदकती गौरेया, उसके पीछे नन्हे-नन्हें कदमों से भागते बच्च्े । अनाज साफ करती माँ के पहलू में दुबक कर नन्हें परिदों का दाना चुगना और फिर फुर्र से उड़कर झरोखों में बैठ जाना । ये नजारे अब नगरों में ही नहीं गाँवों में भी नहीं दिखाते देते । बचपन में घर के बड़ों द्वारा चिड़ियों के लिए दाना-पानी रखने की हिदायत सुनी थी, पर अब तो हमें उसकी फिक्र ही नहीं ।
प्राचीन काल से ही गौरेया को हमारे उल्लास, स्वतंत्रता, परम्परा और संस्कृतिकी संवाहक माना जाता रहा है । पर यह नन्ही गौरेया अब विलुप्त् होती पक्षियों में शामिल हो चुकी है और उसका कारण भी हम ही हैं । गौरेया अब कम ही नजर आती है । दिखे भी कैसे, हमने उसके घर ही नहीं छीन लिए बल्कि उसकी मौत का इंतजाम भी कर दिया । हरियाली खत्म कर कंक्रीटों के जंगल खड़े कर दिए । गगनचुंबी इमारतें बनाने के लिए, गगन को चूमने वाले न जाने कितने परिन्दों का आशियाना उजाड़ दिया । बीते कुछ सालों से बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण, हरियाली कम होने, रहन-सहन में बदलाव, अनलेडेड पेट्रोल के इस्तेमाल से निकलने वाली जहरीली गैस, मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली तरंगे, जैसे कई कारणों से गौरेया और अन्य परिन्दों की संख्या कम होती जा रही है । गौरेया और अन्य पक्षियों का कम होना संक्रमण वाली बीमारियों और पारिस्थितिकी तंत्र बदलाव का संकेत है ।
गौरेया घर के झरोखोंमें भी घोंसले बना लेती है । अब घरों में झरोखे ही नहीं तो गौरेया घोंसला कहाँ बनाए ? आधुनिक घरों का निर्माण इस तरह किया जा रहा है कि उनमें पुराने घरों की तरह छज्जों, टाइलों और कोने के लिए जगह ही नहीं है । जबकि यही स्थान गौरेया के घोंसलों के लिए सबसे उपयुक्त होते हैं । यही नहीं, खेतों में कीटनाशकों का अंधाधंुध इस्तेमाल कर गौरेया का कुदरती भोजन भी खत्म कर दिया जबकि गौरेया हानिकारक कीड़ों-मकोड़ों को खाकर फसल की रक्षा ही करती थी । गौरेया का भोजन अनाज के दाने और मुलायम कीड़े हैं । गौरेया के चूजे तो केवल कीड़ों के लार्वा खाकर ही जीते हैं । कीटनाशकों से कीडों के लार्वा मर जाते हैं । ऐसे में चूजों के लिए तो भोजन ही खत्म हो गया है । फिर गौरेया कहाँ से आयेगी ?
भौतिकवादी जीवन शैली ने बहुत कुछ बदल दिया है । गौरेया आम तौर पर पेड़ों पर अपने घोंसले बनाती है । पर अब तो वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के चलते पेड़-पौधे लगातार कम होते जा रहे है । शहरीकरण के नये दौर में घरों में बगीचों के लिए स्थान नहीं है । पेट्रोल के दहन से निकलने वाला मेथिल नाइट्रेट छोटे कीटों के लिए विनाशकारी होता है, जबकि यहीं कीट गौरया के चूजों के खाद्य पदार्थ होते है । यही नहीं, हम जिस मोबाइल पर गौरेया की चूं-चूं कालर ट्यून के रूप में सेट करते हैं, उसी मोबाइल टावर की तरंगें इसकी दिशा खोजने वाली प्रणाली को प्रभावित कर रही है और इनके प्रजनन पर भी विपरीत असर पड़ता है । बाबू बनारसी दास नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी लखनऊ और ब्रिटिश ट्रस्ट आर्निथोलॉजी के वैज्ञानिकों ने शोध में पाया है कि गौरेया के अंडे से जिन बच्चें को निकलने में दस से बारह दिन लगते हैं, मोबाइल टावर से निकलने वाले रेडिएशन से अंडों के भीतर बच्चें का विकास रूक जाता है और गौरेया के बच्च्े अंडों से महीने भर बाद भी नहीं निकल पाते । फिर क्यों गौरेया हमारे आंगन में फुदकेगी, क्यों वह माँ के हाथ की अनाज की थाली से अधिकार के साथ दाना चुराएगी ?
आधुनिक परिवेश मेंगौरेया की घटती संख्या पर्यावरण प्रेमियों के लिए चिंता और चिंतन दोनों का विषय है । इधर कुछ वर्षो से पक्षी वैज्ञानिकों एवं संरक्षणवादियों का ध्यान घट रही गौरेया की तरफ गया । नतीजतन इसके अध्ययन व संरक्षण की बात शुरू हुई, जैसे कि पूर्व में गिद्धों व सारस के लिए हुआ । गौरेया के संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक करने हेतु तमाम कदम उठाये जा रहे है । गौरेया को बचाने के लिए भारत की नेचर्स फॉरएवर सोसायटी ऑफ इंडिया और इको सिस एक्शन फाउंडेशन फ्रांस के साथ ही अन्य तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों ने मिलकर २० मार्च को विश्व गौरेया दिवस मनाने की घोषणा की और वर्ष २०१० में पहली बार विश्व गौरेया दिवस मनाया गया । इस दिन को गौरेया के अस्तित्व और उसके सम्मान में रेड लेटर डे (अति महत्वपूर्ण दिन) भी कहा गया । इसी क्रम में भारतीय डाक विभाग ने ९ जुलाई २०१० को गौरेया पर डाक टिकट जारी किए । कम होती गौरेया की संख्या को देखते हुए अक्टूबर २०१२ में दिल्ली सरकार ने इसे राज्य पक्षी घोषित किया ।
गौरेया के संरक्षण के लिए बम्बई नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी ने इंडियन बर्ड कंजरवेशन नेटवर्क के तहत ऑनलाइन सर्वे भी आरंभ किया हुआ है । कई एनजीओ गौरेया को सहेजने की मुहिम में जुट गए हैं, ताकि इस बेहतरीन पक्षी की प्रजातियों से आने वाली पीढ़ियाँ भी रूबरू हो सके । देश के ग्रामीण क्षेत्र में गौरेया बचाओ के अभियान के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए रेडियो, समाचारपत्रों का उपयोग किया जा रहा है । कुछेक संस्थाएं गौरेया के लिए घोंसले बनाने के लिए भी आगे आई हैं । इसके तहत हरे नारियल में छेद कर, अखबार से नमी सोखकर उस पर कूलर की घास लगाकर बच्चें को घोसला बनाने का हुनर सिखया जा रहा है । वाकई आज समय की जरूरत है कि गौरेया के संरक्षण के लिए हम अपने स्तर पर भी प्रयास करें । कुछेक नयी पहल गौरेया को फिर से वापस ला सकती है । मसलन, घरों कें कुछ ऐसे झरोखे रखें, जहाँ गौरेया घोंसले बना सकें । छत और ऑगन पर अनाज के दाने बिखेरने के साथ-साथ गर्मियों में अपने घरों के पास पक्षियों के पीने के लिए पानी रखने, उन्हें आकर्षित करने हेतु आँगन और छतों पर पौधे लगाने, जल चढ़ाने में चावल के दाने डालने की परम्परा जैसे कदम भी इन नन्हें पक्षियों को सलामत रख सकते है । इसके अलावा जिनके घरों में गौरेया ने अपने घोंसले बनाए हैं, उन्हें नहीं तोड़ने के संबंध में आग्रह किया जा सकता है । फसलों में कीटनाशकों का उपयोग नहीं करने और वाहनों में अनलेडेड पेट्रोल का इस्तेमाल न करने जैसी पहलभी आवश्यक है । जरूतर है कि गौरेया को हम मनाएँ, उसके जीवनयापन के लिए प्रबंध करें और एक बार फिर से उसे अपने जीवन में शामिल करें ।
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