सोमवार, 12 अगस्त 2013

सामयिक
संभव है हिमालय की रक्षा
भारत डोगरा

    अपने पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र से खिलवाड़ का नतीजा उत्तराखंड की तबाही से हमारे सामने  है । इस त्रासदी में देशभर के  लोग मारे गए हैं । ऐसे में आवश्यकता है कि विकास के इस नए स्वरूप पर राजनीतिक  दायरों के  बाहर भी विचार विमर्श हो ।
    हिमालय क्षेत्र हमारे देश का अत्यधिक  महत्वपूर्ण व संवेदनशील क्षेत्र है । इस क्षेत्र के संतुलित व टिकाऊ विकास के लिए नीतियां बहुत सावधानी से बनानी चाहिए। जल्दबाजी में अपनाई गई अनुचित नीतियां या निहित स्वार्थों के दबाव में अपनाई गई नीतियों के परिणाम हिमालयवासियों को व विशेषकर वहां के ग्रामीणोेंको भुगतने पड़े है ।  
     मैदानी कृषि में जो विसंगतिपूर्ण नीतियां अपनाई गई उन्हें पर्वतीय क्षेत्रों की ओर भी जबरदस्ती धकेलकर हिमालय की खेती की बहुत क्षति की गई है । इस कृषि से जहां महंगी रासायनिक खाद व कीटनाशक  दवाओं पर किसानों का खर्च बढ़ता है, वहीं पर्यावरण व स्वास्थ्य की बहुत क्षति भी होती है और परंपरागत कृषि की जैव विविधता भी नष्ट होती है । जबकि  हिमालय की कृषि में जैव विविधता को, तरह-तरह की फसलों को और उनकी किस्मों को बनाए रखना जरूरी है, क्योंकि  हिमालय की विभिन्न स्थितियां इसके अनुकूल भी हैं । विविध तरह के अनाज, दलहन, तिलहन, मसालों आदि को एक साथ बोना, तरह-तरह के स्थानीय फसल की किस्मा की जरूरत के अनुसार उगाना किसानों के लिए आर्थिक  दृष्टि से भी लाभप्रद है और पौष्टिक व स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध करवाने के  लिए भी अच्छा है । साथ ही इस तरह से जैव विविधता का जो संरक्षण होता है, वह व्यापक  राष्ट्रीय हित में भी है । पशुपालन में भी स्थानीय स्थितियों में जो पशुओं की देशीय नस्लें पनपती रही है, उनकी रक्षा करना जरूरी है ।
    वनों में भी जैव विविधता की रक्षा करने से दोहरा-तिहरा लाभ   मिलेगा । सच कहा जाए तो वनों में जैव विविधता की रक्षा के साथ स्थानीय आजीविका को किस तरह बढ़ाया जा सकता है, इसे अभी सही ढंग से प्रतिष्ठित ही नहीं किया जा सका है । इस बारे में तो कई समाचार मिलते रहते हैं कि  तस्करों ने किस तरह जड़ी-बूटियों को लूट कर बहुत पैसा कमा लिया । परन्तु संतुलित व टिकाऊ  ढंग से जड़ी बूटियों को, लघु वन उपज व अन्य पौध संपदा को हिमालय के गांववासियों की आजीविका का आधार व्यापक  स्तर पर कैसे बनाया जाए, ऐसी सफलता की कहानियां बहुत कम सुनने को मिलती हैं । संस्थाओं के छिटपुट प्रयास तो अपनी जगह है, परंतु बहुत व्यापक  सफलता नहीं है एवं इसके लिए सरकार की सहायता व सहयोग भी जरूरी है । वैज्ञानिकों विशेषकर वनस्पतिशास्त्रियों, औषधि वैज्ञानिकों व पोषण विशेषज्ञों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है ।
    साथ ही हमें विसंगति का सामना भी करना पड़ेगा कि वनों के  प्रति जो व्यापारिक  रुझान की नीतियां अपनाई गई हैं उससे प्राकृतिक वनों की  जैव विविधता की कितनी गंभीर क्षति हुई है । वन नीति के व्यापारीकरण की यह नीति ब्रिटिश राज के दिनों में ही आरंभ हो गई थी पर आजादी के बाद इसे रोकने के  स्थान पर इसे और आगे बढ़ाया गया ।  कई क्षेत्रों में यह इस रूप में प्रकट हुई कि  चौड़ी पत्ती के पेड़ कम होते गए व चीड़ जैसे शंकुधारी पेड़ बढ़ते गए ।
    चौड़ी पत्ती के पेड़ चारे  के   लिए भी उपयोगी होते हैं और इसकी हरी पत्तियोंसे खेतों के लिए बहुत अच्छी खाद भी मिल जाती है । अन्य लघु वन उपज के लिए भी ये उपयोगी हैं ।  दूसरी ओर हर जगह चीड़ छा जाएगा तो यह न स्थानीय लोगों के लिए अच्छा है, न पशुपालकों के  लिए और न ही किसानों के लिए । वन नीति का यह प्रयास होना चाहिए कि वन अपनी प्राकृतिक स्थिति के नजदीक  रहें यानि मिश्रित वन हों । यदि इस तरह की जैव-विविधता नहीं होगी व केवल चीड़ छा जाएंगे तो जमीन के नीचे उनकी जड़ों को जमने में कठिनाई होगी और यह पेड़ भी हलके से आंधी-तूफान भी आसानी से गिरने लगेंगे जैसा कि  अभी हो भी रहा है ।
    हिमालय के अनेक क्षेत्रों में अत्यधिक  व अनियंत्रित खनन से वनों की भी बहुत क्षति हुई है व खेती-किसानी की भी  । इस खनन से अनेक  स्थानों पर भू-स्खलन व बाढ़ की समस्या को विकट किया है  व अनेक  गांवांे के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है ।
    वन-कटान, खनन, अत्यधिक निमार्ण कार्य में विस्फोटकों के बहुत उपयोग से हिमालय की अच्छी भली  भू-निर्माण स्थिति बहुत अस्त-व्यस्त होती है । इस तरह भू-स्खलन व बाढ़ का खतरा बढ़ता है और भूकंप में होने वाली क्षति की संभावना बढ़ती है । हिमालय का भूगोल ही ऐसा है यहां ऐसी आपदा की संभावना बढ़ेगी तो उसका असर दूर-दूर के मैदानी क्षेत्रों में भी पड़ेगा ।
    इस संभावना को ध्यान में रखते हुए व जैव विविधता संरक्षण से हिमालय की विशेष भूमिका को भी ध्यान में रखते हुए भी केंद्रीय सरकार को हिमालय क्षेत्र के सभी राज्यों को पर्यावरण रक्षा के अनुकूल विकास नीतियां बनाने के लिए अलग से विशेष अनुदान देना चाहिए । इस बजट का विशेष महत्व इस ओर होना चाहिए कि पर्यावरण की रक्षा और आजीविका की रक्षा का आपसी मेल करते हुए हिमालय के  टिकाऊ  और संतुलित विकास को आगे बढ़ाया जाए ।
    इस समय हिमालय क्षेत्र में सबसे बड़े विवाद का मुद्दा यहां की बांध परियोजनाएं बनी हुई हैं । पूरे हिमालय क्षेत्र में सैकड़ांे बांध बनाए जा रहे हैं  जिससे यहां के हजारों गांव तरह-तरह से संकटग्रस्त हो रहे हैं । यदि इन सब परियोजनाओं को समग्र रूप से देखा जाए तो ये गांव समुदायों व पर्यावरण सभी के लिए बहुत खतरा है व अनेक आपदाओं की विकटता इनके कारण बहुत बढ़ सकती है  । पर ऐसा कोई समग्र मूल्यांकन पूरे हिमालय के क्षेत्र के लिए तो क्या किसी एक राज्य या नदी घाटी के लिए भी नहीं  किया गया । बड़ी कंपनियों से जल्दबाजी में सौदेबाजी की गई व गांव समुदायों से कुछ पूछा तक नहीं गया ।
    हिमालय की रक्षा और लोकतंत्र की रक्षा दोनों की मांग यह है कि इन बांध परियोजनाओं पर नए सिरे से पुनर्विचार किया जाए । स्थानीय गांववासियों से व्यापक  विचार-विमर्श करना चाहिए कि किस तरह से कितना पनबिजली उत्पादन गांवों को व नदियों को क्षतिग्रस्त किए बिना हो सकता है । इस हेतु स्थानीय सहयोग व सहमति से ही यह कार्य होना चाहिए  ।
    इसी तरह पर्यटन के कार्य में गांववासियों की आजीविका से जुड़कर कार्य करना चाहिए व इसमें पर्यावरण की रक्षा का भी ध्यान रखना चाहिए । पर्यटन में भी स्थानीय गांववासी केवल निचले स्थान पर न हों अपितु उन्हें गरिमा व सम्मान की भूमिका मिले । वन्य जीव रक्षा के लिए लोगां को उजाड़ना कतई जरूरी नहीं है अपितु सही योजना बने तो वन्य जीव रक्षा में स्थानीय गांववासियों को आजीविका के  अनेक नए  स्त्रोत मिल सकते है । 

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