ज्ञान विज्ञान
कॉकरोच पकड़ने में यंत्र कामयाब क्यों नहीं होते ?
किचन, बाथरूम वगैरह में कॉकरोच खूब पाए जाते हैं । इन्हें मारने के लिए कई रसायन उपलब्ध हैं । इसके अलावा इन्हें पकड़ने के लिए कई यंत्र मिलते हैं । ये यंत्र १९८० के दशक में विकसित किए गए थे और काफी लोकप्रिय हुए थे मगर कुछ ही सालों में कॉकरोच इनसे बचने में समर्थ हो गए । कैसे ?
कॉकरोच पकड़ने में यंत्र कामयाब क्यों नहीं होते ?
किचन, बाथरूम वगैरह में कॉकरोच खूब पाए जाते हैं । इन्हें मारने के लिए कई रसायन उपलब्ध हैं । इसके अलावा इन्हें पकड़ने के लिए कई यंत्र मिलते हैं । ये यंत्र १९८० के दशक में विकसित किए गए थे और काफी लोकप्रिय हुए थे मगर कुछ ही सालों में कॉकरोच इनसे बचने में समर्थ हो गए । कैसे ?
शोधकर्ताआें ने पाया कि कॉकरोच इन कॉकरोच दानियों के आसपास भी नहीं फटकते । थोड़े अनुसंधान के बाद पता चला कि कुछ कॉकरोच में ग्लूकोज के प्रति एक नफरत पैदा हो गई थी । आम तौर पर कॉकरोच-दानियों में ग्लूकोज के साथ जहर रखा जाता है ताकि जब कॉकरोच ग्लूकोज के लालच में वहां आएं, तो जहर खाकर मर जाएं । सबसे दिलचस्प बात यह थी कि ग्लूकोज के प्रति यह नफरत एक आनुवंशिक गुण था जो कि कॉकरोच की अगली पीढ़ी में भी पहुंच जाता था ।
अब वैज्ञानिकों ने ग्लूकोज के प्रति इस नफरत का राज भी खोल निकाला है । अन्य कीटों के समान कॉकरोच भी स्वाद की अनुभूति उनके मुखांगों पर उपस्थित रोमनुमा उपांगों की मदद से प्राप्त् करते हैं । ये संवेदना ग्राही मीठे और कड़वे जायके के बीच भेद कर पाते हैं । इसी के आधार पर कॉकरोच फैसला करते हैं कि किस चीज को निगलना है और किसे छोड़ देना है ।
शोधकर्ताआें ने करीब १००० ऐसे जर्मन कॉकरोच लिए जो प्राकृतिक स्थिति में पले थे और २५० ऐसे कॉकरोच लिए जिन्हें प्रयोगशाला में पाला गया था । सामान्य कॉकरोचों ने तो दो अलग-अलग किस्म की शर्कराआें - ग्लूकोज व फ्रक्टोज को बराबर शौक से खाया मगर ग्लूकोज द्वैषी कॉकरोचों ने फ्रुक्टोज को तो खाया लेकिन ग्लूकोज वापिस उगल दिया ।
कॉकरोचोंके इलेक्ट्रो - फिजियॉलॉजिकल रिकॉर्डिग से पता चला है कि सामान्य कॉकरोचों में तो ग्लूकोज मीठे स्वाद के ग्राहियों को उत्तेजित करता है मगर ग्लूकोज-द्वैषी कॉकरोचों में वही ग्लूकोज कड़वे स्वाद ग्राहियों को उत्तेजित कर देता है ।
यह सही है कि ग्लूकोज के प्रति नफरत पैदा करने वाला यह गुण इन कॉकरोचों की जान बचा लेगा मगर पोषण की कमी के चलते इनकी वृद्धि धीमी पड़ जाएगी और इनमें प्रजनन की रफ्तार भी कम रहेगी ।
परमाणु भार बदलने की प्रक्रिया चालू है
परमाणु भार का विचार करीब २०० साल पहले जॉन डाल्टन ने प्रस्तुत किया था । धीरे-धीरे कई वैज्ञानिकों के प्रयासों से परमाणु भार की धारणा परवान चढ़ी और रसायनज्ञों ने सारे तत्वों के परमाणु भार ज्ञात किए । पाठ्य पुस्तकों में बताया जाता है कि किसी तत्व का परमाणु भार एक प्राकृतिक स्थिरांक है । मगर पिछले वर्षो में कई तत्वों के परमाणु भार परिवर्तनशील पाए गए हैं ।
अब वैज्ञानिकों ने ग्लूकोज के प्रति इस नफरत का राज भी खोल निकाला है । अन्य कीटों के समान कॉकरोच भी स्वाद की अनुभूति उनके मुखांगों पर उपस्थित रोमनुमा उपांगों की मदद से प्राप्त् करते हैं । ये संवेदना ग्राही मीठे और कड़वे जायके के बीच भेद कर पाते हैं । इसी के आधार पर कॉकरोच फैसला करते हैं कि किस चीज को निगलना है और किसे छोड़ देना है ।
शोधकर्ताआें ने करीब १००० ऐसे जर्मन कॉकरोच लिए जो प्राकृतिक स्थिति में पले थे और २५० ऐसे कॉकरोच लिए जिन्हें प्रयोगशाला में पाला गया था । सामान्य कॉकरोचों ने तो दो अलग-अलग किस्म की शर्कराआें - ग्लूकोज व फ्रक्टोज को बराबर शौक से खाया मगर ग्लूकोज द्वैषी कॉकरोचों ने फ्रुक्टोज को तो खाया लेकिन ग्लूकोज वापिस उगल दिया ।
कॉकरोचोंके इलेक्ट्रो - फिजियॉलॉजिकल रिकॉर्डिग से पता चला है कि सामान्य कॉकरोचों में तो ग्लूकोज मीठे स्वाद के ग्राहियों को उत्तेजित करता है मगर ग्लूकोज-द्वैषी कॉकरोचों में वही ग्लूकोज कड़वे स्वाद ग्राहियों को उत्तेजित कर देता है ।
यह सही है कि ग्लूकोज के प्रति नफरत पैदा करने वाला यह गुण इन कॉकरोचों की जान बचा लेगा मगर पोषण की कमी के चलते इनकी वृद्धि धीमी पड़ जाएगी और इनमें प्रजनन की रफ्तार भी कम रहेगी ।
परमाणु भार बदलने की प्रक्रिया चालू है
परमाणु भार का विचार करीब २०० साल पहले जॉन डाल्टन ने प्रस्तुत किया था । धीरे-धीरे कई वैज्ञानिकों के प्रयासों से परमाणु भार की धारणा परवान चढ़ी और रसायनज्ञों ने सारे तत्वों के परमाणु भार ज्ञात किए । पाठ्य पुस्तकों में बताया जाता है कि किसी तत्व का परमाणु भार एक प्राकृतिक स्थिरांक है । मगर पिछले वर्षो में कई तत्वों के परमाणु भार परिवर्तनशील पाए गए हैं ।
परमाणु का अधिकांश द्रव्यमान उसके केन्द्रक में रहता है, जहां प्रोटॉन व न्यूट्रॉन पाए जाते हैं । किसी भी परमाणु में पाए जाने वाले प्रोटॉनों की संख्या से तय होता है कि वह किस तत्व का परमाणु है । जैसे कार्बन के परमाणु में ६ प्रोटॉन होंगे और ऑक्सीजन के परमाणु में ८ प्रोटॉन होंगे । मगर एक ही तत्व के विभिन्न परमाणुआें में न्यूट्रॉनों की संख्या अलग-अलग हो सकती है । ऐसे परमाणु जिनमें प्रोटॉनों की संख्या बराबर हो मगर न्यूट्रॉनों की संख्या अलग-अलग हो, उस तत्व के समस्थानिक या आइसोटॉप कहलाते हैं । किसी भी तत्व का परमाणु भार केन्द्रक में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन की संख्या से तय होता है ।
सारे तत्वों के कई समस्थानिक होते हैं मगर वे अस्थिर होते हैं - उनमें रेडियोधर्मी विखंडन होता है । मगर कुछ तत्वों के समस्थानिक स्थिर होते हैं । समस्थानिक का मतलब है कि वे सारे परमाणु एक ही तत्व के हैं मगर उनके केन्द्रक में न्यूट्रॉनों की संख्या अलग-अलग होने की वजह से उनके परमाणु भार अलग-अलग हैं । इसके कारण परमाणु भार ज्ञात करना आसान नहीं होता । खासकर काफी सटीक विश्लेषण से पता चला है कि धरती पर अलग-अलग स्थानों पर तत्वों में समस्थानिकों का अनुपात अलग-अलग होता है । इस वजह से परमाणु भार भी अलग-अलग निकलते हैं ।
जैसे ब्रोमीन नामक तत्व के दो स्थिर समस्थानिक पाए जाते हैं । दोनों लगभग बराबर अनुपात में पाए जाते हैं । मगर विश्लेषण से पता चला कि अलग-अलग जगहों पर यह वितरण एक समान नहीं है । समुद्री पानी या लवणों से प्राप्त् ब्रोमीन का परमाणु भार कार्बनिक पदार्थो से प्राप्त् ब्रोमीन की अपेक्षा थोड़ा ज्यादा होता है । इसी प्रकार से मैग्नीशियम का परमाणु भार भी उसके प्रािप्त् स्थल पर निर्भर करता है ।
तो ऐसे मामलों की निर्णायक समिति अंतर्राष्ट्रीय शुद्ध व प्रयुक्त रसायन संघ ने फैसला किया कि ब्रोमीन, मैग्नीशियम वगैरह के परमाणु भारों को एक अंक के रूप में नहीं बल्कि एक रेंज के रूप में लिखा जाए । तो ब्रोमीन का परमाणु भार ७९९०४ की बजाए (७९९०१-७९९०७) हो गया और मैग्नीशियम का परमाणु भार २४,३०५० की बजाए २४३०४-२४-३०७हो गया ।
अभी इन दो तत्वों पर फैसला हो ही रहा था कि जर्मेनियम, इंडियम, पारे जैसे तत्वों के परमाणु भारों में भी विविधता पाई गई । तो अब परमाणु भारों को लेकर नए सिरे से खोजबीन शुरू हो गई है और संभवत: हम देखेंगे कि सारे तत्वों के परमाणु भार रेंज में प्रस्तुत होने लगेगे। परमाणु भार संबंधी रिपोर्ट के लेखक कोप्लेन का कहना है कि अगस्त में होने वाली अंतर्राष्ट्रीय संघ की बैठक में शायद कई तत्वों के परमाणु भार बदलेंगे ।
मरीज अस्पतालों में सूक्ष्मजीव छाप छोड़ते हैं
जब लोग अस्पतालों में इलाज के लिए जाते हैं तो उनके शरीर पर उपस्थित सूक्ष्मजीव इलाज के स्थान पर फैल जाते हैं । कई सालों तक युनिवर्सिटी ऑफ शिकैगोहॉस्पिटल में सूक्ष्मजीवों और रोगजनकों की निगरानी के बाद यह निष्कर्ष प्राप्त् हुआ है ।
सारे तत्वों के कई समस्थानिक होते हैं मगर वे अस्थिर होते हैं - उनमें रेडियोधर्मी विखंडन होता है । मगर कुछ तत्वों के समस्थानिक स्थिर होते हैं । समस्थानिक का मतलब है कि वे सारे परमाणु एक ही तत्व के हैं मगर उनके केन्द्रक में न्यूट्रॉनों की संख्या अलग-अलग होने की वजह से उनके परमाणु भार अलग-अलग हैं । इसके कारण परमाणु भार ज्ञात करना आसान नहीं होता । खासकर काफी सटीक विश्लेषण से पता चला है कि धरती पर अलग-अलग स्थानों पर तत्वों में समस्थानिकों का अनुपात अलग-अलग होता है । इस वजह से परमाणु भार भी अलग-अलग निकलते हैं ।
जैसे ब्रोमीन नामक तत्व के दो स्थिर समस्थानिक पाए जाते हैं । दोनों लगभग बराबर अनुपात में पाए जाते हैं । मगर विश्लेषण से पता चला कि अलग-अलग जगहों पर यह वितरण एक समान नहीं है । समुद्री पानी या लवणों से प्राप्त् ब्रोमीन का परमाणु भार कार्बनिक पदार्थो से प्राप्त् ब्रोमीन की अपेक्षा थोड़ा ज्यादा होता है । इसी प्रकार से मैग्नीशियम का परमाणु भार भी उसके प्रािप्त् स्थल पर निर्भर करता है ।
तो ऐसे मामलों की निर्णायक समिति अंतर्राष्ट्रीय शुद्ध व प्रयुक्त रसायन संघ ने फैसला किया कि ब्रोमीन, मैग्नीशियम वगैरह के परमाणु भारों को एक अंक के रूप में नहीं बल्कि एक रेंज के रूप में लिखा जाए । तो ब्रोमीन का परमाणु भार ७९९०४ की बजाए (७९९०१-७९९०७) हो गया और मैग्नीशियम का परमाणु भार २४,३०५० की बजाए २४३०४-२४-३०७हो गया ।
अभी इन दो तत्वों पर फैसला हो ही रहा था कि जर्मेनियम, इंडियम, पारे जैसे तत्वों के परमाणु भारों में भी विविधता पाई गई । तो अब परमाणु भारों को लेकर नए सिरे से खोजबीन शुरू हो गई है और संभवत: हम देखेंगे कि सारे तत्वों के परमाणु भार रेंज में प्रस्तुत होने लगेगे। परमाणु भार संबंधी रिपोर्ट के लेखक कोप्लेन का कहना है कि अगस्त में होने वाली अंतर्राष्ट्रीय संघ की बैठक में शायद कई तत्वों के परमाणु भार बदलेंगे ।
मरीज अस्पतालों में सूक्ष्मजीव छाप छोड़ते हैं
जब लोग अस्पतालों में इलाज के लिए जाते हैं तो उनके शरीर पर उपस्थित सूक्ष्मजीव इलाज के स्थान पर फैल जाते हैं । कई सालों तक युनिवर्सिटी ऑफ शिकैगोहॉस्पिटल में सूक्ष्मजीवों और रोगजनकों की निगरानी के बाद यह निष्कर्ष प्राप्त् हुआ है ।
यह रिसर्च अस्पताल के शुरू होने से पहले शुरू हुई थी और अस्पताल खुलने के बाद पूरे एक साल तक चली । शोधकर्ता शिकैगो में स्थित सेंटर फॉर केयर एण्ड डिस्करवरी अस्पताल के शुरू होने से पहले तक हर हफ्ते लाइट के स्विच, फर्श, पानी के सिस्टम और दूसरी जगहों से जेनेटिक मटेरियल इकट्ठा किया करते थे ताकि सूक्ष्मजीव निवासियों की पहचान की जा सके । जब अस्पताल शुरू हुआ तब भी शोधकर्ताआें ने नमूने लेना जारी रखा, ये नमूने मरीजों की नाक, बगल, हाथों आदि से लिए जाते थे । शोधकर्ता रोज इन नमूनों को अपने स्तर पर जांचते भी थे ।
इस टीम ने लगभग ४५०० नमूने लिए मगर ६०० का ही विश्लेषण हो पाया है । प्रारंभिक परिणामों से पता चला है कि अस्पताल शुरू होते ही कितनी जल्दी सूक्ष्मजीव समुदाय में बदलाव शुरू हो गया था । इस शोध के प्रमुख जैक गिलबर्ट का मत है कि मनुष्यों की वजह से सूक्ष्मजीव समुदाय में बदलाव बहुत तेजी से होते हैं ।
नमूनों के डीएनए इकट्ठा करने के क्रम में गिलबर्ट और उनकी टीम ने लगभग ७०,००० प्रकार के सूक्ष्मजीवों की पहचान की । ये सूक्ष्मजीव हवा, पानी, निर्माण सामग्री और मजदूरों के साथ आए थे । अस्पताल शुरू होने के साथ ही मरीजों और स्टॉफ के लोगों के जूतों और त्वचा के जरिए नए सूक्ष्मजीव दाखिल हुए, जिससे इस अदृश्य इकोतंत्र में फेरबदल हुआ ।
गिलबर्ट और उनकी टीम ने अस्पताल के कमरों में सूक्ष्मजीव समुदाय में महत्वपूर्ण बदलाव देखे । जो मरीज केवल कुछ समय के लिए अस्पताल में भर्ती हुए उन्होनें अस्थाई प्रभाव छोड़ा । और यह प्रभाव अस्पताल के कमरे को साफ करने पर खत्म हो गया । लेकिन लंबी बीमारी से ग्रसित मरीजों के सूक्ष्मजीवों को वहां बसने के लिए लंबा समय मिला और कमरे की सफाई के बावजूद ये सूक्ष्मजीव वहींबने रहे ।
मगर टीम को उस क्षेत्र में लंबे समय तक जीवित रहने वाले रोगजनक सूक्ष्मजीव नहीं मिले हैं । मगर अभी यह अध्ययन सिर्फ चार माह चला है । यूएस के अस्पतालों में हर साल लगभग १७० लाख अस्पताल-जनित संक्रमण होते हैं । ये सूक्ष्मजीव कहीं से तो आते होंगे । हो सकता है कि देर सबेर हानिकारक सूक्ष्मजीव इस नए अस्पताल में भी डेरा जमा लेंगे । इस प्रोजेक्ट के परिणामों में अस्पताली सूक्ष्मजीवों के कार्यकरने की झलक नजर आती है । लेकिन थॉमस श्मिट का कहना है कि इसके लिए और शोध की जरूरत है ।
इस टीम ने लगभग ४५०० नमूने लिए मगर ६०० का ही विश्लेषण हो पाया है । प्रारंभिक परिणामों से पता चला है कि अस्पताल शुरू होते ही कितनी जल्दी सूक्ष्मजीव समुदाय में बदलाव शुरू हो गया था । इस शोध के प्रमुख जैक गिलबर्ट का मत है कि मनुष्यों की वजह से सूक्ष्मजीव समुदाय में बदलाव बहुत तेजी से होते हैं ।
नमूनों के डीएनए इकट्ठा करने के क्रम में गिलबर्ट और उनकी टीम ने लगभग ७०,००० प्रकार के सूक्ष्मजीवों की पहचान की । ये सूक्ष्मजीव हवा, पानी, निर्माण सामग्री और मजदूरों के साथ आए थे । अस्पताल शुरू होने के साथ ही मरीजों और स्टॉफ के लोगों के जूतों और त्वचा के जरिए नए सूक्ष्मजीव दाखिल हुए, जिससे इस अदृश्य इकोतंत्र में फेरबदल हुआ ।
गिलबर्ट और उनकी टीम ने अस्पताल के कमरों में सूक्ष्मजीव समुदाय में महत्वपूर्ण बदलाव देखे । जो मरीज केवल कुछ समय के लिए अस्पताल में भर्ती हुए उन्होनें अस्थाई प्रभाव छोड़ा । और यह प्रभाव अस्पताल के कमरे को साफ करने पर खत्म हो गया । लेकिन लंबी बीमारी से ग्रसित मरीजों के सूक्ष्मजीवों को वहां बसने के लिए लंबा समय मिला और कमरे की सफाई के बावजूद ये सूक्ष्मजीव वहींबने रहे ।
मगर टीम को उस क्षेत्र में लंबे समय तक जीवित रहने वाले रोगजनक सूक्ष्मजीव नहीं मिले हैं । मगर अभी यह अध्ययन सिर्फ चार माह चला है । यूएस के अस्पतालों में हर साल लगभग १७० लाख अस्पताल-जनित संक्रमण होते हैं । ये सूक्ष्मजीव कहीं से तो आते होंगे । हो सकता है कि देर सबेर हानिकारक सूक्ष्मजीव इस नए अस्पताल में भी डेरा जमा लेंगे । इस प्रोजेक्ट के परिणामों में अस्पताली सूक्ष्मजीवों के कार्यकरने की झलक नजर आती है । लेकिन थॉमस श्मिट का कहना है कि इसके लिए और शोध की जरूरत है ।
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