जीव जगत
मच्छरों का दुश्मन चमगादड़
नरेन्द्र देवांगन
मच्छरों के काटनेसे होने वाले बुखार का दौर देश भर में चलता ही रहता है । जैसे सामान्य मलेरिया, मेनेन्जाइटिस, घातक मलेरिया से ले कर चिकनगुनिया, डेंगू, जापानी एंसेफेलाइटिस और वायरल एंसेफ्लाइटिस तक । मच्छरों द्वारा फैलने वाली इन बीमारियों में प्रति वष्र कितनी ही जानें चली जाती हैं । हर साल देश भर में कहीं न कहीं मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों का कहर बरपता ही है । तब सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं आम लोगों को यह बताने की जहमत उठाती है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए । इससे बचाव के क्या उपाय हैं, घरेलू चिकित्सा क्या हैं ? इसके अलावा स्थानीय प्रशासन द्वारा कुछ दवाआें का वितरण कर दिया जाता है । कचरे की सफाई, जमा हुए पानी में एकाध बार कीटनाशक का छिड़काव का छुट्टी पा ली जाती है ।
अब वह समय आ गया है कि हम इन उपायों से अलग और भी कुछ सोचें, क्योंकि अब कीटनाशक का भी फायदा नहीे रहा । बाजार में जितनी तरह के कीटनाशक उपलब्ध हैं, उनका हमारी सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ता है । मच्छर बाजार में मिलने वाले क्वाइल और मॉस्किटो रेपलेंट के आदी हो गए हैं । रही बात मच्छरदानी के इस्तेमाल की तो इससे हम रात के वक्त तो बच सकते हैं लेकिन दिन के वक्त नहीं । इसलिए अब हमें कुछ ऐसा करना होगा कि मच्छरों का ही खात्मा हो जाए ।
कीटनाशक और साफ-सफाई के अलावा मच्छरों के समूल नाश का कोई उपाय क्या ? जरूर है, इन मच्छरों से हमें निजात दिलाएंगे चमगादड़, क्योंकि मच्छरों के लिए चमगादड़ काल समान हैं । लेकिन हमारे पर्यावरण के लिए यह बड़ी चिंता का विषय है कि चमगादड़ों की तादाद दुनिया भर में घटती जा रही है । कुछ पर्यावरणविदों का मानना है कि समय रहते ठोस कदम उठा कर चमगादड़ों को बचाने के काममें जुट जाना चाहिए ।
पर्यावरण संतुलन में इन चमगादड़ों की बड़ी भूमिका है, इसमें कोई शक नहीं । साथ ही यह भी सच है कि मच्छरों से होने वाली बीमारियां लौट कर वापस आ गई हैं तो इसके पीछे चमगादड़ों की घटती तादाद का एक बड़ा कारण है । सिर्फ मच्छर ही नहीं, खेत-खलिहानों को नुकसान पहुंचाने वाले छोटे-मोटे कीड़े मकोड़ों को भी चट कर ये चमगादड़ बड़ा उपकार करते हैं ।
इसलिए विश्वख्यिात पर्यावरणविद् पीटर रूमल ने २००९ में चमगादड़ों को बचाने की मुहिम में जुट जाने की सिफारिश की थी । उनका कहना था कि एक अदद चमगादड़ एक रात मेंे कम से कम २५०० मच्छरों को खाता है । इसके अलावा हवा में घूमने वाले छोटे-मोटे कीड़े मकोड़ों को भी खाकर चमगादड़ पर्यावरण की रक्षा करता है । अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में हो रहे एक शोध से पता चला है कि चमगादड़ों की एक बस्ती रात भर में १५० टन से भी ज्यादा मच्छर और कीट-पंतगों का सफाया कर देती हैं । शोधकर्मियों ने बड़ी-बड़ी गुफाआें में चमगादड़ों की बस्तियों का पता लगाया है । उन गुफाआें में प्राकृतिक जीवन चक्र चलता रहता है । ये गुफाएं पर्यावरण संतुलन की एक अच्छी मिसाल बनी हुई हैं ।
लेकिन विडंबना यह है कि आजकल चमगादड़ नजर ही नहीं आते हैं । वजह यही है कि हमारे समाज ने चमगादड़ों को अशुभ करार दे दिया है और अंधविश्वास के चलते बड़ी संख्या में चमगादड़ों का संहार कर दिया गया है । अब भी यह क्रम जारी है । इसके अलावा कुछ जगहों पर चमगादड़ का मांस खाने का भी चलन है । मान्यता यह है कि चमगादड़ का मांस यौन शक्ति बढ़ाने में भी काफी मददगार है ।
जहां तक चमगादड़ के स्वभाव का सवाल है तो यह एकमात्र उड़ने वाला स्तनपायी बड़ा ही निरीह है । आदमी की परछाई से भी दूर रहता है, पर इंसान है कि इनका दुश्मन बन गया है । कुछ अंधविश्वास के चलते तो कुछ अनजाने डर की वजह से । और इन दोनों ही वजहों के पीछे कुछ मिथक काम करते हैं जबकि इन मिथकों में सच्चई बिलकुल नहीं होती । इन्हीे अंधविश्वासों के चलते हॉलीवुड में वैंपायर को लेकर कई फिल्में बनीं और चमगादड़ों का नाम ही वैंपायर पड़ गया ।
दुनिया भर में चमगादड़ों की ११०० प्रजातियां हैं जिनमें से महज तीन प्रजातियां वैंपायर यानी खून चूसने वाली हैं । ये भी इंसान का खून नहीं बल्कि समुद्री मुर्गी, बत्तख, सुअर, कुत्ते, घोड़ों और बिल्लियों का खून पीते हैं । बाकी सारी प्रजातियों के चमगादड़ कीड़े-मकोड़े, फल, मेंढक, मछली और फूलों का पराग भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं । कीड़े-मकोड़े खाने वाले चमगादड़ रात को हमारी फसलों की रक्षा करते हैं वहीं जंगल के संरक्षण मेंभी इनकी बड़ी भूमिका होती है । फल खाने वाले चमगादड़ों की वजह से फलों के बीज जंगलों में नए पेड़-पौधे उगाते हैं । बताया जाता है कि ९५ फीसदी वर्षा वन का संरक्षण इन्हीं चमगादड़ों की वजह से होता है ।
चमगादड़ को लेकर दूसरा मिथक यह भी है कि इन्हें दिखता कम है जबकि सच्चई यह है कि ज्यादातर चमगादड़ अंधे नहीं होते । कुछ चमगादड़ तो कम से कम रोशनी में भी देख पाते हैं । तीसरा मिथक चमगादड़ के बालों में उलझने का है । महिलाएं इससे बहुत ज्यादा आतंकित होती हैं । अगर चमगादड़ कभी किसी इंसान की ओर बढ़ते हैं तो इंसान पर हमला करना उनकी मंशा नहीं बल्कि उसके आसपास उड़ रहे मच्छर खाना उनका लक्ष्य होता है । कारण, चमगादड़ों में प्रतिध्वनि के आधार पर काम करने वाला सिस्टम होता है, जो कि सोनार सिस्टम कहलाता है इस सिस्टम की वजह से चमगादड़ अपनी आवाज के मच्छरों तथा अन्य कीड़े-मकोड़ों से टकराकर आने वाली प्रतिध्वनि की मदद से आहार ढूंढते हैं ।
यह अलग बात है कि घायल चमगादड़ अपनी आत्मरक्षा के लिए किसी पर भी हमला कर सकते हैं । इसीलिए इंसानों पर चमगादड़ के हमलों की कुछ घटनाएं सामने आई हैं । विशेषज्ञों की राय में चमगादड़ अगर हमला करते भी हैं तो आत्मरक्षा में ही करते हैं ।
चमगादड़ों के लेकर ऐसी बहुत सारी भ्रांतियां है । इन्हीं में एक यह भी है कि चमगादड़ का मांस यौन क्षमता को बढ़ाने वाला है । यह भ्रांति भी चमगादड़ों के लिए खतरा बन गई है । जाल के जरिए एक-एक आदमी एक दिन में १००-१०० चमगादड़ों का शिकार करता है । सिर्फ पूर्वोत्तर भारत में ही नहीं, थाईलैंड, बाली, इंडोनेशिया में बड़े पैमाने पर स्वाद और यौन क्षमता बढ़ाने के लिए चमगादड़ खाए जाते हैं जबकि चमगादड़ के मांस में यौन क्षमता बढाने जैसा कोई वैज्ञानिक तत्व अब तक नहीं पाया गया है ।
चमगादड़ों के संरक्षण के लिए हम कुछ कदम आगे बढ़े हैं । बंगाल के दूरदराज गांवों में अब इसकी जरूरत समझ में आ गई है और बंगाल से बहुत से जिलों में चमगादड़ों को बचाने के लिए गांव वालों में जागरूकता भी देखी जा रही है । बड़ी बात यह है कि इस काम में गांव की महिलाएं सबसे आगे हैं । नदिया जिले की चुन्नीबाला भी ऐसी ही एक महिला हैं, जिन्होंने पर्यावरण के लिए चमगादड़ों की जरूरत को अच्छी तरह जान लिया है और अपने गांव में इसके लिए मुहिम शुरू कर दी है । कबूतरखाने की तरह चमगादड़ के लिए घर बना कर वे इनके संरक्षण के काम में जुटी हुई हैं । वे बताती हैं कि शुरूआत में लोग उनकी बातों पर खास ध्यान नहीं देते थे लेकिन अब ऐसा नहीं करते । चुन्नीबाला कहती हैं, हमारे गांव के लोग चमगादड़ का मांस बड़े चाव से खाते थे । शाम होते ही कुछ लोग चमगादड़ पकड़ने निकल जाते थे । इस तरह हर रोज बड़ी संख्या मे चमगादड़ मारे जाते थे । यह चिंता का विषय है कि चमगादड़ के शिकार पर किसी तरह की रोक नहीं है न ही कोई कानून अब तक बना है । इसी कारण इनकी तादाद तेजी से घटती जा रही है, लेकिन अभी तक इन्हें दुर्लभ प्राणियों की श्रेणी में नहीं रखा गया है ।
वन्य प्राणी विशेषज्ञों का मानना है कि चमगादड़ों की प्रजनन क्षमता बहुत ही धीमी है । मादा चमगादड़ साल में एक, कभी-कभी दो चमगादड़ ही पैदा करती है और प्रकृति द्वारा इन्हें २५-४० साल की उम्र प्रदान की गई है । इस तरह एक चमगादड़ के मारे जाने का अर्थ भविष्य में सैकड़ों चमगादड़ों के मारे जाने के बराबर है ।
अमरीका के एक वैज्ञानिक डॉ. कांबले ने अपने १४ साल के प्रयोग के आधार पर बताया है कि चमगादड़ मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों के दुश्मन हैं । इसीलिए दुनिया भर से मलेरिया के समूल नाश के लिए चमगादड़ पालन पर जोर दिया जाना चाहिए । उनका मानना है कि चमगादड़ की एक प्रजाति का एक अकेला चमगादड़ तीन हजार से भी ज्यादा मच्छर एक घंटे में चट कर जाता है । डॉ. कांबले कहते हैं कि चमगादड़ उड़ने वाले कीड़े-मकोड़ों की आबादी पर रोक लगाने का काम बखूबी करता है । जहां मच्छरों की तादाद बहुत अधिक है वहां भूरे रंग की प्रजाति का चमगादड़ एक घंटे में कम से कम ६०० और ज्यादा से ज्यादा १२०० से भी अधिक मच्छरों को खा जाता है । भूरे रंग का चमगादड़ तीन हजार से ज्यादा मच्छर एक घंटे में खा जाता है । इसी कारण वैज्ञानिकों की सिफारिश को तरजीह देते हुए अमरीका के हर शहर में बैट हाउस तैयार कर चमगादड़ पालन का काम शुरू हो गया है ।
बताया जाता है कि टेक्सास में चमगादड़ों की बाकायदा एक कॉलोनी है । यही नहीं, मच्छरों के हमले से बेहाल ब्रिटेन में बैट कंजर्वेशन ट्रस्ट की स्थापना १९९० में की गई । यह गैर सरकारी संस्था पश्चिमी दुनिया में चमगादड़ को बचाने को लेकर आम लोगों में जागरूकता फैला रही है ।
जहां तक भारत का सवाल है, यहां कुछ ठोस नहीं हो रहा है । अंडमान-निकोबार में चमगादड़ों पर काफी शोधकार्य जरूर चल रहा है लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं । भारत की मुख्य भूमि अब तक अधिकांशत: अज्ञान के अंधकार मेंजा रही है ।
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