बाल जगत
स्तनपान बनाम मिल्क बैंक
चिन्मय मिश्र
कोई विषय अपने आप में इतना संवेदनशील होता है कि उस पर कमोवेश भावनात्मक अभिव्यक्ति करने की परंपरा सी बन जाती है । अपनी सुकोमलता की वजह से सामाजिक व सांस्कृतिक तौर पर उस विषय पर समीक्षात्मक टिप्पणी करना भी अत्यंत दुष्कर हो जाता है । ऐसा ही एक विषय है, माता द्वारा बच्चे को स्तनपान करवाना ! भारत सरकार युनिसेफ के साथ मिलकर प्रतिवर्ष स्तनपान सप्ताह मनाती है । इस दौरान धात्रियों व दूध पिलाने वाली माताओं को अनेक सलाहें दी जाती है । इस पूरे अभियान से आशय ``मां का दूध`` बच्चंे के लिए कितना लाभकारी है तथा जन्म के पहले घंटे में मां द्वारा बच्चे को स्तनपान पर अत्यधिक जोर देना होता है । इस पूरे विचार में कहीं कोई खामी भी नजर नहीं आती ।
स्तनपान बनाम मिल्क बैंक
चिन्मय मिश्र
कोई विषय अपने आप में इतना संवेदनशील होता है कि उस पर कमोवेश भावनात्मक अभिव्यक्ति करने की परंपरा सी बन जाती है । अपनी सुकोमलता की वजह से सामाजिक व सांस्कृतिक तौर पर उस विषय पर समीक्षात्मक टिप्पणी करना भी अत्यंत दुष्कर हो जाता है । ऐसा ही एक विषय है, माता द्वारा बच्चे को स्तनपान करवाना ! भारत सरकार युनिसेफ के साथ मिलकर प्रतिवर्ष स्तनपान सप्ताह मनाती है । इस दौरान धात्रियों व दूध पिलाने वाली माताओं को अनेक सलाहें दी जाती है । इस पूरे अभियान से आशय ``मां का दूध`` बच्चंे के लिए कितना लाभकारी है तथा जन्म के पहले घंटे में मां द्वारा बच्चे को स्तनपान पर अत्यधिक जोर देना होता है । इस पूरे विचार में कहीं कोई खामी भी नजर नहीं आती ।
लेकिन आधुनिकता और प्रचार के इस नए युग ने नई चुनौतियां प्रस्तुत की हैं । ``मां का दूध`` कब बहुत सीमित मात्रा में ही सही लेकिन ``स्त्री के दूध`` में बदल गया और बच्चे को पिलाने के अलावा आइस्क्रीम बनाने जैसे काम में आने लगा, पता ही नहीं चला ! अठारहवीं शताब्दी की धाय या वेट नर्स रखने की परंपरा कैसे विश्व के अनेक हिस्सों में पुन: अवतरित हो गई, मालूम ही नही पड़ा । मां का दूध भी आज व्यावसायिकता के फेर में है ।
मां के दूध पर आक्रमण का यह पहला मौका नहीं है । ऐसी कोशिशें पिछले २०० वर्षों से भी अधिक समय से चल रही हैं । वैसे इसकी शुरुआत सदइच्छा से हुई थी । मानवीय दूध का विकल्प ढूंढने के सबसे शुरुआती प्रमाण सन् १८०० में मिलते है । लेकिन तब इसका उद्देश्य बीमार व कमजोर बच्चें को बचाना था । उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में बोतल से दूध पिलाने ने शिशु आहार विकल्पों की खोज का मार्ग और प्रशस्त किया । वैसे कहा जाता है कि पुराने समय के रसायनशास्त्री पत्थर को सोना बनाने का दावा करते थे । आजकल के रसायनशास्त्री मां के दूध जैसा कृत्रिम दूध बनाने का दावा करते हैं । लेकिन मानव (स्त्री) दूध अप्रतिम है ।
वैसे भी कम आय वाले देशों में स्तनपान सामान्य बात है । ग्रामीण इलाकों में तो इसे लेकर कोई संशय ही नहीं था । इसी बीच वैकल्पिक आहार बेचने वालों ने एक नारा दिया ``शहरी महिला अब आधुनिक हो सकती है ।`` यानि स्तनपान से मुक्ति । शहरों में या शहरी महिलाओं ने इसका चाहे जो प्रभाव पड़ा हो, लेकिन इस प्रचार से प्रभावित होकर एक समय अफ्रीकी देश नाइजीरिया की ८७ प्रतिशत माताएं अपने बच्चें को कृत्रिम दूध देने लग गई थी, क्योंकि इसी दौर में एक ओर विज्ञापनी नारा जोर पर था, ``जहां स्तनपान असफल वहां लेक्टोजेन अपनाएं ।`` जाहिर है कि असफलता को सफलता के बदलने में श्रम लगता उसके स्थान पर लेक्टोजेन अपना लिया गया और नेस्ले जो कि लेक्टोजेन बनाती है, आज भी दुनिया की पोषण नीति की प्रमुख कर्णधार बनी हुई है ।
मां के दूध के विकल्प को पुन: मान्यता मिलने की प्रक्रिया भी कम रोचक नहीं है । दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बच्चें को बोतल से दूध पिलाना ``सामान्य`` हो गया । अमेरिका के आंकड़ों पर गौर करने से पता चलता है कि अस्पतालों में प्रसव के बाद मां द्वारा बच्चें को दूध पिलाने में १९४६ से १९५६ तक की अवधि में ५० प्रतिशत की कमी आई थी । सन् १९६७ में तो मात्र २५ महिलाएं ही बच्चें को स्तनपान करा रही थीं । वहीं दूसरी तरफ इसके ठीक विपरीत पूर्वी यूरोप जिसमें कि साम्यवादी शासन स्थापित हुआ वहां स्थितियां कुछ और ही थीं । तत्कालीन पूर्वी जर्मनी में महिलाएं अस्पताल में बच्चें के इस्तेमाल हेतु अपना दूध दान देती रहीं और सन् १९८९ में वहां कुल मिलाकर २ लाख लीटर दूध इकट्ठा हुआ था। इसी दौरान स्केडेवियन देशों स्वीडन और डेनमार्क में ``दूध रसोई`` (मिल्क कि चन) के नाम से कार्य शुरू हुआ । स्वीडन में मां से पहले तीन महीने का दूध लिया जाता था और बदले में २१ डॉलर प्रति लीटर का भुगतान किया जाता था। धीरे-धीरे अमेरिका में भी काफी ``मिल्क बैंक`` खुल गए । वहां अभी ऐसे ८ बैंक संचालित हैं । एचआईवी के फैलने के बाद बड़ी संख्या में ऐसे बैंक बंद भी हुए । भारत में भी उदयपुर में ऐसा बैंक अभी प्रारंभ हुआ है ।
दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका की स्मृतियों से बाहर आने के लिए बाजार की आक्रामकता और एकाधिकार पर जोर दिया जाने लगा । युद्ध से जीतना एक श्रमसाध्य प्रक्रिया है और इसमें जीतने वाले की भी हानि तो होती ही है। ऐसे में व्यापार को युद्ध का पर्याय बना दिया गया । संयुक्त राष्ट्र संघ भी तब अपना महत्व स्थापित करने की प्रक्रिया में था। स्वतंत्रता की नई बयार सारी दुनिया में छाई थी । इसी बीच सन् १९६० के दशक के आरंभ में यूनिसेफ ने कुपोषित बच्चें के स्वास्थ्य लाभ हेतु डिब्बा बंद दूध का वितरण (मुफ्त) प्रारंभ कर दिया । वह वैश्विक तौर पर प्रतिवर्ष करीब २० लाख पौंड डिब्बा बंद पाउडर दूध बाटता था । इसके परिणामस्वरूप तीसरी दुनिया की माताएं अस्पतालों की ओर आकर्षित हुई और पूरी दुनिया एक नई राह पर चल पड़ी ।
स्तनपान कम हो जाने की वजह से शिशु मृत्यु दर में एकाएक तेजी आने लगी । सभी ओर खलबली सी मच गई । विकसित देश भी इस विभीषिका से बच नहीं पाए । इसी बीच सन् १९७९ में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने करीब १०० देशों के सर्वेक्षण में पाया कि वहां ५० ब्रांडेड एवं २०० प्रकार के अन्य वैकल्पिक शिशु आहार बेचे जा रहे हैं । इसी के बाद परिवर्तन प्रारंभ हुआ । वैसे इसके पहले सन् १९७४ में ब्रिटिश चैरिटी में वैकल्पिक शिशु आहार को लेकर एक लेख ``दि बेबी किलर`` (बच्चें के हत्यारे) प्रकाशित हो चुका था । संघर्ष चलता रहा और दूध का विकल्प बनाने वाली कंपनियां अपनी तरह से इसका विरोध करती रहीं ।
अंतत: सन् १९८० में विश्व स्वास्थ्य संग न ने पहल की और सन् १९८१ में विश्व स्वास्थ्य असेंबली ने विकल्पों पर विचार क र विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं यूनिसेफ के माध्यम से स्तनपान के विकल्पों को अनुशासित करने हेतु आचार संहिता निर्माण हेतु मतदान करवाया । जेनेवा में हुए इस सम्मेलन में ११८ देशों ने इसके पक्ष में मत दिया, ३ अनुपस्थित रहे और अमेरिका एकमाात्र देश था जिसने इसका विरोध किया था । स्वीकृति के ३ वर्षों के भीतर १३० देशों ने इसे स्वीकार किया और अंतत: १९९२ में भारत ने भी शिशु दूध विकल्प अधिनियम पारित कर दिया।
भविष्य को बचाने वाले इस सैद्धांतिक युद्ध के नायक और खलनायक दोनों ही हमारे सामने हैं । लेकिन प्रत्येक समय की अपनी चुनौतियां भी होती हैं । मां के दूध के व्यावसायिक रण के माध्यम से स्त्री के दूध में बदलने की कोशिश प्रारंभ कर दी गई जैसे कि वह गाय जैसी कोई पृथक जैवीय पहचान हो । अमेरिका में छोटे पैमाने पर लेकिन चीन के कुछ हिस्सों में बड़े पैमाने पर महिलाओं को बच्चें को दूध पिलाने की ``नौक री`` पर रखा जाने लगा है । इससे उनके अपने बच्चें के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है । यह बीमारी मुंबई एवं गोवा के रास्ते भारत में भी प्रवेश क र गई है ।
दूसरी बड़ी चुनौती सरोगेसी से पैदा हुए बच्चे और उन्हें जन्म देने वाली माताओं की है । जिन महिलाओं से उनकी कोख कि राए पर ली जाती है, उनसे कि ए गए समझौते क ी शर्त होती है कि वह बच्च अपनी जैव माता के संपर्क में कभी नहीं आएगा यानि उसे जीवन में क भी भी मां का दूध नहीं मिलेगा। वहीं दूसरी ओर हम दावा क र रहे हैं कि स्तनपान बच्चे क ा अधिक ार है । एक अन्य समस्या बढ़ते सिजेरियन प्रसव से भी पैदा हो रही है । इससे क ई बच्चें को जन्म के पहले घंटे में दूध नहीं मिलता । वहीं दूसरी ओर अनावश्यक आपरेशन पर भी रोक नहीं लग रही है । ऐसे वैज्ञानिक प्रमाण भी हमारे सामने आ रहे हैं । वातावरण में बढ़ रहे प्रदूषण से मां क ा दूध भी प्रदूषित हो रहा है । ऐसी नई चुनौतियों से सामना क रना आज क ी महती आवश्यक ता भी है ।
लेकि न इस सबके बीच सुकून पहुंचाने वाली खबर यह है कि फिनलैंड के ९५ प्रतिशत शिशु अपनी मां क ा दूध पी रहे हैं ।
मां के दूध पर आक्रमण का यह पहला मौका नहीं है । ऐसी कोशिशें पिछले २०० वर्षों से भी अधिक समय से चल रही हैं । वैसे इसकी शुरुआत सदइच्छा से हुई थी । मानवीय दूध का विकल्प ढूंढने के सबसे शुरुआती प्रमाण सन् १८०० में मिलते है । लेकिन तब इसका उद्देश्य बीमार व कमजोर बच्चें को बचाना था । उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में बोतल से दूध पिलाने ने शिशु आहार विकल्पों की खोज का मार्ग और प्रशस्त किया । वैसे कहा जाता है कि पुराने समय के रसायनशास्त्री पत्थर को सोना बनाने का दावा करते थे । आजकल के रसायनशास्त्री मां के दूध जैसा कृत्रिम दूध बनाने का दावा करते हैं । लेकिन मानव (स्त्री) दूध अप्रतिम है ।
वैसे भी कम आय वाले देशों में स्तनपान सामान्य बात है । ग्रामीण इलाकों में तो इसे लेकर कोई संशय ही नहीं था । इसी बीच वैकल्पिक आहार बेचने वालों ने एक नारा दिया ``शहरी महिला अब आधुनिक हो सकती है ।`` यानि स्तनपान से मुक्ति । शहरों में या शहरी महिलाओं ने इसका चाहे जो प्रभाव पड़ा हो, लेकिन इस प्रचार से प्रभावित होकर एक समय अफ्रीकी देश नाइजीरिया की ८७ प्रतिशत माताएं अपने बच्चें को कृत्रिम दूध देने लग गई थी, क्योंकि इसी दौर में एक ओर विज्ञापनी नारा जोर पर था, ``जहां स्तनपान असफल वहां लेक्टोजेन अपनाएं ।`` जाहिर है कि असफलता को सफलता के बदलने में श्रम लगता उसके स्थान पर लेक्टोजेन अपना लिया गया और नेस्ले जो कि लेक्टोजेन बनाती है, आज भी दुनिया की पोषण नीति की प्रमुख कर्णधार बनी हुई है ।
मां के दूध के विकल्प को पुन: मान्यता मिलने की प्रक्रिया भी कम रोचक नहीं है । दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बच्चें को बोतल से दूध पिलाना ``सामान्य`` हो गया । अमेरिका के आंकड़ों पर गौर करने से पता चलता है कि अस्पतालों में प्रसव के बाद मां द्वारा बच्चें को दूध पिलाने में १९४६ से १९५६ तक की अवधि में ५० प्रतिशत की कमी आई थी । सन् १९६७ में तो मात्र २५ महिलाएं ही बच्चें को स्तनपान करा रही थीं । वहीं दूसरी तरफ इसके ठीक विपरीत पूर्वी यूरोप जिसमें कि साम्यवादी शासन स्थापित हुआ वहां स्थितियां कुछ और ही थीं । तत्कालीन पूर्वी जर्मनी में महिलाएं अस्पताल में बच्चें के इस्तेमाल हेतु अपना दूध दान देती रहीं और सन् १९८९ में वहां कुल मिलाकर २ लाख लीटर दूध इकट्ठा हुआ था। इसी दौरान स्केडेवियन देशों स्वीडन और डेनमार्क में ``दूध रसोई`` (मिल्क कि चन) के नाम से कार्य शुरू हुआ । स्वीडन में मां से पहले तीन महीने का दूध लिया जाता था और बदले में २१ डॉलर प्रति लीटर का भुगतान किया जाता था। धीरे-धीरे अमेरिका में भी काफी ``मिल्क बैंक`` खुल गए । वहां अभी ऐसे ८ बैंक संचालित हैं । एचआईवी के फैलने के बाद बड़ी संख्या में ऐसे बैंक बंद भी हुए । भारत में भी उदयपुर में ऐसा बैंक अभी प्रारंभ हुआ है ।
दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका की स्मृतियों से बाहर आने के लिए बाजार की आक्रामकता और एकाधिकार पर जोर दिया जाने लगा । युद्ध से जीतना एक श्रमसाध्य प्रक्रिया है और इसमें जीतने वाले की भी हानि तो होती ही है। ऐसे में व्यापार को युद्ध का पर्याय बना दिया गया । संयुक्त राष्ट्र संघ भी तब अपना महत्व स्थापित करने की प्रक्रिया में था। स्वतंत्रता की नई बयार सारी दुनिया में छाई थी । इसी बीच सन् १९६० के दशक के आरंभ में यूनिसेफ ने कुपोषित बच्चें के स्वास्थ्य लाभ हेतु डिब्बा बंद दूध का वितरण (मुफ्त) प्रारंभ कर दिया । वह वैश्विक तौर पर प्रतिवर्ष करीब २० लाख पौंड डिब्बा बंद पाउडर दूध बाटता था । इसके परिणामस्वरूप तीसरी दुनिया की माताएं अस्पतालों की ओर आकर्षित हुई और पूरी दुनिया एक नई राह पर चल पड़ी ।
स्तनपान कम हो जाने की वजह से शिशु मृत्यु दर में एकाएक तेजी आने लगी । सभी ओर खलबली सी मच गई । विकसित देश भी इस विभीषिका से बच नहीं पाए । इसी बीच सन् १९७९ में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने करीब १०० देशों के सर्वेक्षण में पाया कि वहां ५० ब्रांडेड एवं २०० प्रकार के अन्य वैकल्पिक शिशु आहार बेचे जा रहे हैं । इसी के बाद परिवर्तन प्रारंभ हुआ । वैसे इसके पहले सन् १९७४ में ब्रिटिश चैरिटी में वैकल्पिक शिशु आहार को लेकर एक लेख ``दि बेबी किलर`` (बच्चें के हत्यारे) प्रकाशित हो चुका था । संघर्ष चलता रहा और दूध का विकल्प बनाने वाली कंपनियां अपनी तरह से इसका विरोध करती रहीं ।
अंतत: सन् १९८० में विश्व स्वास्थ्य संग न ने पहल की और सन् १९८१ में विश्व स्वास्थ्य असेंबली ने विकल्पों पर विचार क र विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं यूनिसेफ के माध्यम से स्तनपान के विकल्पों को अनुशासित करने हेतु आचार संहिता निर्माण हेतु मतदान करवाया । जेनेवा में हुए इस सम्मेलन में ११८ देशों ने इसके पक्ष में मत दिया, ३ अनुपस्थित रहे और अमेरिका एकमाात्र देश था जिसने इसका विरोध किया था । स्वीकृति के ३ वर्षों के भीतर १३० देशों ने इसे स्वीकार किया और अंतत: १९९२ में भारत ने भी शिशु दूध विकल्प अधिनियम पारित कर दिया।
भविष्य को बचाने वाले इस सैद्धांतिक युद्ध के नायक और खलनायक दोनों ही हमारे सामने हैं । लेकिन प्रत्येक समय की अपनी चुनौतियां भी होती हैं । मां के दूध के व्यावसायिक रण के माध्यम से स्त्री के दूध में बदलने की कोशिश प्रारंभ कर दी गई जैसे कि वह गाय जैसी कोई पृथक जैवीय पहचान हो । अमेरिका में छोटे पैमाने पर लेकिन चीन के कुछ हिस्सों में बड़े पैमाने पर महिलाओं को बच्चें को दूध पिलाने की ``नौक री`` पर रखा जाने लगा है । इससे उनके अपने बच्चें के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है । यह बीमारी मुंबई एवं गोवा के रास्ते भारत में भी प्रवेश क र गई है ।
दूसरी बड़ी चुनौती सरोगेसी से पैदा हुए बच्चे और उन्हें जन्म देने वाली माताओं की है । जिन महिलाओं से उनकी कोख कि राए पर ली जाती है, उनसे कि ए गए समझौते क ी शर्त होती है कि वह बच्च अपनी जैव माता के संपर्क में कभी नहीं आएगा यानि उसे जीवन में क भी भी मां का दूध नहीं मिलेगा। वहीं दूसरी ओर हम दावा क र रहे हैं कि स्तनपान बच्चे क ा अधिक ार है । एक अन्य समस्या बढ़ते सिजेरियन प्रसव से भी पैदा हो रही है । इससे क ई बच्चें को जन्म के पहले घंटे में दूध नहीं मिलता । वहीं दूसरी ओर अनावश्यक आपरेशन पर भी रोक नहीं लग रही है । ऐसे वैज्ञानिक प्रमाण भी हमारे सामने आ रहे हैं । वातावरण में बढ़ रहे प्रदूषण से मां क ा दूध भी प्रदूषित हो रहा है । ऐसी नई चुनौतियों से सामना क रना आज क ी महती आवश्यक ता भी है ।
लेकि न इस सबके बीच सुकून पहुंचाने वाली खबर यह है कि फिनलैंड के ९५ प्रतिशत शिशु अपनी मां क ा दूध पी रहे हैं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें