विशेष लेख
खतरे में है हिमालय
जयकुमार
पिछले दिनों प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक तापमान का असर अब कैलाश पर्वत क्षेत्र पर भी नजर आने लगा है । अगर यही स्थिति जारी रही तो अगले ४० सालों में इस क्षेत्र के इकोसिस्टम में भारी बदलाव आ जाएगा । वहीं, एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार मेंऔर भी तेजी आती जा रही है ।
पुराणों में भगवान शिव का घर माना जाने वाला कैलाश पर्वत और मानसरोवर भी जलवायु परिवर्तन के प्रकोप से नहींबच पाएगा । काठमांडू स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआ ईएमओडी) द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि बर्फ से ढंके कैलाश पर्वत की सफेद चोटियां आने वाले कुछ सौ सालों में वैसी नहीं रह जाएंगी, जैसी की आज हैं । इस अध्ययन के अनुसार इस क्षेत्र में तापमान बढ़ने से यहां बारिश होने लगेगी, जिससे यह क्षेत्र धीरे-धीरे जंगलों और घास के मैदानों में ढंक जाएगा । इससे प्रकृति के पूरे चक्र पर गंभीर असर पड़ेगा ।
कैलाश का पूरा क्षेत्र करीब ३१ हजार वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है । इसका विस्तार भारत, नेपाल और चीन के तिब्बती स्वायत्तशासी क्षेत्र तक है । इसे कैलाश सेक्रेड लैंडस्केप (केएसएल) कहा जाता है । केएसएल के उत्तरी हिस्से में ६६३८ मीटर ऊंचा कैलाश पर्वत स्थित है, जो तिब्बत के पठार को छूता है । आईसीआईएमओडी ने केएसएल के आठ अलग-अलग जोन्स में बारिश, बर्फबारी, तापमान, वनाच्छादन और अन्य कई जलवायु संबंधी मापदण्डों का अध्ययन करने के लिए वर्ष १९६० से एकत्र आंकड़ों का इस्तेमाल किया । इन आठ क्षेत्रों में उत्तराखंड के तराई में स्थित साल वनों से लेकर देवदार के जंगल, अन्य शंकुधारी वृक्षों के जंगल, अल्पाइन झाड़ियां और घास के मैदानों से लेकर ऊंचाइयों पर स्थित बर्फीले इलाके तक शामिल हैं ।
इस रिपोर्ट के अनुसार केएसएल क्षेत्र में ऊंचाई वाले स्थानों को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्र २८५ से ६०० मीटर तक ऊपर की ओर खिसके हैं । ऊपर की ओर खिसकने का मतलब है कि वर्ष २०५० तक तापमान में बढ़ोतरी के कारण ऊंचाई वाले स्थानों पर भी वह वनस्पति और जीव-जन्तु मिलने लगेंगे जो अभी तक निचले क्षेत्र में ही पाए जाते हैं । उदाहरण के लिए चौड़े पत्ते वाले उष्णकटिबंधी जंगल, खासकर साल के वृक्ष, अभी औसतन ९२२ मीटर की ऊंचाई पर पाए जाते हैं, लेकिन २०५० तक ये १२२५ मीटर की उंचाई पर भी मिलेंगे । इसी तरह शंकुवृक्ष के जंगल अभी २७५० मीटर की ऊंचाई पर होते हैं जो २०५० तक ३१६० मीटर तक की ऊंचाई पर भी मिलने लगेंगे ।
रिपोर्ट के अनुसार इन सभी जोन्स के आकार में भी नाटकीय बदलाव देखने को मिलेंगे । अभी पर्वतों के सबसे ऊपरी स्थान सर्वाधिक ठंडे और नम हैं । वर्तमान में ये स्थल ३४६९ वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं । वर्ष २०५० तक इसका आकार घटकर महज १३३२ वर्ग किमी रह जाएगा, यानी मौजूदा आकार में ६८ फीसदी तक की गिरावट आ जाएगी । अधिक ऊंचाई वाले अधिक ठंडे एवं नम-शुष्क जोन में १६०० वर्ग किमी की कमी हो जाएगी । इसी तरह रिपोर्ट में अपेक्षाकृत कम ठंडे एवं नम-शुष्क जोन में २३०० वर्ग किमी की बढ़ोतरी का अनुमान लगाया गया है । गर्म तापमान वाले नम-शुष्क जोन में १४०० वर्ग कि.मी. तक की गिरावट होने की संभावना है । इन जलवायु जोन्स के बीच एक ऐसा नया गर्म-शुष्क जोन भी बन जाएगा, जिसका अभी अस्तित्व नहीं है ।
रिपोर्ट कहती है कि तापमान में बढ़ोतरी और बारिश से इस क्षेत्र में वनस्पति के पैदा होने की दर बढ़ जाएगी । इससे वनस्पति से ढंके हुए क्षेत्र का प्रतिशत भी बढ़ जाएगा । अभी इस क्षेत्र में वनस्पति की सकल प्राथमिकता उत्पादकता (नेट प्राइमरी प्रोडक्टिविटी-एनपीपी) एक करोड़ टन है । इसमें चौड़े पत्ते वाले उष्णकटिबंधीय जंगलों का योगदान सबसे अधिक (लगभग २० फीसदी) है । रिपोर्ट के अनुसार तापमान और बारिश में बढ़ोतरी के कारण वर्ष २०५० तक पूरे केएसएल क्षेत्र में वनस्पति की उत्पादकता में १९ लाख टन (१६ फीसदी से ज्यादा) की बढ़ोतरी हो जाएगी ।
जलवायु परिवर्तन की वजह से कैलाश क्षेत्र में मौजूद वनस्पतियों और जीव-जंतुआें की कई प्रजातियों के अस्तित्व पर नया खतरा खड़ा हो जाएगा । इनमें से कई प्रजातियां तो पहले से ही अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है ।
रिपोर्ट के अनुसार इस परिवर्तन का मतलब होगा बारिश या बर्फबारी, नदियों व धाराआें, वनस्पति, कीट-पतंगों, पक्षियों, पशुआें और उन अन्य कई कारकों में बदलाव होना जो इकोसिस्टम बनाते हैं । रिपोर्ट के मुताबिक इसका समग्र प्रभाव पहाडों पर रहने वाले लोगों पर होगा । ऐसे में सलाह दी गई है कि केएसएल के संरक्षण, इकॉलॉजिकल पुनरूद्धार और विकास की योजना बनाते समय इन नतीजों को जरूर ध्यान में रखना चाहिए ।
पिघलते हिमालयी ग्लेशियर
इधर, मिलान विश्वविघालय के अनुसंधनकर्ताआें द्वारा पेश की गई एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार हिमालय की बर्फ तेजी से पिघल रही है । इस रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले ५० सालों के दौरान एवरेस्ट क्षेत्र में स्नोलाइन १८० मीटर तक कम हो गई हैं । इतना ही नहीं, ग्लेशियरों के आकार में भी १३ फीसदी तक की गिरावट आई है । वहीं एक गैर सरकारी संगठन जर्मनवॉच के अध्ययन के अनुसार जिस गति से बर्फ पिघल रही है और पानी का दबाव बढ़ता जा रहा है, उससे ग्लेशियरों में ऐसे विस्फोट हो सकते हैं जो तबाही ला देंगे । कुछ ही घंटों में, करोड़ों घन मीटर पानी बहने का मतलब होगा कल्पनातीत विध्वंस ।
विशेषज्ञों का कहना है कि बर्फीले क्षेत्रों में झीलों के भरने की गति पहले की तुलना में काफी बढ़ गई है । यह इस बात का प्रमाण है कि बर्फ और ग्लेशियरों के पिघलने की गति में कितना इजाफा हो चुका है । आईसीआईएमओडी के कार्यक्रम संयोजक प्रदीप मूल कहते हैं कि ग्लेशियर झीलों के फूटने का खतरा समय के साथ बढ़ता जाएगा । आईसीआईएमओडी के अनुसार इस समय हिंदू कुश हिमालय में २० हजार से भी अधिक झीलें हैं जो ग्लेशियर पिघलने के कारण बनी हैं । पूर्वी नेपाल के दूध कोसी नदी बेसिन क्षेत्र में २७८ ग्लेशियर हैं, जिनमें से कुछ ७४ मीटर सालाना की दर से पिघले रहे हैं । प्रदीप मूल के अनुसार इस क्षेत्र में ३४ झीलें, जिनमें से २४ पिछले कुछ ही वर्षोंा में अस्तित्व में आई हैं । इनमें भी १० खतरनाक स्तर पर पहुंच गई हैं ।
कार्बन ब्लैक जिम्मेदार
हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियरों पर अध्ययन कर रहे इटली के कुछ शोधकर्ताआें का कहना है कि कार्बन ब्लैक भी ग्लेशियरों के पिघलने का एक अन्य प्रमुख कारण है । माउंट एवरेस्ट के नीचे करीब ५०५० मीटर ऊंचाई पर वर्ष १९८७ में इटेलियन नेशनल रिसर्च काउंसिल और नेपाल एकेडमी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी द्वारा संयुक्त रूप से स्थापित पिरामिड इंटरनेशनल ऑब्जर्वेटरी में कार्यरत वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुुंचे हैं कि पर्यावरण में मौजूद कार्बन के कणों के कारण ग्लेशियरों के पिघलने की गति बढ़ गई हैं ।
वैज्ञानिकों का कहना है कि हिमालय के ग्लेशियरों में जमा कार्बन के कणों के कारण सूर्य प्रकाश के परावर्तन की क्षमता पांच फीसदी तक कम हो गई है । इससे ग्लेशियर सूर्य के प्रकाश का अवशोषण अधिक करने लगे हैं, जिससे स्वाभाविक तौर पर उनके पिघलने की गति बढ़ रही है । कार्बन ब्लैक पेट्रोलियम पदार्थोंा का अधिक इस्तेमाल करने, थार्मल पॉवर प्लांट्स, इंर्ट भट्टों और जंगलों में लगने वाली आग के कारण वातावरण में उत्पन्न कार्बन के बहुत ही सूक्ष्म कण व राख होते हैं ।
वैज्ञानिकों का कहना है कि नेपाल की राजधानी काठमांडू में बड़ी संख्या में मौजूद इंर्ट भट्टे कार्बन ब्लैक के लिए जिम्मेदार हैं । डीजल और अन्य पेट्रोलियम पदार्थोंा से निकलने वाले कार्बन ब्लैक के कणोंके साथ इंर्ट भट्टों से निकलने वाले कार्बन कण भी मिल जाते हैं । ये कण दक्षिण एशिया में हजारों किमी लंबी और करीब ४००० मीटर चौड़ी एक पट्टी में फैले हुए हैं । हवा इन्हें हिमालय के ग्लेशियरों के ऊपर फैला इेती है, जिससे वे और भी तेज गति से पिघलने लगे हैं । मानसून से पहले जंगलों में लगने वाली आग के कारण उत्पन्न होने वाली राख के कण भी हवाआें के साथ ग्लेशियरों तक पहुंच जाते हैं । ग्लेशियरों में जमा होने वाले कणों की संख्या पिछले ४० साल में तीन गुना तक बढ़ गई हैं ।
इटली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ एटमॉस्फेरिक साइंसेज एंड क्लाइमेट (आईएएससी) के पाउलो बोनासोनी कहते है, हालांकि ग्लेशियरों के पिघलने का प्रमुख कारण बढ़ रहा वैश्विक तापमान है, लेकिन उनमें जमा कार्बन ब्लैक से यह प्रक्रिया तेज हो सकती है ।
चिंता क्यों ?
वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालय में पिघल रहे ग्लेशियरों पर कार्बन ब्लैक के प्रभाव पर निगरानी रखना काफी महत्वपूर्ण है । हिमालय का क्षेत्र एशिया के करीब एक अरब लोगों की पानी की आपूर्ति का एक प्रमुख स्त्रोत है । गंगा, ब्रह्मपुत्र, मेघना, सिंधु जैसी प्रमुख नदियों और उनकी सहायक नदियों में पानी हिमालय के ग्लेशियरों से आता है । अगर ग्लेशियर तेजी से पिघल जाते हैं तो आने वाले समय में इन नदियों पर निर्भर लोगों व देशों के सामने पानी की बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी । इसका व्यापक असर सिंचाई और कृषि पर पड़ेगा । नदियों के किनारे रहने वाले लोग भी इससे गंभीर रूप से प्रभावित होंगे ।
वैज्ञानिक ोंका कहना है कि अब समय आ गया है कि हम वैश्विक तापमान से भी आगे की सोचें । उनका मानना है कि हिमालय को बचाने के लिए एशियाई देशों को ज्यादा चिंतित होना होगा, क्योंकि इसका ज्यादा असर भी उन्ही पर पड़ेगा । वैश्विक तापमान को कम करने के साथ-साथ इन देशों को ठोस प्रदूषक तत्वों की मात्रा को भी कम करने की दिशा में कार्य करना होगा । इसके लिए उन्हें जीवाश्म इंर्धन का इस्तेमाल कम करना होगा । इससे न केवल बहुमूल्य हिमालयी ग्लेशियर बचेंगे, बल्कि जीवाश्म इंर्धन में खर्च होने वाली भारी-भरकम विदेशी मुद्रा की भी बचत हो सकेगी।
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