जनजीवन
न्यायालय, प्रशासन और राजनीति
रामअवतार गुप्त
शहर की सफाई व्यवस्था से लेकर अनैतिक ड्रग ट्रायल के खिलाफ कार्यवाही हेतु नागरिकों को उच्च् एवं उच्च्तम न्यायालय के दरवाजे खटखटाने पड़ रहे हैं । एक मोटा अनुमान यह है कि न्यायालयों में चल रहे मुकदमों में से ७० प्रतिशत से अधिक में सरकार एकपक्ष के रूप में मौजूद है ।
मीडिया में अक्सर राजनी-तिज्ञों के बयान आते हैं कि इस समय देश में न्यायालय ज्यादा सक्रिय हैं । किसी मामले में राजनीतिज्ञों की यह प्रतिक्रिया भी आती है कि न्यायिक सक्रियता ज्यादा है । एक दो बार तो सरकार में बैठेे जिम्मेदार राजनैतिक पदाधिकारियों ने भारत के न्यायालयों पर अशिष्ट टिप्पणी भी की है । ऐसे मामलों को लेकर विचार उठ ता है कि अंतत: ऐसी टिप्पणी आई क्यों? संवैधानिक व्यवस्था में अब ऐसी कौन सी खामी आ गई है कि संविधान के दो पहिये आपस में टकराने लगे हैं । संविधान मंे दिए गए निर्देश के तहत सभी अंगों का अपना अलग अधिकार क्षेत्र है और अपने दायित्व हैं तो फिर यह टकराहट क्यों ?
देश की अदालतों के दिशा निर्देशों केन्द्र के साथ ही राज्य सरकारों के कार्य प्रणाली पर भी सवाल खड़ा करते हैं । सवाल यही है कि जो दिशा-निर्देश सर्वोच्च न्यायालय ने मामलों की सुनवाई के बाद जारी किये हैं, क्या वह सरकारें पहले से स्वत: लागू नहीं कर सकती थीं ? कानून व्यवस्था के ऐसे मामलों में न्यायपालिका के हस्तक्षेप करने की नौबत ही क्यों आए । ऐसे मामलों मंे यदि सरकार सभी राजनैतिक दलों को विश्वास में लेकर अपनी तरफ से पहल करके कड़े कानून बनाने की दिशा में काम क्यों नहीं करती और ऐसा करने में उनके सामने बाधा क्या है ?
इस मामले में जब तथ्यों को खंगाला गया तो कुछ ऐसे प्रमाण मिले जिन पर अक्सर चर्चा नहीं होती जैसे राजनैतिक दल जो सत्ता में हैं, उन्हें पूरी क्षमता से लोक कल्याणकारी राज्य के लिए काम करना चाहिए, किन्तु उनका दृष्टिकोण दिनों दिन संकुचित होता जा रहा है । एक दो जगह तो स्पष्ट हुआ कि राजनैतिक दल खुद तो कुछ करते ही नहीं और यदि न्यायपालिका किसी मामले में सरकार को आदेश दे या दिशा निर्देश दें तो इससे उनको भारी परेशानी होती है और तब वे प्रतिक्रिया देते हैं कि न्यायालय ज्यादा सक्रिय हैं । पिछले दिनों हमारी राजनीति में विकृतियां आई हैं । राजनैतिक दल समस्याओं को दूर करने की बजाए पहले तो उसे बढ़ने देते हैं, फिर उससे राजनैतिक फायद उठाने का प्रयास करते हैं ।
सवाल उठता है कि सरकारें चुनी किसलिए जाती हैं ? अगर जनहित के साधारण काम करने में सरकारें अक्षम हैं तो फिर उन्हे सत्ता में रहने का क्या अधिकार रह जाता है ? यदि सरकारें ठीक से काम करें तो जनहित याचिकायें क्यों दायर हो ? अनेक मौकों पर न्यायपालिका द्वारा दिये गये निर्णयों में हैरानी जताई है कि हर मामले में उसे आखिर हस्तक्षेप क्यों करना पड़ रहा है ?
ऐसी स्थिति आने के लिए न्यायपालिका कम, कार्यपालिका और विधायिका पर नियंत्रण रखने वाले राजनेता ज्यादा जिम्मेदार हैं । पिछले तीन दशकों के दौरान राजनीतिज्ञों के बीच यह प्रवृति पनपी है कि वे जिस समस्या से पल्ला झाड़ना चाहते हैं, उस मामले में किसी पक्ष से जनहित याचिका लगवा देते हैं और विवाद को न्यायपालिका के पाले में डाल देते हैं । फिर मामले को न्यायालय में लंबित बताकर परिस्थितियों का अपने पक्ष मंे फायदा उठ ाते हैं । इसका एक अच्छा सा उदाहरण- बाबरी मस्जिद विवाद रहा है । वैसे इस मामले में सर्वोच्च् न्यायालय की संविधान पीठ ने उस पर कोई भी फैसला देने से इंकार करके एक सही निर्णय लिया है ।
यहांं पर कार्यपालिका द्वारा मामले को न्यायपालिका के देहरी में रख आने के षड़यंत्र का आरोप लगा । कार्यपालिका की इस विफलता का ही परिणाम है कि लोकतंत्र के विभिन्न स्तम्भांेके बीच जिस प्रकार का एक अन्यान्योश्रित सम्बन्ध और एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश न करते हुये अंकुश रखने की भावना होनी चाहिये, उसका धीरे-धीरे लोप हो रहा है । अब तो न्यायपालिका न केवल सरकारों को निर्देश देती है कि वह अमुक-अमुक कदम उठाये, बल्कि वह संसद से भी कहती है कि वह फलां-फलां कानून बनाये ।
पंजाब व उत्तर भारत के कुछ स्थानों पर वर्षाकाल में गोदाम भर जाने पर खुले में गेहंू के भीगने व सड़ने की मीडिया में खबरे आई और ४-५ घटनाओं के बाद एक सामाजिक संस्था (जो गरीबों के भोजन पर काम कर रही है) ने सर्वोच्च् न्यायालय में एक जनहित याचिका दाखिल करके मांग की कि केन्द्र व राज्य सरकारों को निर्देश दिया जावे कि वे खुले में वर्षा में सड़ रहे गेहंू को उचित ढंग से रखने की व्यवस्था करें, यदि गोदाम खाली न हो तो सड़ने से बचाने के लिए गरीबों को मुफ्त में अनाज देने का आदेश दे तो लेकिन न्यायालय ने सरकार को नोटिस दिया । इस प्रधानमंत्री ने न्यायालयों को नसीहत दे डाली कि वे अपनी सीमाओं में रहे । राजनेता स्वयं काम करेगें नहीं, कोई जनकल्याणकारी निर्देश दें तो कहेगें सीमा में रहे ।
भारत केनिर्वाचन आयोग ने अपनी स्थापना के कुछ समय बाद से ही केन्द्र सरकार को चुनाव प्रक्रिया में सुधार संबंधी सुझाव देना प्रारंभ कर दिया था । केन्द्र में बैठी सरकार के नुमाईन्दों ने कभी भी निर्वाचन आयोग के सुझावों को गंभीरता से नहीं लिया । तब कुछ कार्यकर्ताआें के जनहित याचिका पर सर्वोच्च् न्यायालय ने केन्द्र सरकार को निर्देश दिया । केन्द्र सरकार में बैठ े लोगों ने आश्वासन तो दिया किन्तु चुनाव सुधार का काम नहीं किया । मजबूरन सर्वोच्च् न्यायालय को केन्द्र सरकार को निर्देश देना पड़ा कि वे चुनाव सुधार की गतिविधियों के लिए शिक्षाविदों व सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक संस्था की स्थापना करे व साथ ही उसे धन भी उपलब्ध कराएं । आज की स्थिति में न्यायालय के आदेश से स्थापित एसासिऐशन आफ डेमोक्रेटिक रिफार्म्स ने साफ सुथरे चुनाव कैसे हों इसके लिए निर्वाचन प्रक्रिया, प्रत्याशियों के आपराधिक रिकार्ड की घोषणा और उसका प्रकाशन जैसे भारी संशोधन करा लिए हैं ।
आज जो लोग राजनीति में आ रहे हैं उनकी समझ, साहस, दूरदृष्टि, लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा, अनुभव, परिस्थितियों को समझने का व्यावहारिक ज्ञान, कुर्बानी देने की भावना, राजनीति में आने का उद्देश्य इत्यादि इस प्रकार का है कि वे देश में
उभर रही समस्याओं पर विचार ही नहीं कर पा रहे हैं या मामले को टाल रहे हैं जिससे समस्या विकराल होती जा रही है । वैसे न्यायपालिका सुनवाई के समय सरकारों को मौका देती है कि वे अपना पक्ष रखें, समस्या बताएं तथा समस्या को कब तक हल कर सकते हैं ।
वह इस हेतु आश्वासन भी चाहती है किन्तु कार्यपालिका में बैठ े लेाग जब बार-बार दिए गए मौंकों के बाद भी निर्णय नहीं कर पाते हैं तब न्यायपालिका को निर्णय तो देना ही होगा। उनकी तो बाध्यता है कि वे कानून, व संवैधानिक, परिस्थिति के अनुसार याचक को न्याय दें ताकि उसके अधिकार सुरक्षित रहें । अब यहां विधायिका और कार्यपालिका में बैठ े लोगों को तय करना होगा कि वे देश के नागरिकों को कैसे संतुष्ट कर सकते हैं जिससे कि ये लोग छोटे-छोटे मुद्दों पर न्यायपालिका का दरवाजा न खटखटाएं ।
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