सामयिक
उत्तराखंड में प्रकृति का सरंक्षण जरूरी
प्रेमवल्लभ पुरोहित, राही
देवभूमि उत्तराखण्ड हिमालयी क्षेत्र में संवेदनशील एवं नाजुक पर्वतमालाआें के मध्य स्थित पर्वतीय क्षेत्र है । इस सम्पूर्ण क्षेत्र में गढ़वाल व कुमाऊं मंडल के गांव व कस्बे ऊंची-नीची ढलानों पर बसे हुये हैं । इन पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन, भूकम्प, बादल फटना, अतिवृष्टि एवं नदियों में बाढ़ का आना स्वाभाविक ही है ।
जनपद चमोली, रूदप्रयाग, पिथौरागढ़ व उत्तरकाशी के कुछ क्षेत्र इतने संवेदन क्षेत्र हैं कि उन स्थानों पर उथल-पुथल होता ही रहता है जिससे जन-धन एवं प्रकृति की क्षति होती रहती है । वर्ष १८०३ व १९९० में भूकम्प व वर्ष १९७०, १९९५, २०१०, २०११, २०१२ में आधी प्राकृतिक आपदा से बेहत जन-धन की क्षति हुई है । परन्तु जून १६ व १७, २०१३ में आई प्राकृतिक आपदा से पहाड़ की सम्पूर्ण व्यवस्था चरमरा गयी । चौ तरफा जन-धन, खेती-बाड़ी, प्राकृतिक सपंदा, वन्य जीवों की बेहद क्षति हुई है ।
१५ जून २०१३ से १७ जून तक लगातार मुसालाधार अत्यधिक बारिश होती रही । इसी बीच १६ जून को रात्रि ८.१५ व १७ जून प्रात: ८.०० बजे विश्व विख्यात तीर्थ केदारनाथ मंदिर के प्रांगण व ईद-गिर्द क्षेत्र में जिस कदर प्रकृति जन्य आपदा व जल-प्रलय ने नग्न तांडव दिखाया उससे हजारों देश-विदेश के विभिन्न राज्यों से आये तीर्थ यात्री जिनमें बच्च्े, युवा, महिलायें, बुजुर्ग तथा स्थानीय, व्यवसायी, जीव-जन्तु, प्राकृतिक स्वरूप पलभर में ही मिट्टी-पान के मलवे मेंजमीदोज हो गये तथा इस जलप्रलय ने केदारनाथ मंदिर से लेकर रामबाड़ा, गौरीकुण्ड, सोनप्रयाग, कुण्ड, भीरी, चन्द्रापुरी, गंगानगर, अगस्त्यमुनि, सिल्ली, रूद्रप्रयाग तथा श्रीनगर तक इस कदर तबाही मचाई कि देखते ही देखते इन स्थानों का स्वरूप ही बदल गया ।
प्रदेश में सड़कें टूट गयी, संचार-विघुत व्यवस्था ठप्प हो गयी जिससे घाटी का सारा जन-जीवन अस्त-व्यस्त होकर अफरा-तफरी में ही खुद को खोजते ही रह गये । इस पलक झपकते प्रकृतिक आपदा में हजारों तीर्थ यात्री, पशु-पक्षी, वन-प्रान्तर, दुर्लभ जड़ी-बूटियां, आवासीय व व्यवसायिक भवन, यात्री वाहन, कृषि भूमि व सरकारी संपदा का मटियामेट हुआ कि सही रूप में आंकलन करना संभव नहीं होगा ।
सच है कि मानव समाज स्वार्थ से प्रकृति के क्षेत्र को घेरकर अपनाने की ओर सदा सतत, प्रयासरत रहता है । जिसका नाजायज अवैध निर्माण का प्रतिफल हमें समय-समय पर भुगतना ही पड़ता है । तब भी हमें अक्ल नहीं आती । विगत सालों में तथा २०१२-१३ में नदी-नालों के किनारे अरबों जन-धन व सम्पत्ति की क्षति भी अवैध निर्माण व प्रकृति से छेड़छाड़ का प्रतिफल नहीं तो और क्या है ?
वर्तमान में राज्य में ५५८ छोटे बड़े बांधों का निर्माण कार्य प्रस्तावित है तथा अधिकांश १५० विद्युत परियोजनाआें पर कार्य प्रगति पर चल रहा है । जल प्रलय आपदा से जगह-जगह भूस्खलन के कारण २४५ सड़के बंद पड़ गयी व ७५२ गांव अलग-अलग पड़ गये । यहां ११४४ स्कूली भवन जर्जर हालात में हैं तथा कई पूर्ण क्षतिग्रस्त भी हुये हैं ।
केदारघाटी के ग्रामीण स्कूली बच्च्े यात्रा काल में अगली कक्षाआें के लिए फीस, किताबें व कपड़ों की जुगत के लिए हर बरस केदारधाम में काम करने जाते हैं । इस साल भी गये २०० स्कूली बच्चें का अभी तक कोई अता-पता नहीं है । हजारों पल झपकते ही हताहत हुये, कई अफरा-तफरी में पेड़ों व चोटियों पर जा भागे तो हजारों लोग अभी भी गुमशुदा हैं ।
राज्य के २३३ गांवों को सरकार ने प्राकृतिक आपदाआें को दृष्टिगत रखते हुये संवेदनशील चिन्हित तो किया परन्तु विस्थापन की दिशा में प्रयास अभी तक नहीं हो पाया है । सबसे अधिक संवेदनशील गांव पिथौरागढ़ में ७१, चमोली में ४९, बागेश्वर में ४२, टिहरी व पौडी में १९-१९ गांव है । सरकारी उपेक्षापूर्ण रवैय्ये, असुनियोजित विकास तथा क्षेत्रीय जन प्रतिनिधियों की रूग्ण मानसिकता से पहाड़ी क्षेत्रों में हर साल आपदाआें के कारण पलायन जारी है लेकिन इस भयावह जल प्रलय ने सम्पूर्ण पहाड़ी जन-मानस को इस मोड़ पर खड़ा कर लिया है कि शहरों की तरफ पलायन के सिवाय कोई विकल्प है ही नहीं ।
हर जीवन उपयोगी व्यवस्थाआें का अभाव है पर्वतीय इलाकों में । आखिर कब तक विकास की राह देखते रहें । आने वाले भविष्य को तो संवारना है ही । किसी भी महखमे के सरकारी नौकरशाह पहाड़ में टिकने को तैयार नहीं है । न सरकार के पास ऐसी कार्यशैली योजना है, जिससे डाक्टर, शिक्षक व नौकरशाह अपनी सही-मायने में सेवा दे सकें ।
इस जल प्रलय आपदा से सिंचाई विभाग को २१२ करोड़ का झटका लगा जिसमें ६७६८ लाख सबसे अधिक ३ उत्तरकाशी जिले को नुकसान हुआ तथा रूद्रप्रयाग जिले को २९६३ लाख की क्षति आंकी गई है । इसी प्रकार जल विघुत निगम को १३२ करोड़ रूपये की क्षेति १९ प्रोजेक्टों से हुई है । लोक निर्माण विभाग को ७३३.४४ करोड़, ग्राम्य विकास विभाग को ७८.३४ तथा इसी प्रकार अन्य १२ विभागों को करोड़ों का झटका लगा है । २० हजार हेक्टेयर कृषि भूमि की क्षति हुई है जिसमें से १८ हजार मैदानी व दो हजार पर्वतीय क्षेत्रों में क्षति का आंकलन है ।
यदि अभी भी प्राकृतिक सम्पदा संरक्षण के प्रति चेतना नहीं हुई तो आने वाले दिन पहाड़ी क्षेत्रों के लिए शुभ सचेतक नहीं है । जिसका विनाशकारी प्रभाव शहरों को भी लीलता चला जाता है । पर्यावरण के लिए संतुलित वन क्षेत्रों का होना, अत्यधिक निर्माण कार्यो पर रोक लगाना, भारी-भरकम बांधों पर रोक व मठ-मदिरों तक वाहनों की आवा-जाही कम करना होगा ।
यह सुनिश्चित है कि यदि राज्य के कर्ता-धर्ता व प्रबुद्ध जन-मानस पहाड़ी क्षेत्रों के प्रति संवेदन व सचेत नहीं तो भविष्य में भी इसी प्रकार जल प्रलय, भूस्खलन, कटाव धंसाव आदि प्रकृति जन्य आपदायें आती रहेगी जिसके प्रकोप व भय से पहाड़ी लोग अपनी विरासतों व धर्म-कर्म संस्कारों को छोड़ने को विवश होकर पलायन करते रहेगें तथा पहाड़ी संस्कृति स्वत: ही विलुप्त् हो जायेगी ।
प्रकृति ने इस आपदा को अंतिम चेतावनी के बतौर मानव जाति को चेताया है जिससे हमको गंभीरता से चिंतन-मनन करके विचार करना होगा कि कहीं देखते-देखते पहाड़ के गांव सूने-सूने होकर खंडरों में तब्दील न हो जाय तथा एक विरासत पर्यावरण के प्रति न चेतकर आपदाआें की भेंट न चढ़ जाये, इसलिए हमें प्रकृति को पग-पग में संरक्षण करके प्रकृति जन्य आपदाआें को रोकना ही होगा ।
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