शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

पर्यावरण परिक्रमा
भारतीय इंजीनियर ने प्लास्टिक से बनाया डीजल
    चेन्नई की भारतीय इंजीनियर चित्रा थियागराजन ने तीन साल के अथक प्रयास के बाद ऐसी मशीनी यूनिट बनाने में सफलता हासिल की है, जो प्लास्टिक को तपाकर डीजल जैसा पदार्थ बना सकेगी, वोभी कम लागत में । चित्रा की इस यूनिट ने पेटेंट की पहली सीढ़ी पार कर ली है । चित्रा ने जून २०१३ में पेटेंट के लिए आवेदन किया था ।
    चित्रा के इस पायरो प्लांट यूनिट में ३ चैंबर हैं । पहले में प्लास्टिक को ३५०० से ३७४० डिग्री सेल्सियस तक गर्म किया जाएगा । ये चैंबर पूरी तरह से ऑक्सीजन से मुक्त रहेगा । पहले चैंबर से जुड़े दूसरे कूलिंग चैंबर में      गैस में परिवर्तित प्लास्टिक तरल में बदलेगी । तीसरे चैंबर में पहुंचते ही ये पानी ये क्रिया करेगी और पानी की ऊपरी तह पर पेट्रोलियम के रूप में तैरती नजर आएगी ।  मात्र तीन घंटे में ये  यूनिट डीजल बना लेती है । ५ किग्रा की यूनिट खर्च ७५ हजार रूपए है जबकि २५ किग्रा का ३ लाख । हर एक किलो प्लास्टिक में ८०० मिली तक डीजल बन सकता है ।

चित्त का सीधा संबंध वित्त से है
    गरीबी आते ही किसी का दिमाग पहले की अपेक्षा मंद पड़ जाता है, तार्किक क्षमता घट जाती है और मानसिक संतुलन बिगड़ने लगता है । एक ताजा अध्ययन में यह निष्कर्ष सामने आया है ।
    नए अध्ययन के मुताबिक, रूपयों की चिंता के कारण किसी का मस्तिष्क धीमा काम करने लग सकता है तथा उसका आईक्यू अचानक बहुत घट जाता है, कई बार तो १३ अंक तक घट सकता है । इंगलैंड के कोवेंट्री स्थित वारविक विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्राी आनंदी मणि एवं उनके साथी शोधकर्ताआेंके अनुसार, आर्थिक परेशानी बढ़ते ही किसी की तार्किक क्षमता में जबरदस्त गिरावट आ जाती है, जैसे कि एक रात न सो पाने की वजह से चेतना में आने वाली कमी ।
    आनंद मणि का यह शोधपत्र विज्ञान पत्रिका के ३० अगस्त के अंक में प्रकाशित हुआ है । इस शोधपत्र के अनुसार जरा सा भी आर्थिक लाभ मिलने के बाद गरीब व्यक्ति उन्हींमानसिक परीक्षाआें में कहीं बेहतर प्रदर्शन करने लगता है । वैज्ञानिकों के अनुसार, किसी व्यक्ति की मानसिक क्षमता में आया यह विकास रूपये को लेकर खत्म हुई चिंता के कारण हो सकती है । शोधकर्ताआें द्वारा जुटाए तथ्यों से इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि रूपये की कमी से विचार शक्ति कम हो जाती है तथा इससे इस बात के कारणों को भी जाना जा सकता है कि गरीब लोग बचत कम क्यों करते हैं तथा उधार अधिक क्यों लेते हैं ।
    नीति निर्माताआें को गरीबों द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों का े सरल एवं कम किया जाना चाहिए । जैसे उन्हें कर जमा करने में सहायता प्रदान करना, कल्याण से संबंधित फॉर्मो को भरने में तथा भविष्य की योजनाएं बनाने में सहायता प्रदान करनी चाहिए ।
चमकीले पौधे उगाने की योजना पर विवाद
    अंधेरे में जगमगाते पौधे खास किस्म का जादू जगाते हैं । लिहाजा, आश्चर्य नहीं कि लोगों से धन जुटाने वाली वेबसाइट किकस्टार्टर पर अधंकार में चमकने वाले पौधों को उगाने की योजना को जारेदार समर्थन मिला ।
    इस प्रोजेक्ट ने ४४ दिन में ८४३३ दाताआें से ३ करोड़ १० लाख रूपए जमा कर लिए । बॉयोल्यूमिनिसेंट बैक्टीरिया या फायर फ्लाइज के जीन्स का उपयोग कर एक छोटे चमकीले पैधे को उगाना प्रोजेक्ट का लक्ष्य है । आयोजकों ने धन देने वालों को उनके योगदान के हिसाब से बीज, पौधे और चमकीले गुलाब देने की पेशकश की    थी । सैकड़ों लोगों ने अंधेरे में रोशन होने वाले पौधों के बीज मांगे हैं ।
    इसका नतीजा दो सांस्कृतिक समूहों या जातियों के बीच संघर्ष के रूप मेंसामने आया है । एक तरफ आयोजक और चमकीले पौधों का समर्थन करने वाले टेक्नोलॉजिस्ट हैं । यह समूह दुनिया बदलने वाली कल्पना शक्ति, उद्यमिता का पक्षधर है । वे कंप्यूटर कोड या डीएनए सीक्वेंसिंग जैसी बौद्धिक संपदा की भागीदारी के समर्थक हैं ताकि नए निर्माण या सृजन को दूसरे लोग और बेहतर कर सकें ।
    दूसरी तरफ किकस्टार्टर  के संस्थापकों का प्रतिनिधित्व करने वाले आर्टिस्ट हैं । आर्टिस्टों का समूह स्थानीयता, छोटे उद्यमों का साथ देता है और विध्वंसक टेक्नोलॉजी व ग्लोबल कारोबार का विरोध करता है । यह समूह जेनेंटिकली मोडिफाइड चीजों को खाने लायक नहीं मानता है । अभी हाल तक किकस्टार्टर में दोनों समूह शांति से साथ-साथ चल रहे थे । लेकिन, जब चमकदार पौधों का प्रोजेक्ट सामने आया तो बॉयोटेक विरोधी गुटों ने प्रोजेक्ट को जेनेटिक प्रदूषण करार   दिया । उन्होंने आरोप लगाया कि आयोजकों ने किकस्टार्टर को उसके कलात्मक इरादोंसे अलग कर दिया हैं।

भाषा के लिहाज से अंग्रेजो से हम आगे हैं
    भारत भाषा के लिहाज से यूरोप के मुकाबले चार गुना अधिक संपन्न है । भारतीय जहां करीब ८५० भाषाएं बोलते हैं, वहीं यूरोपीय अपनी बात मात्र २५० भाषाआें में रख पाते हैं । यह बात जाने-माने भाषा-विज्ञानी और स्वतंत्र भारत में अखिल भारतीय स्तर पर भाषाआें का पहला सर्वेक्षण करने वाले गणेश एन देवी ने कही ।
    भारतीय भाषाआें के लोक सर्वेक्षण के अध्यक्ष श्री देवी ने कहा कि इंग्लैण्ड में चार या पांच से अधिक भाषाएं नहीं बोली जाती । इनमें से मुख्य तौर पर सिर्फ दो-अंग्रेजी और वेल्श कार्य व्यवहार में है, जबकि असम जैसा राज्य जो आकार में लगभग ब्रिटेन के बराबर है, वहां ५२ भाषाएं बोली जाती है ।
    श्री देवी ने पेरिस मुख्यालय वाले संस्थान यूनेस्को, जो कई भाषाआें के संवर्धन के लिए प्रयास करता है, वह विचार-विमर्श के लिए सिर्फ पांच भाषाआें का इस्तेमाल करता है ।
    पीएलएसआई के अध्यक्ष ने कहा कि दूसरी ओर यहां भारतीय अदालतों और कार्यालयों में २२ भाषाआें में काम-काज होता है । ब्रिटिश शासनकाल में हुए भारतीय भाषाआें के पहले सर्वेक्षण के बाद करीब १०० साल बाद हुए सर्वेक्षण के संबंध में उन्होंने कहा कि भारत में सैकड़ों भाषाएं है ।
    उन्होनें कहा कि यह संख्या करीब ८५० हो सकती है  जिनमें से हम ७८० भाषाआें का अध्ययन कर सके । यदि १९६१ की जनगणना को आधार मानें तो पिछले ५० साल में करीब २५० भाषाएं लुप्त् हुई ।
    ब्रिटिश शासनकाल में आइरिश भाषा विज्ञानी और भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने यह सर्वेक्षण किया था । वडोदरा स्थित भाषा रिसर्च एण्ड पब्लिकेशन के तत्वधान में हुए इस सर्वेक्षण को ५ सितम्बर को राष्ट्र को समर्पित किया जाएगा ।

पेड़-पौधों में भी भाई भतीजावाद
    सिर्फ मनुष्यों में ही भाई-भतीजावाद नहीं होता । पौधों में भी इसके प्रमाण मिले हैं । ताजा प्रयोग बताते हैं कि पौधे भी उन बातों पर ज्याद ध्यान देते हैं, जो उनके निकट संबंधी कहते है ।        
    जब कोई कीट किसी पौधे की पत्तियां कुतरता है, तो कई पौधे कुछ वाष्पशील रसायन छोड़ते हैं, जो आसपास के पौधों को चेतावनी दे देते हैं कि कीटों का हमला हो रहा है । इस वाष्प संदेश को पाकर आसपास के पौधे हमले को तैयारी शुरू कर देते  हैं । तैयारी के रूप में कुछ पौधे एक अन्य रसायन छोड़ते है वो ऐसे कीटों को आकर्षित करता है जो हमलावर टों का शिकार करते हैं । कुछ अन्य पौधे ऐसे रसायनों का स्त्राव करने लगते हैं जिससे वे बेस्वाद हो जाते हैं । ये प्रक्रियाएं पौधों की कई प्रजातियों में देखी गई है ।
    अब कैलिफोर्निया विश्व-विद्यालय, डेविस के रिचर्ड कारबैन ने बताया है कि एक पौधे से ब्रश में इन चेतावनी संकेतों पर प्रतिक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि वह संदेश किसी निकट संबंधी पौधे से आया है या असंबंधी पौधे से, इसे समझने के लिए कारबैन के दल ने वृद्धि के तीन मौसमों की शुरूआत में एक ही पौधे की अलग-अलग शाखाआें को एक वाष्पशील रसायन से उपचारित  किया । यह रसायन उसी प्रजाति के अलग-अलग पौधों ने तब स्त्रावित किया गया था जब उनकी पत्तियों को कुतरा गया था ।
    मौसम के अंत तक शाकाहारियों ने उन शाखाआें को कम नुकसान  पहुंचाया था, जिन पर निकट संबंधी पौधों से प्राप्त् रसायन डाला गया था बजाए उन शाखाआें के जिन डाला बजाए उन शाखाआें के जिन पर डाला गया रसायन थोड़े दूर के संबंधियोंसे आया था । जाहिर है उक्त रसायन ने पौधे में अलग-अलग स्तर की शाकाहारी रोधक प्रतिक्रिया विकसित की थी । 
    श्री कारबैन पहले दर्शा चुके हैं कि वाष्पशील रसायनों के मिश्रण का संघटन (एक ही प्रजाति) के अलग-अलग पौधों के बीच कुछ समानता तो होती ही है । एक तरह से ये पारिवारिक पहचान चिन्ह होते हैं ताकि अन्य को इन संकेतोंसे फायदा उठाने से रोका जा सके । यहां निकट संबंधी पौधों से आशय हैकि उनके बीच जेनेटिक समानता अपेक्षाकृत ज्यादा होती है । इसी पगकार का शोध कनाडा के मैकमास्टर विश्वविद्यालय की सुसन डुडली ने भी किया था और पाया था कि जब पौधे एक ही गमले में जगह के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, तो वे निकट संबंधी पड़ोसियों के प्रति कम आक्रामक होते हैं । सुश्री डुडली का ख्याल है कि संबंधियों के बीच भेद शायद पौधों में एक आम बात  है ।

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