मंगलवार, 18 नवंबर 2014

हमारा भूमण्डल
गिद्ध कोषों के पंजोंमें निरीह राष्ट्र
मार्टिन खोर

    पूंजी का सर्वाधिक घृणास्पद रूप आज पूरे विश्व में `गिद्ध कोष` या वल्चर फंड के नाम से पहचाना जा रहा है । साथ ही इसके माध्यम से यह भी सामने आ गया कि पूंजी के सामने राष्ट्रों की सार्वभौमिकता का कोई अर्थ नहीं है ।
    यह खेल अब भारत में भी अन्य स्वरूप लेकर प्रारंभ हो गया है । अनेक रियल इस्टेट कंपनियां बैंकों से `बीमार ऋण` औने पौने दामों में खरीद रही है । ऐसी ही एक सुगबुगाहट मध्यप्रदेश में नर्मदा नदी पर बांध बनाने वाली कंपनी के  बीमार ऋण को एक विदेशी कंपनी द्वारा संबंधित बैंक से खरीदने के मामले में उठी है।  
     विदेशी ऋण पुन: अपना घिनौना सिर उठा रहे हैं । अनेक विकासशील देशों के सामने निर्यात से घटती आमदनी और कम होते विदेशी कोष की समस्याएं सामने आ रही हैं, इसके बावजूद भुगतान अदायगी में चूक से बचने के लिए कोई भी देश अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मदद नहींे लेना चाहता । इससे बरसों बरस तक मितव्ययता और अति बेरोजगारी का सामना करना पड़ेगा और संभावना है कि अंत में ऋण कीस्थिति और भी बद्तर हो जाए । साथ ही निम्न वृद्धि, मंदी, सामाजिक एवं राजनीतिक अशांति की प्रबल संभावनाएं हैं । अनेक अफ्रीकी और दक्षिण अमेरिकी देश विगत में यह भुगत चुके हैं और अनेक यूरोपीय देश वर्तमान में इसे भुगत रहे हैं ।
    जब कोई समाधान सामने नहीं आया तो कुछ देशों ने अपने ऋणों का पुननिर्धारण किया । ऋण से निपटने की कोई अंतरराष्ट्रीय पद्धति प्रचलन में न होने से राष्ट्रों को अपनी ओर से पहल करनी पड़ी। इसके परिणाम सामान्यतया बहुत ही अस्त-व्यस्त थे क्योंकि इससे उन्हें बाजार में प्रतिष्ठा की हानि और लेनदारों के गुस्से का सामना करना पड़ा । लेकिन देशों ने अपने यहां खलबली मचाने के बजाए इस कड़वी गोली को निगल लिया ।
    इस तरह का अनुभव अर्जेंटीना को हुआ । सन् २००२ में उसका सार्वजनिक ऋण सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का १६६ प्रतिशत हो गया था । अनेक वर्षों की गिरावट और राजनीतिक अस्थिरता के बाद सन् २००१ में अर्जेंटीना चूककर्ता (ऋण की अदायगी में असमर्थ) हो गया था । अर्जेंटीना ने दो बार सन् २००५ एवं २०१० में अपने ऋण परिवर्तित करने का प्रयास किया । इसमें उसने करीब ९३ प्रतिशत ऋणदाताओं के ऋणों का पुनर्निधारण किया जो कि अपने मूल ऋण से महज एक तिहाई लेने को राजी हो गए थे । लेकिन ७ प्रतिशत लेनदार जो कि `होल्ड आउट` (डटे रहने वाले) कहलाते हैं । इस पुनर्निधारण हेतु तैयार नहीं हुए। कुछ प्रभावशाली हेज फण्ड धारक (जो कि कुल लेनदारों का महज १ प्रतिशत ही थे) जिन्होंने द्वितीयक बाजार (सेकेण्डरी मार्केट) से कुछ ऋण बहुत सस्ते में खरीद लिया था ने न्यूयार्क (जहां पर मूल ऋण को लेकर अनुबंध हुआ था) में न्यायालय से यह आदेश चाहा कि उन्हें पूरा भुगतान किया  जाए ।
    इस तरह के अनेक कोष जिन्हें अब `वल्चर फंड` (गिद्ध कोष) कहकर पुकारा जाता है कि विशेषज्ञता इस बात में है कि वे संकटग्रस्त ऋणों को बहुत कम कीमत (मूल लागत का १० प्रतिशत) पर खरीद लेते हैं  और न्यायालय के माध्यम से ब्याज सहित पूरे ऋण की अदायगी का दबाव बनाते हैं । यह गिद्ध की तरह ऊपर चक्कर लगाते रहते हैं और मृत या मृत पाए शरीरों पर झपट्टा मारकर अपना भोजन नोंच लेते हैं । इस मामले में मृत देह के रूप में देश हैं और उनसे कहा जा रहा है कि वे इन गिद्ध कोषों को भुगतान करने के लिए अपनी पहले से ही कुम्हलाई  अर्थव्यवस्था को और निचोड़ें ।  यह कुछ-कुछ पत्थर से खून निकालने जैसा है ।
    अमेरिकी न्यायपालिका की लंबी प्रक्रिया जो कि सर्वोच्च् न्यायालय तक पहुंची थी, ने कुछ महीनों पहले तय किया कि इस मुकदमे को चलाने वाले होल्ड आऊट हेज फंड धारकों को ब्याज सहित पूरा भुगतान किया    जाए । इतना ही नहीं अपने निर्णय में न्यायालय ने उन ९३ प्रतिशत लेनदारों को जो काफी छूट देने को तैयार हो गए थे, को भी भुगतान करने पर रोक लगा दी । क्योंकि उनके हिसाब से `गिद्ध कोषों` को उसी समय पूरा भुगतान किया जाना अनिवार्य है । न्यूयार्क के न्यायाधीश ने निर्णय पर पहुंचने के लिए पारी-पासू सिद्धांत (कि सभी लेनदारों को एक जैसा माना जाए) को आधार बनाया । ये गिद्ध कोष तो अपना हिस्सा चाहते हैं ।  इसमें से मुख्य कोष एनएमएल, केपिटल अनुमानत: १८०० प्रतिशत लाभ कमाएगा ।
    अर्जेंटीना की राष्ट्रपति क्रिस्टीना किर्चनेर ने इन कोषों के सामने झुकने से इंकार कर दिया । अगर वह झुकतीं तो देश को लेनदारों को पूरी रकम का भुगतान करना पड़ता और वह करीब १२० अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर होता । वैसे भी इतना भुगतान कर पाना असंभव था । घटनाक्रम के इस अविश्वसनीय परिवर्तन  को अनेक सार्वजनिक हित समूहों ने घृणास्पद करार दिया है और विकासशील देशों की सरकारें गुस्से से भर गई हैं ।
    बोलीविया में इस वर्ष में जी-७७ के दक्षिण सम्मेलन ने इन गिद्ध कोषों की निंदा की गई थी और एक व्यवस्थित वैश्विक ऋण पुनर्निर्धारण प्रणाली की मांग की है । विकसित देशों के वित्तमंत्री भी इसे लेकर चिंतित हैं क्योंकि वे भी इसके प्रभाव में आएंगे ।   कुछ वर्ष पूर्व ग्रीस भी ऋण पुनर्निर्धारण से गुजरा है जिसके अंतर्गत निजी लेनदार हानि उठाने को तैयार हुए थे ।
    न्यायालय के निर्णय को एक नई नजीर मानने से देशों के लिए अपने ऋणोंका पुनर्निर्धारण असंभव हो जाएगा, क्योंकि अब यह निर्लज्ज गिद्ध कोष इसे अपने चंगुल में लेकर रोक देंगे । फाइनेंशियल टाइम्स के प्रभावशाली प्रवक्ता मार्टिन वोल्फ ने गिद्ध कोषों से हो रही इस लड़ाई में अर्जेंटीना का समर्थन किया है । वोल्फ ने तो इस हद तक कहा कि वास्तविक गिद्धों को होल्ड आउट का नाम देना भी अनुचित है चूंकि वास्तविक गिद्ध कम से कम एक महत्वपूर्ण कार्य तो कर ही रहे हैं । पिछले दिनों स्विट्जरलैंण्ड इंटरनेशनल केपिटल मार्केट एसोसिएशन, जो कि बैंकरों और निवेशकर्ताओं का समूह है ने कुछ नए मानक तय किए हैं जिनका लक्ष्य है ऋण पुनर्निर्धारण में होल्ड आऊट निवेशकों की क्षमता को कम किया जा सके ।
    पिछले दिनों जी-७७ समूह जो कि विकासशील देशों का प्रतिनिधित्व करता है ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक प्रस्तावा को बढ़ाने में सफलता है । जिसके अंतर्गत प्रावधान है कि संकटग्रस्त ऋणों का राज्य द्वारा पुनर्निर्धारण किए जाने में हेज कोष अपने लाभ कमाने हेतु रुकावट न डाल पाएं । साधारण सभा के इस प्रस्ताव के पक्ष में १२४, विरोध में ११ मत पड़े और ४१ देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया । इसके अलावा यह भी तय हुआ है कि सन् २०१४ के अंत तक सार्वभौमिक ऋण पुनर्निर्धारण हेतु एक ऐसा बहुस्तरीय कानूनी ढांचा तैयार किया जाएगा जिससे की अंतरराष्ट्रीय विंत्तीय प्रणाली को स्थिरता प्राप्त हो सके ।
    अंतरराष्ट्रीय ऋण पुनर्निर्धारण प्रणाली एक व्यवस्थित हल भी है । इसके माध्यम से देश किसी अंतरराष्ट्रीय न्यायालय या प्रणाली द्वारा ऋण समस्या से समाधान पा सकेंगे और उन्हें स्वयं ऋण पुनर्निर्धारण की उथल-पुथल से मुक्ति  मिलेगी । वैसे इस प्रस्ताव का क्रियान्वयन भी टेढ़ी खीर है, क्योंकि इस पर आपत्ति उठाने वाले प्रमुख देश अमेरिका, जर्मनी और ब्रिटेन हैंजो कि वैश्विक वित्त के बड़े खिलाड़ी हैं । 
    अर्जेंटीना की पहल पर एक और प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद् विचार कर रही है ।  इसका लक्ष्य है गिद्ध कोषों को रोकने के लिए एक कानूनी ढांचा तैयार करना और सार्वभौमिक ऋण पुननिर्धारण । एक और अच्छी बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ जो कि एक वैश्विक इकाई है और इसके अंतर्गत निर्णय प्रक्रिया में विकासशील देशों की भी सुनवाई होती है, के केन्द्र में अब ऋण संबंधी विमर्श के केन्द्र में हैं । भविष्य के समझौते अत्यंत कठोर तो होंगे लेकिन वह बहुमूल्य भी साबित होंगे, क्योंकि ऋण संकट को रोकना और उसका प्रबंधन अधिक से अधिक देशों की प्राथमिकता बनती जा रही   है ।

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