कृषि जगत
मानव मूत्र : एक प्रभावी कृषि उर्वरक
डॉ. दीपक शिन्दे
इन दिनों, विशेष कर शहरी क्षेत्रों में, रासायनिक उर्वरकों से होने वाले हानिकारक प्रभावों के प्रति जागरूकता के चलते लोगों में ऑर्गेनिक फूड की तरफ रूझान बढ़ रहा है । ये ऐसे खाद्य-पदार्थ होते हैं जिनमें विषैले रासायनिक तत्व नहीं पाए जाते तथा जिनके उत्पादन में प्राणी तथा वनस्पति से प्राप्त् प्राकृतिक खाद का उपयोग किया जाता है ।
ऑर्गेनिक फूड का बाजार १९९० से तेजी से बढ़ा है । इसकी मांग के अनुपात में ऑर्गेनिक खेतों के क्षेत्रफल में २००१ से २०११ के मध्य ८.९ प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई है । दुनिया भर में २०११ तक लगभग ३ करोड़ ७० लाख हैक्टर भूमि पर ऑर्गेनिक खेती की जा रही थी जो कुल कृषि भूमि का केवल ०.९ प्रतिशत ही है ।
मानव मूत्र : एक प्रभावी कृषि उर्वरक
डॉ. दीपक शिन्दे
इन दिनों, विशेष कर शहरी क्षेत्रों में, रासायनिक उर्वरकों से होने वाले हानिकारक प्रभावों के प्रति जागरूकता के चलते लोगों में ऑर्गेनिक फूड की तरफ रूझान बढ़ रहा है । ये ऐसे खाद्य-पदार्थ होते हैं जिनमें विषैले रासायनिक तत्व नहीं पाए जाते तथा जिनके उत्पादन में प्राणी तथा वनस्पति से प्राप्त् प्राकृतिक खाद का उपयोग किया जाता है ।
ऑर्गेनिक फूड का बाजार १९९० से तेजी से बढ़ा है । इसकी मांग के अनुपात में ऑर्गेनिक खेतों के क्षेत्रफल में २००१ से २०११ के मध्य ८.९ प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई है । दुनिया भर में २०११ तक लगभग ३ करोड़ ७० लाख हैक्टर भूमि पर ऑर्गेनिक खेती की जा रही थी जो कुल कृषि भूमि का केवल ०.९ प्रतिशत ही है ।
जीवों तथा भूमि की उर्वरता पर आधुनिक संश्लेषित रासायनिक उर्वरकों के कुप्रभाव अब सामने आने लगे हैं । भूमि में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पौटेशियम जैसे पोषक तत्वों की कमी को पूरा कर अधिक उत्पादन के लालच में इन उर्वरकों का बेतहाशा उपयोग किया जा रहा है । किन्तु यह एक कटु सत्य है कि इन तत्वों के स्त्रोत सीमित हैं जिनका नवीनीकरण नहीं किया जा सकता । उदाहरण के लिए नाइट्रोजन को ही लें । इसे प्राप्त् करने के लिए प्रयुक्त विधि में प्राकृतिक गैस की आवश्यकता होती है जिसके स्त्रोत सीमित है ।
फॉस्फोरस तथा पोटेशियम के स्त्रोत भी सीमित हैं । भविष्य में हमें जल्द ही उर्वरकों के इन महत्वपूर्ण घटकों की कमी का सामना करना पड़ेगा । इस समस्या के दो ही समाधान दिखाई देते हैं : इनके उपयोग में जबरदस्त कटौती या अन्य विकल्पों की खोज । अगर ऐसा न किया गया तो भविष्य में हमें भुखमरी से जूझने के लिए तैयार रहना होगा ।
वर्तमान में मानव मूत्र रासायनिक उर्वरकों का एक बेहतरीन विकल्प दिखाई देता है जो पूरे वर्ष आसानी से उपलब्ध निशुल्क स्त्रोत हैं । पर्यावरण पत्रिका इकॉलॉजिस्ट के अनुसार यह एक उत्कृष्ट जैव उर्वरक है । भले ही आज हमें उर्वरक के रूप में मानव मूत्र के उपयोग की धारणा थोड़ी बेतुकी लगे किन्तु प्राचीन काल में जब रासायनिक उर्वरक उपलब्ध नहीं थे तब मानव मूत्र का उपयोग उर्वरक के रूप में होता रहा है । नए शोध यह बता रहे है कि इस प्राचीन पद्धति की ओर लौटने में ही बुद्धिमानी है । इनके अनुसार मानव मूत्र न सिर्फ पौधों की वृद्धि को बढ़ावा देता है बल्कि मूत्र रहित मलजल के उपचार में खर्च होने वाली ऊर्जा में भी बचत होती है ।
हालांकि हमारे देश में इस विषय पर कुछ खास काम नहीं हुआ है परन्तु फिनलैण्ड स्थित कूपियो विश्वविघालय के पर्यावरण वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक प्रयोग से इस धारणा को काफी बल मिलता है । इस प्रयोग में चुकंदर के पौधों के चार समूहों को अलग-अलग तरीकों से उगाया गया । पहले समूह हेतु परम्परागत रासायनिक खाद, दूसरे के लिए मानव मूत्र एवं तीसरे के लिए मानव मूत्र तथा लकड़ी की राख के मिश्रण का उपयोग किया गया ।
कंट्रोल ग्रुप के रूप में एक और चौथे समूह में किसी भी उर्वरक का उपयोग नहीं किया गया । इन सभी पौधों के लिए सूक्ष्म-जैविक तथा रासायनिक परिस्थितियां भी समान ही रखी गई । प्रयोग के अंत में परम्परागत रासायनिक उर्वरकों द्वारा पोषित पौधों से उत्पन्न चुकंदरों की अपेक्षा मानव मूत्र द्वारा उत्पन्न चुकंदर आकार में लगभग दस प्रतिशत और मानव मूत्र तथा लकड़ी की राख के मिश्रण द्वारा उत्पन्न चुकंदर २७ प्रतिशत बड़े थे । इन चुकंदरों में पाए जाने वाले पोषक तत्व एवं स्वाद सामान्य चुकंदरों की तरह थे । इससे वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि मानव मूत्र एक बेहतरीन उर्वरक है । बाद में पत्तागोभी, खीरे तथा टमाटर की कृषि में भी मानव मूत्र का सफलतापूर्वक उपयोग किया गया ।
मूत्र के पुनर्चक्रण से प्राप्त् खाद ने केवल खाद्य उत्पादन में वृद्धि करती है बल्कि तरल अपशिष्ट के उपचार को भी सुगम बनाती है । साथ ही यह विकासशील देशों में स्वच्छ परिस्थितियों के निर्माण में भी सहायक है । मानव मूत्र में सामान्य रासायनिक उर्वरकों में पाए जाने वाले प्रमुख घटक (नाइट्रोजन, पोटेशियम तथा फॉस्फोरस) भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं ।
वैज्ञानिकों के अनुसार मूत्र में पाए जाने वाले पोषक पदार्थ ठीक उसी रूप में होते हैं जिस रूप में वे पौधों द्वारा ग्रहण किए जाते हैं । हमारा भोजन हमें नाइट्रोजन जैसे पोषक तत्व जटिल कार्बनिक अणुआें के रूप में प्रदान करता है किन्तु हमारा पाचन तंत्र इन्हें ऐसे सरल रूप में विघटित कर देता है जो पौधों द्वारा ग्रहण किए जा सकें । अर्थात आधा कार्य तो हम ही कर चुके होते हैं ।
युरोप में कुछ बागवानों ने तो अपने घरों पर पौधों को मूत्र से उर्वरित करना प्रारंभ कर दिया है । कुछ शोधकर्ताआें द्वारा छोटे-छोटे खेतों में स्थानीय स्तर पर एकत्रित मानव मूत्र को रिसायकल करने संबंधी पायलट प्रोजेक्ट भी चलाए जा रहे हैं । बड़े पैमाने पर की जाने वाली कृषि में मानव मूत्र के उपयोग के मार्ग में एक बड़ी समस्या यह है कि तरल अपशिष्ट को एकत्र करना होगा एवं उसके परिवहन के तरीकों को बदल कर सीवेज सिस्टम को पूर्ण रूप से परिवर्तित करना होगा । इसके अलावा, सामान्य फ्लश टॉयलेट्स में परिवर्तन कर मूत्र और मल की निकासी के लिए अलग-अलग प्रावधान करना होगा । इस प्रकार की व्यवस्था इस कार्य में एक बड़ी बाधा है क्योंकि लोग आसानी से इस तरह के टॉयलेट्स को स्वीकार नहीं करेंगे ।
मूत्र रिसाइक्लिंग से हमें दोहरा लाभ मिलता है । एक ओर जहां हमें प्रभावी उर्वरक प्राप्त् होता है वहीं दूसरी ओर बड़ी मात्रा में पानी की बचत के साथ मूत्र रहित सीवेज के उपचार में भी अपेक्षाकृत कम ऊर्जा की आवश्यकता होगी । एक व्यक्ति औसतन छह में से पांच बार केवल मूत्र त्यागने के लिए टॉयलेट का उपयोग करता है तथा इसे स्वच्छ करने के लिए प्रत्येक बार लगभग ८ लीटर की दर से कुल ४० लीटर पानी बहाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि टॉयलेट स्वच्छ करने हेतु आवश्यक कुल स्वच्छ जल का लगभग अस्सी प्रतिशत या प्रति व्यक्ति लगभग १.५ लाख लीटर प्रति वर्ष केवल मूत्र से निजात पाने हेतु उपयोग किया जाता है । यानी मूत्र को ठिकाने लगाने के लिए इतना साफ पानी प्रदूषित होता है । यदि इस पानी की बचत की जाए तो इसका उपयोग कृषि में किया जा सकता है ।
संयुक्त राज्य अमेरिका में रिच अर्थ इंस्टीट्यूट एक्सपेंरिमेंट सामाजिक स्तर पर कानूनी तौर से अधिकृत पहला प्रोजेक्ट है किन्तु युरोप, अफ्रीका एवं एशिया के देशों में मूत्र उर्वरक से संबंधित परीक्षण अभी जारी है ।
साइन्टिफिक अमेरिकन में प्रकाशित पर्चे में बताया गया है कि एक व्यक्ति द्वारा प्रतिदिन उत्सर्जित मूत्र से लगभग एक वर्ग मीटर भूमि की उर्वरता बढ़ाई जा सकती है । इसी प्रकार एक मनुष्य ५०० लीटर प्रतिवर्ष की दर से मूत्र त्यागता है जिसमें लगभग ३.६ किलोग्राम नाइट्रोजन और करीब ०.५ किलोग्राम फॉस्फोरस होता है । ऐसे कृषक जो अपनी फसलों के लिए प्राकृतिक उर्वरक खोज रहे हैं उनके लिए मानव मूत्र से बेहतर विकल्प न तो वर्तमान में और न ही आने वाले समय में होगा क्योंकि परम्परागत उर्वरकों की तरह इसमें भी पर्याप्त् मात्रा में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पोटेशियम पाए जाते हैं । युगान्डा के कवान्डा विश्वविघालय के कृषि अनुसंधान संगठन के वैज्ञानिक पैट्रिक मखोसी के अनुसार मानव मूत्र एक प्रभावी उर्वरक है तथा सप्तह में केवल एक बार इसके प्रयोग से सब्जियों की पैदावार को दुगाना किया जा सकता है ।
यदि आप भी अपने बगीचे को मूत्र से उर्वरित करना चाहते हैं तो मूत्र के एक भाग में १० से १५ भाग पानी मिलाकर पतला करने के उपरान्त ही प्रयुक्त करना होगा । गमलों के पौधों के लिए मूत्र को ३० से ५० भाग पानी से पतला करना उचित होगा । हॉ, वृक्षों, झाड़ियों एवं लॉन के लिए मूत्र को बिना पतला किए सीधे ही इनकी जड़ों पर डाला जा सकता है । अपने मूत्र को किसी बोतल या बाल्टी में एकत्रित करें अथवा मूत्र को मल से पृथक करने वाले टायलेट्स के निर्माण में निवेश करें । आप अपने मूत्र का उपयोग सीधे तौर पर कम्पोस्ट खाद के ढेर पर करके इसके पोषक तत्वों में इजाफा भी कर सकते हैं । मानव मूत्र को उर्वरक के रूप में उपयोग करने हेतु लोगों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ।
अलबत्ता, मूत्र उर्वरक को मुख्य धारा में शामिल करने मेंं कुछ समस्याएं है जिनका निराकरण आवश्यक है । मूत्र में उपस्थित यूरिया के अमोनिया में परिवर्तित हो जाने से विशिष्ट दुर्गन्ध आने लगती है । मूत्र में एंटीबायोटिक्स, औषधियां तथा हॉर्मोन्स भी उपस्थित होते हैं । वैसे तो इनकी अत्यन्त सूक्ष्म मात्रा का प्रभाव फसलों पर नगण्य होता है और वास्तव में ऐसे मूत्र संदूषकों को जल मार्ग में बहाने की अपेक्षा भूमि पर फैलाना ज्यादा लाभकारी हो सकता है । फिर भी संयुक्त राज्य अमेरिका का रिच अर्थ इन्स्टीट्यूट यह जानने का प्रयास कर रहा है कि मूत्र उर्वरक से इस प्रकार के संदूषकों का मिट्टी में किस प्रकार अवशोषण होता है ।
जब हम ऐसे फ्लश टॉयलेट्स का इस्तेमाल करते है जो सीधे नालों से जुड़े होते हैं तब ये अवशिष्ट औषधियां तथा हॉर्मोन्स चौबीस घंटे के भीतर जल उपचार संयंत्रों से होकर बिना किसी परिवर्तन के सीधे नदियों, तालाबों, झीलों या समुद्र में पहुंचकर न केवल जलीय जीवन को हानि पहुंचाते है वरन पीने योग्य पानी को भी प्रभावित करते हैं । इसके स्थान पर यदि हम मूत्र को कृषि भूमि पर फैला दें तो संभव है कि विशालकाय मृदा तंत्र इन पदार्थो को अपघटित करके खत्म या एकदम कम कर दें ।
दूसरी समस्या यह है कि इस काम में तरल अपशिष्ट को ठोस में अलग करने के लिए सीवेज सिस्टम की बनावट में मौलिक परिवर्तन करना पड़ेगें । इसके लिए मल को मूत्र से पृथक करने वाले टॉयलेट्स का उपयोग करना होगा जहां से मूत्र को किसी स्टोरेज टैंक में एकत्रित किया जा सकता है ।
फॉस्फोरस तथा पोटेशियम के स्त्रोत भी सीमित हैं । भविष्य में हमें जल्द ही उर्वरकों के इन महत्वपूर्ण घटकों की कमी का सामना करना पड़ेगा । इस समस्या के दो ही समाधान दिखाई देते हैं : इनके उपयोग में जबरदस्त कटौती या अन्य विकल्पों की खोज । अगर ऐसा न किया गया तो भविष्य में हमें भुखमरी से जूझने के लिए तैयार रहना होगा ।
वर्तमान में मानव मूत्र रासायनिक उर्वरकों का एक बेहतरीन विकल्प दिखाई देता है जो पूरे वर्ष आसानी से उपलब्ध निशुल्क स्त्रोत हैं । पर्यावरण पत्रिका इकॉलॉजिस्ट के अनुसार यह एक उत्कृष्ट जैव उर्वरक है । भले ही आज हमें उर्वरक के रूप में मानव मूत्र के उपयोग की धारणा थोड़ी बेतुकी लगे किन्तु प्राचीन काल में जब रासायनिक उर्वरक उपलब्ध नहीं थे तब मानव मूत्र का उपयोग उर्वरक के रूप में होता रहा है । नए शोध यह बता रहे है कि इस प्राचीन पद्धति की ओर लौटने में ही बुद्धिमानी है । इनके अनुसार मानव मूत्र न सिर्फ पौधों की वृद्धि को बढ़ावा देता है बल्कि मूत्र रहित मलजल के उपचार में खर्च होने वाली ऊर्जा में भी बचत होती है ।
हालांकि हमारे देश में इस विषय पर कुछ खास काम नहीं हुआ है परन्तु फिनलैण्ड स्थित कूपियो विश्वविघालय के पर्यावरण वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक प्रयोग से इस धारणा को काफी बल मिलता है । इस प्रयोग में चुकंदर के पौधों के चार समूहों को अलग-अलग तरीकों से उगाया गया । पहले समूह हेतु परम्परागत रासायनिक खाद, दूसरे के लिए मानव मूत्र एवं तीसरे के लिए मानव मूत्र तथा लकड़ी की राख के मिश्रण का उपयोग किया गया ।
कंट्रोल ग्रुप के रूप में एक और चौथे समूह में किसी भी उर्वरक का उपयोग नहीं किया गया । इन सभी पौधों के लिए सूक्ष्म-जैविक तथा रासायनिक परिस्थितियां भी समान ही रखी गई । प्रयोग के अंत में परम्परागत रासायनिक उर्वरकों द्वारा पोषित पौधों से उत्पन्न चुकंदरों की अपेक्षा मानव मूत्र द्वारा उत्पन्न चुकंदर आकार में लगभग दस प्रतिशत और मानव मूत्र तथा लकड़ी की राख के मिश्रण द्वारा उत्पन्न चुकंदर २७ प्रतिशत बड़े थे । इन चुकंदरों में पाए जाने वाले पोषक तत्व एवं स्वाद सामान्य चुकंदरों की तरह थे । इससे वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि मानव मूत्र एक बेहतरीन उर्वरक है । बाद में पत्तागोभी, खीरे तथा टमाटर की कृषि में भी मानव मूत्र का सफलतापूर्वक उपयोग किया गया ।
मूत्र के पुनर्चक्रण से प्राप्त् खाद ने केवल खाद्य उत्पादन में वृद्धि करती है बल्कि तरल अपशिष्ट के उपचार को भी सुगम बनाती है । साथ ही यह विकासशील देशों में स्वच्छ परिस्थितियों के निर्माण में भी सहायक है । मानव मूत्र में सामान्य रासायनिक उर्वरकों में पाए जाने वाले प्रमुख घटक (नाइट्रोजन, पोटेशियम तथा फॉस्फोरस) भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं ।
वैज्ञानिकों के अनुसार मूत्र में पाए जाने वाले पोषक पदार्थ ठीक उसी रूप में होते हैं जिस रूप में वे पौधों द्वारा ग्रहण किए जाते हैं । हमारा भोजन हमें नाइट्रोजन जैसे पोषक तत्व जटिल कार्बनिक अणुआें के रूप में प्रदान करता है किन्तु हमारा पाचन तंत्र इन्हें ऐसे सरल रूप में विघटित कर देता है जो पौधों द्वारा ग्रहण किए जा सकें । अर्थात आधा कार्य तो हम ही कर चुके होते हैं ।
युरोप में कुछ बागवानों ने तो अपने घरों पर पौधों को मूत्र से उर्वरित करना प्रारंभ कर दिया है । कुछ शोधकर्ताआें द्वारा छोटे-छोटे खेतों में स्थानीय स्तर पर एकत्रित मानव मूत्र को रिसायकल करने संबंधी पायलट प्रोजेक्ट भी चलाए जा रहे हैं । बड़े पैमाने पर की जाने वाली कृषि में मानव मूत्र के उपयोग के मार्ग में एक बड़ी समस्या यह है कि तरल अपशिष्ट को एकत्र करना होगा एवं उसके परिवहन के तरीकों को बदल कर सीवेज सिस्टम को पूर्ण रूप से परिवर्तित करना होगा । इसके अलावा, सामान्य फ्लश टॉयलेट्स में परिवर्तन कर मूत्र और मल की निकासी के लिए अलग-अलग प्रावधान करना होगा । इस प्रकार की व्यवस्था इस कार्य में एक बड़ी बाधा है क्योंकि लोग आसानी से इस तरह के टॉयलेट्स को स्वीकार नहीं करेंगे ।
मूत्र रिसाइक्लिंग से हमें दोहरा लाभ मिलता है । एक ओर जहां हमें प्रभावी उर्वरक प्राप्त् होता है वहीं दूसरी ओर बड़ी मात्रा में पानी की बचत के साथ मूत्र रहित सीवेज के उपचार में भी अपेक्षाकृत कम ऊर्जा की आवश्यकता होगी । एक व्यक्ति औसतन छह में से पांच बार केवल मूत्र त्यागने के लिए टॉयलेट का उपयोग करता है तथा इसे स्वच्छ करने के लिए प्रत्येक बार लगभग ८ लीटर की दर से कुल ४० लीटर पानी बहाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि टॉयलेट स्वच्छ करने हेतु आवश्यक कुल स्वच्छ जल का लगभग अस्सी प्रतिशत या प्रति व्यक्ति लगभग १.५ लाख लीटर प्रति वर्ष केवल मूत्र से निजात पाने हेतु उपयोग किया जाता है । यानी मूत्र को ठिकाने लगाने के लिए इतना साफ पानी प्रदूषित होता है । यदि इस पानी की बचत की जाए तो इसका उपयोग कृषि में किया जा सकता है ।
संयुक्त राज्य अमेरिका में रिच अर्थ इंस्टीट्यूट एक्सपेंरिमेंट सामाजिक स्तर पर कानूनी तौर से अधिकृत पहला प्रोजेक्ट है किन्तु युरोप, अफ्रीका एवं एशिया के देशों में मूत्र उर्वरक से संबंधित परीक्षण अभी जारी है ।
साइन्टिफिक अमेरिकन में प्रकाशित पर्चे में बताया गया है कि एक व्यक्ति द्वारा प्रतिदिन उत्सर्जित मूत्र से लगभग एक वर्ग मीटर भूमि की उर्वरता बढ़ाई जा सकती है । इसी प्रकार एक मनुष्य ५०० लीटर प्रतिवर्ष की दर से मूत्र त्यागता है जिसमें लगभग ३.६ किलोग्राम नाइट्रोजन और करीब ०.५ किलोग्राम फॉस्फोरस होता है । ऐसे कृषक जो अपनी फसलों के लिए प्राकृतिक उर्वरक खोज रहे हैं उनके लिए मानव मूत्र से बेहतर विकल्प न तो वर्तमान में और न ही आने वाले समय में होगा क्योंकि परम्परागत उर्वरकों की तरह इसमें भी पर्याप्त् मात्रा में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पोटेशियम पाए जाते हैं । युगान्डा के कवान्डा विश्वविघालय के कृषि अनुसंधान संगठन के वैज्ञानिक पैट्रिक मखोसी के अनुसार मानव मूत्र एक प्रभावी उर्वरक है तथा सप्तह में केवल एक बार इसके प्रयोग से सब्जियों की पैदावार को दुगाना किया जा सकता है ।
यदि आप भी अपने बगीचे को मूत्र से उर्वरित करना चाहते हैं तो मूत्र के एक भाग में १० से १५ भाग पानी मिलाकर पतला करने के उपरान्त ही प्रयुक्त करना होगा । गमलों के पौधों के लिए मूत्र को ३० से ५० भाग पानी से पतला करना उचित होगा । हॉ, वृक्षों, झाड़ियों एवं लॉन के लिए मूत्र को बिना पतला किए सीधे ही इनकी जड़ों पर डाला जा सकता है । अपने मूत्र को किसी बोतल या बाल्टी में एकत्रित करें अथवा मूत्र को मल से पृथक करने वाले टायलेट्स के निर्माण में निवेश करें । आप अपने मूत्र का उपयोग सीधे तौर पर कम्पोस्ट खाद के ढेर पर करके इसके पोषक तत्वों में इजाफा भी कर सकते हैं । मानव मूत्र को उर्वरक के रूप में उपयोग करने हेतु लोगों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ।
अलबत्ता, मूत्र उर्वरक को मुख्य धारा में शामिल करने मेंं कुछ समस्याएं है जिनका निराकरण आवश्यक है । मूत्र में उपस्थित यूरिया के अमोनिया में परिवर्तित हो जाने से विशिष्ट दुर्गन्ध आने लगती है । मूत्र में एंटीबायोटिक्स, औषधियां तथा हॉर्मोन्स भी उपस्थित होते हैं । वैसे तो इनकी अत्यन्त सूक्ष्म मात्रा का प्रभाव फसलों पर नगण्य होता है और वास्तव में ऐसे मूत्र संदूषकों को जल मार्ग में बहाने की अपेक्षा भूमि पर फैलाना ज्यादा लाभकारी हो सकता है । फिर भी संयुक्त राज्य अमेरिका का रिच अर्थ इन्स्टीट्यूट यह जानने का प्रयास कर रहा है कि मूत्र उर्वरक से इस प्रकार के संदूषकों का मिट्टी में किस प्रकार अवशोषण होता है ।
जब हम ऐसे फ्लश टॉयलेट्स का इस्तेमाल करते है जो सीधे नालों से जुड़े होते हैं तब ये अवशिष्ट औषधियां तथा हॉर्मोन्स चौबीस घंटे के भीतर जल उपचार संयंत्रों से होकर बिना किसी परिवर्तन के सीधे नदियों, तालाबों, झीलों या समुद्र में पहुंचकर न केवल जलीय जीवन को हानि पहुंचाते है वरन पीने योग्य पानी को भी प्रभावित करते हैं । इसके स्थान पर यदि हम मूत्र को कृषि भूमि पर फैला दें तो संभव है कि विशालकाय मृदा तंत्र इन पदार्थो को अपघटित करके खत्म या एकदम कम कर दें ।
दूसरी समस्या यह है कि इस काम में तरल अपशिष्ट को ठोस में अलग करने के लिए सीवेज सिस्टम की बनावट में मौलिक परिवर्तन करना पड़ेगें । इसके लिए मल को मूत्र से पृथक करने वाले टॉयलेट्स का उपयोग करना होगा जहां से मूत्र को किसी स्टोरेज टैंक में एकत्रित किया जा सकता है ।
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