दीपावली पर विशेष
तमसो मा ज्योतिर्गमय
आचार्य डॉ. संजय देव (दिव्ययुग)
दीपावाली ज्योति पर्व है । यह अन्धेरे से प्रकाश की ओर चलने का पवित्र संकल्प है । बुराइयों की कालिमा को चीरकर अच्छाइयों का उजास फैलाने का प्रतीक हैं । काल के भाल पर जीवन ज्योति जलाने का शाश्वत अनुष्ठान है ।
निर्धनता और दरिद्रता के कोहरे को छांट कर श्री समृद्धि का वरण है और है निराशा व नाउम्मीदी के घटाटोप में आशा और चारों से ओर विश्वास की किरण । सचमुच दीपावली का छटा अनूठी और निराली है । यों तो हर पर्व व्यक्ति और समाज को नई ऊर्जा से भरता है, लेकिन दीपावली की बात ही कुछ और है । इसके आंचल में तो हर ओर सल्मा-सितारे जड़े हैं । इसकी चमक-दमक के आगे सब फीके पड़ जाते हैं । होली ओर दीवाली भारत के दो ऐसे पर्व हैं जिनकी तुलना दुनिया के किसी भी महान उत्सव से नहीं की जा सकती है ।
यदि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर श्रेष्ठ पर्वो की कोई सूची बनाइ जाए तो दीवाली और होली का नाम नि:सन्देह काफी ऊपर होगा । इसलिए अपने देश की इस अनमोल धरोहर को उसके सही परिप्रेक्ष्य में समझें और उसकी न सिर्फ रक्षा करें बल्कि उसमें नए संदर्भ, नए अर्थ, नए मूल्य और नए लक्ष्य भी भरें ।
तमसो मा ज्योतिर्गमय
आचार्य डॉ. संजय देव (दिव्ययुग)
दीपावाली ज्योति पर्व है । यह अन्धेरे से प्रकाश की ओर चलने का पवित्र संकल्प है । बुराइयों की कालिमा को चीरकर अच्छाइयों का उजास फैलाने का प्रतीक हैं । काल के भाल पर जीवन ज्योति जलाने का शाश्वत अनुष्ठान है ।
निर्धनता और दरिद्रता के कोहरे को छांट कर श्री समृद्धि का वरण है और है निराशा व नाउम्मीदी के घटाटोप में आशा और चारों से ओर विश्वास की किरण । सचमुच दीपावली का छटा अनूठी और निराली है । यों तो हर पर्व व्यक्ति और समाज को नई ऊर्जा से भरता है, लेकिन दीपावली की बात ही कुछ और है । इसके आंचल में तो हर ओर सल्मा-सितारे जड़े हैं । इसकी चमक-दमक के आगे सब फीके पड़ जाते हैं । होली ओर दीवाली भारत के दो ऐसे पर्व हैं जिनकी तुलना दुनिया के किसी भी महान उत्सव से नहीं की जा सकती है ।
यदि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर श्रेष्ठ पर्वो की कोई सूची बनाइ जाए तो दीवाली और होली का नाम नि:सन्देह काफी ऊपर होगा । इसलिए अपने देश की इस अनमोल धरोहर को उसके सही परिप्रेक्ष्य में समझें और उसकी न सिर्फ रक्षा करें बल्कि उसमें नए संदर्भ, नए अर्थ, नए मूल्य और नए लक्ष्य भी भरें ।
सबसे पहले दीपावली के पौराणिक और ऐतिहासिक स्वरूप पर नजर डालें । कहते हैं भगवान श्रीराम ने अपने चौदह वर्ष के वनवास के दौरान विजयादशमी के दिन अन्याय और अनाचार के दानव रावण का वध किया । फिर लंका विभीषण को सौंप कर वे अनुज लक्ष्मण और धर्मपत्नी सीता सहित अयोध्या को वापस लौटे । इस खुशी के मौके पर अयोध्यावासियों ने घर-घर दीप जलाकर अपने राजा राम का स्वागत किया । तभी से परम्परा चली आ रही है । अमावस की स्याह रात में पूरे उत्साह और आवेग से धरती सितारों से सज जाती है । हर ओर चिराग ही चिराग, हर ओर रोशनी ही रोशनी । ऐतिहासिक संदर्भ यही है कि दीपावली मनाने का औचित्य तभी है जब अन्याय, अनर्थ, दुराचार और दमन का प्रतिकार करते हुए उस पर विजय प्राप्त् कर लें । राम ने वनवास लिया ही इसलिए था कि रावण का अन्त किया जा सके । इसलिए दीपावली हमें इस बात की याद दिलाती है कि अपने समय के रावण का हम पहले अन्त करें ।
आज के युग के रावण कौन हैं ? आज सबसे प्रबल राक्षसी प्रवृत्तियाँ क्या हैं ? राष्ट्रीय जीवन पर नजर डालें तो भ्रष्टाचार सबसे बड़ा दानव बनकर सामने आता हैं । आज इस बात की जरूरत है कि आम जनता इस राक्षसी प्रवृत्ति के खिलाफ शंखनाद करे और उसे जड़मूल से उखाड़ फेंके । यानि भ्रष्टाचार की कब्र पर जब हम सदाचार के दीप जलाएंगे, तभी दीपावली सही मायनों में राष्ट्रीय पर्व होगा । इसी तरह सामाजिक स्तर पर गौर करें तो साम्प्रदायिकता, जातिवाद, दहेज-हत्या और बलात्कार जैसी घोर दानवी प्रवृत्ति नजर आती हैं । घर-घर में दीप तभी जलेगा जब इन घोर दानवीय प्रवृत्तियों की आग से घर बचे रहें । तभी सामाजिक जीवन में सहयोग और भाई-चारे का दीप जलेगा । इसी तरह जिस दीप को जलाकर हम ज्योति, अग्नि और रोशनी को नमन करे हैं, क्या उसकी आग में बहुआें को होम कर देना दीपावली का अपमान नहीं है ? इसकी कालिमा से अपने समाज को बचाएं । बलात्कार तो और भी बड़ा दानव है । भगवान श्रीराम ने उस रावण का अन्त किया जिसने पवित्रता की मूर्ति सीता का अपहरण कर लिया था । आज हमारे समाज में सीताआें का अपहरण और बलात्कार करने वालों की तादाद बड़ी तेजी से बढ़ रही है । तो आइए ! इन रावणों के अन्त का भी हम संकल्प लें ।
ऐतिहासिक रूप से दीपावली बिछुड़ें हुए अपनों के पुनर्मिलन का सुखद उच्छवास है । वनवास की अवधि पूरी हुई तो कौशल्या को राम मिले, सुमित्रा को लक्ष्मण मिले, विरहणी पत्नी उर्मिला को पति मिले, अयोध्यावासियों को राजा राम मिले और भरत को अपने आराध्य राम मिले ।
यह इस बात का प्रतीक है कि हम पूरी लगन और पूरे धैर्य से कर्त्तव्य पथ पर डटे रहें और उम्मीद की डोर पकड़े रहे तो हर्षोल्लास का दीप जलाने का सुनहरा मौका आता ही है । आज के जीवन में विभिन्न कारणों से पति - पत्नी में विच्छेद, पिता-पुत्र में वैमनस्य, भाई-भाई में विरोध, मां-बेटे में विच्छेद बढ़ता ही जा रहा है । हजारों बच्च्े व हजारों नर-नारी अपने घरों को छोड़े जा रहे हैं, कहीं वनवास काट रहे हैं । पुनर्मिलन का यह पर्व दीपावली हमें इस बात के लिए प्रेरित करता है कि हम गिले-शिकवों को भूलकर, दूर कर फिर से अपने नीड़ में लौट जाएं । अपनों के गले से लिपट जाएं । यह एक सामाजिक मुहिम होगी । स्वार्थ को अपनाकर अपनों को बिछुड़ने न दें, बिछुड़े हुए अपनों का स्वागत करें, जीवन-दीप में स्नेह भरें।
अब देखें कि हम सब आज दीपावली किस तरह मनाते हैं । मौटे तौर पर यह रंग-बिरंगे बल्बों की लड़ियाँ सजा लेने, कानफाडू पटाखे छोड़ लेने, एक-दूसरे के घर मिठाइयों और उपहारों की खेप पहुंचा देने और जुआ खेल लेने का पर्व बन कर रह गया है । पारम्पारिक रूप से दीपावली के साथ स्वच्छता, सफाई, सौभ्यता और आस्था का जो भाव होता था, वह आज तिरोहित हो गया है । गांवों में अब भी दीपावली का पारम्परिक स्वरूप काफी हद तक बरकरार है । विजयादशमी से लेकर दीपावली तक पूरे गांव की सफाई का अभियान सा चलता है । घर-घर, गली-गली गन्दगी दूर करने की मुहिम चलती है । लक्ष्मी के स्वागत का पवित्र भाव होता है । आज शहरों में देखें तो हमें गन्दगी के साम्राज्य के बीच कभी मलेरिया का भय और कभी डेंग के भूत मण्डराते नजर आते हैं ।
दीवाली तो पर्व ही इस बात का है कि अपने घर-नगर, वातावरण पर्यावरण को साफ-सुथरा रखें । तो दीपावली का यह महान सन्देश है कि हम सफाई और स्वच्छता को एक राष्ट्रीय और सामाजिक अभियान बनाएं । दीवाली में पारम्परिक रूप से घी और तेल के दीये जलाए जाते थे । गावों में दीवाली का अब भी यही ढंग प्रचलित है । तेल और घी के जलने से जो एक पवित्र खुशबू फैलती है उसमें आस्था और धार्मिकता के भाव सहज ही प्रस्फुरित होते हैं । गांवों में दीवाली पर दीये की कतारों को देखें तो उसकी महीन रोशनी में एक अलग ही रहस्यात्मक, आशावादी अनुभूति होती है । यह बात चकाचौंध करनी वाली लाइट में नहीं होती । फिर एक रात में जिस तरह से लाखों करोड़ों रूपये के पटाखे छोड़ दिए जाते हैं और जिनकी धमक से सारा क्षेत्र दहलता रहता है, वह एक विकृति से ज्यादा कुछ नहीं ।
हर साल अग्नि-शमन कर्मचारी दीवाली को रात भर आग बुझाने और जान-माल बचाने में लगे रहते हैं । कितने ही घर उस दिन जल जाते हैं, कितने ही लोगों की जानें चली जाती हैं, कितनी ही आंखों की ज्योति चली जाती है और कितने ही ह्वदय-रोगी मौत के मुंह में चले जाते है । आखिर दीवाली मनाने का यह ताण्डव स्वरूप क्यों हो गया है ? सरकार चाहे तो इस पटाखा उद्योग को काफी हद तक नियंत्रित कर सकती है । घातक और शोर करने वाले पटाखे बनाने और बेचने वालों पर पाबन्दी लगे और उल्लघंन करने वालों को सजा मिले । दीपावली में एक खास किस्म की सौम्यता और मधुरता होनी चाहिए । उसे इस तेज धूम-धड़ाके और शोर में डुबो देने से भला क्या लाभ ? इसी तरह दीपावली के साथ जुआ अभिन्न रूप से जुड़ गया है जो कभी जुआ नहीं खेलता वह भी दिवाली की रात अपने हाथ आजमा लेता है ।
कुछ लोगों के लिए तो दीपावली का मतलब ही सिर्फ जुआ है । दीवाली के कोई महीना भर पहले से ही कौड़ियों और ताश के पत्ते के जरिए नुक्कड़ों, घरों और क्लबों में जुए का दौर शुरू हो जाता है । एक अन्ध विश्वास है कि दीवाली की रात जुंए में जो जीत गया, वह सालों भर मालोमाल रहेगा । जुए के खेल में कितने घर तबाह हो जाते हैं, इसका अन्दाजा लगाना बड़ा मुश्किल है । इसी जुए के आधुनिक रूप विभिन्न व्यावसायिक लाटरियों और शेयर्स के रूप में चल रहे है ।
आज के युग के रावण कौन हैं ? आज सबसे प्रबल राक्षसी प्रवृत्तियाँ क्या हैं ? राष्ट्रीय जीवन पर नजर डालें तो भ्रष्टाचार सबसे बड़ा दानव बनकर सामने आता हैं । आज इस बात की जरूरत है कि आम जनता इस राक्षसी प्रवृत्ति के खिलाफ शंखनाद करे और उसे जड़मूल से उखाड़ फेंके । यानि भ्रष्टाचार की कब्र पर जब हम सदाचार के दीप जलाएंगे, तभी दीपावली सही मायनों में राष्ट्रीय पर्व होगा । इसी तरह सामाजिक स्तर पर गौर करें तो साम्प्रदायिकता, जातिवाद, दहेज-हत्या और बलात्कार जैसी घोर दानवी प्रवृत्ति नजर आती हैं । घर-घर में दीप तभी जलेगा जब इन घोर दानवीय प्रवृत्तियों की आग से घर बचे रहें । तभी सामाजिक जीवन में सहयोग और भाई-चारे का दीप जलेगा । इसी तरह जिस दीप को जलाकर हम ज्योति, अग्नि और रोशनी को नमन करे हैं, क्या उसकी आग में बहुआें को होम कर देना दीपावली का अपमान नहीं है ? इसकी कालिमा से अपने समाज को बचाएं । बलात्कार तो और भी बड़ा दानव है । भगवान श्रीराम ने उस रावण का अन्त किया जिसने पवित्रता की मूर्ति सीता का अपहरण कर लिया था । आज हमारे समाज में सीताआें का अपहरण और बलात्कार करने वालों की तादाद बड़ी तेजी से बढ़ रही है । तो आइए ! इन रावणों के अन्त का भी हम संकल्प लें ।
ऐतिहासिक रूप से दीपावली बिछुड़ें हुए अपनों के पुनर्मिलन का सुखद उच्छवास है । वनवास की अवधि पूरी हुई तो कौशल्या को राम मिले, सुमित्रा को लक्ष्मण मिले, विरहणी पत्नी उर्मिला को पति मिले, अयोध्यावासियों को राजा राम मिले और भरत को अपने आराध्य राम मिले ।
यह इस बात का प्रतीक है कि हम पूरी लगन और पूरे धैर्य से कर्त्तव्य पथ पर डटे रहें और उम्मीद की डोर पकड़े रहे तो हर्षोल्लास का दीप जलाने का सुनहरा मौका आता ही है । आज के जीवन में विभिन्न कारणों से पति - पत्नी में विच्छेद, पिता-पुत्र में वैमनस्य, भाई-भाई में विरोध, मां-बेटे में विच्छेद बढ़ता ही जा रहा है । हजारों बच्च्े व हजारों नर-नारी अपने घरों को छोड़े जा रहे हैं, कहीं वनवास काट रहे हैं । पुनर्मिलन का यह पर्व दीपावली हमें इस बात के लिए प्रेरित करता है कि हम गिले-शिकवों को भूलकर, दूर कर फिर से अपने नीड़ में लौट जाएं । अपनों के गले से लिपट जाएं । यह एक सामाजिक मुहिम होगी । स्वार्थ को अपनाकर अपनों को बिछुड़ने न दें, बिछुड़े हुए अपनों का स्वागत करें, जीवन-दीप में स्नेह भरें।
अब देखें कि हम सब आज दीपावली किस तरह मनाते हैं । मौटे तौर पर यह रंग-बिरंगे बल्बों की लड़ियाँ सजा लेने, कानफाडू पटाखे छोड़ लेने, एक-दूसरे के घर मिठाइयों और उपहारों की खेप पहुंचा देने और जुआ खेल लेने का पर्व बन कर रह गया है । पारम्पारिक रूप से दीपावली के साथ स्वच्छता, सफाई, सौभ्यता और आस्था का जो भाव होता था, वह आज तिरोहित हो गया है । गांवों में अब भी दीपावली का पारम्परिक स्वरूप काफी हद तक बरकरार है । विजयादशमी से लेकर दीपावली तक पूरे गांव की सफाई का अभियान सा चलता है । घर-घर, गली-गली गन्दगी दूर करने की मुहिम चलती है । लक्ष्मी के स्वागत का पवित्र भाव होता है । आज शहरों में देखें तो हमें गन्दगी के साम्राज्य के बीच कभी मलेरिया का भय और कभी डेंग के भूत मण्डराते नजर आते हैं ।
दीवाली तो पर्व ही इस बात का है कि अपने घर-नगर, वातावरण पर्यावरण को साफ-सुथरा रखें । तो दीपावली का यह महान सन्देश है कि हम सफाई और स्वच्छता को एक राष्ट्रीय और सामाजिक अभियान बनाएं । दीवाली में पारम्परिक रूप से घी और तेल के दीये जलाए जाते थे । गावों में दीवाली का अब भी यही ढंग प्रचलित है । तेल और घी के जलने से जो एक पवित्र खुशबू फैलती है उसमें आस्था और धार्मिकता के भाव सहज ही प्रस्फुरित होते हैं । गांवों में दीवाली पर दीये की कतारों को देखें तो उसकी महीन रोशनी में एक अलग ही रहस्यात्मक, आशावादी अनुभूति होती है । यह बात चकाचौंध करनी वाली लाइट में नहीं होती । फिर एक रात में जिस तरह से लाखों करोड़ों रूपये के पटाखे छोड़ दिए जाते हैं और जिनकी धमक से सारा क्षेत्र दहलता रहता है, वह एक विकृति से ज्यादा कुछ नहीं ।
हर साल अग्नि-शमन कर्मचारी दीवाली को रात भर आग बुझाने और जान-माल बचाने में लगे रहते हैं । कितने ही घर उस दिन जल जाते हैं, कितने ही लोगों की जानें चली जाती हैं, कितनी ही आंखों की ज्योति चली जाती है और कितने ही ह्वदय-रोगी मौत के मुंह में चले जाते है । आखिर दीवाली मनाने का यह ताण्डव स्वरूप क्यों हो गया है ? सरकार चाहे तो इस पटाखा उद्योग को काफी हद तक नियंत्रित कर सकती है । घातक और शोर करने वाले पटाखे बनाने और बेचने वालों पर पाबन्दी लगे और उल्लघंन करने वालों को सजा मिले । दीपावली में एक खास किस्म की सौम्यता और मधुरता होनी चाहिए । उसे इस तेज धूम-धड़ाके और शोर में डुबो देने से भला क्या लाभ ? इसी तरह दीपावली के साथ जुआ अभिन्न रूप से जुड़ गया है जो कभी जुआ नहीं खेलता वह भी दिवाली की रात अपने हाथ आजमा लेता है ।
कुछ लोगों के लिए तो दीपावली का मतलब ही सिर्फ जुआ है । दीवाली के कोई महीना भर पहले से ही कौड़ियों और ताश के पत्ते के जरिए नुक्कड़ों, घरों और क्लबों में जुए का दौर शुरू हो जाता है । एक अन्ध विश्वास है कि दीवाली की रात जुंए में जो जीत गया, वह सालों भर मालोमाल रहेगा । जुए के खेल में कितने घर तबाह हो जाते हैं, इसका अन्दाजा लगाना बड़ा मुश्किल है । इसी जुए के आधुनिक रूप विभिन्न व्यावसायिक लाटरियों और शेयर्स के रूप में चल रहे है ।
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