विशेष लेख
भूमि हड़पकर खाघान्न सुरक्षा
विनीता विश्वनाथन
विश्व के कई रईस देशोंके लिए खाघ सुरक्षा एक बड़ी समस्या है जो आने वाले सालों में चुनौती बनी रहेगी । कुछ अन्य देश भयंकर आर्थिक और खाद्य संकट से गुजर रहे हैं । इन परिस्थितियों में एक प्रवृत्ति उभरती नजर आ रही है । दूसरे देशों की तुलना में रईस और साथ में खाद्य असुरक्षित देशों की सरकार व निजी कम्पनियों द्वारा गरीब देशों में बड़े पैमाने पर कृषि जमीन को खरीदना या पट्टा लेना । यह इतना प्रचलित हो गया है कि इसके लिए एक नाम गढ़ा गया है - लैंड ग्रैब ।
लैंड ग्रैब का मतलब है कि जहां ज्यादातर छोटी जमीन पर किसान खाद्य फसल उंगा रहे थे, वहां अब बड़ी-बड़ी कम्पनियां और समूह पैठ जमाने लगे हैं और सीमित खाद्य संसाधन उनके हाथों में जा रहा है । इसके कुछ फायदे भी हैं और कुछ खतरे भी । लेकिन इस बहस में उतरने के लिए यह जानना जरूरी है कि आखिर लैंड ग्रैब वाली जमीन पर खेती करके खाद्य सुरक्षा का हल निकल सकता है या नहीं ।
भूमि हड़पकर खाघान्न सुरक्षा
विनीता विश्वनाथन
विश्व के कई रईस देशोंके लिए खाघ सुरक्षा एक बड़ी समस्या है जो आने वाले सालों में चुनौती बनी रहेगी । कुछ अन्य देश भयंकर आर्थिक और खाद्य संकट से गुजर रहे हैं । इन परिस्थितियों में एक प्रवृत्ति उभरती नजर आ रही है । दूसरे देशों की तुलना में रईस और साथ में खाद्य असुरक्षित देशों की सरकार व निजी कम्पनियों द्वारा गरीब देशों में बड़े पैमाने पर कृषि जमीन को खरीदना या पट्टा लेना । यह इतना प्रचलित हो गया है कि इसके लिए एक नाम गढ़ा गया है - लैंड ग्रैब ।
लैंड ग्रैब का मतलब है कि जहां ज्यादातर छोटी जमीन पर किसान खाद्य फसल उंगा रहे थे, वहां अब बड़ी-बड़ी कम्पनियां और समूह पैठ जमाने लगे हैं और सीमित खाद्य संसाधन उनके हाथों में जा रहा है । इसके कुछ फायदे भी हैं और कुछ खतरे भी । लेकिन इस बहस में उतरने के लिए यह जानना जरूरी है कि आखिर लैंड ग्रैब वाली जमीन पर खेती करके खाद्य सुरक्षा का हल निकल सकता है या नहीं ।
ऐसा एक विश्लेषण इटली का मारिया क्रिस्टीना रूली और अमेरिका के पाओलो ड-ओरिको ने मिलकर किया है जो हाल ही में एन्वायमेंटल रिसर्च लेटर्स पत्रिका में छपा है ।
इन दोनों ने हिसाब लगाया है कि सन २००० से लगभग ३.१ करोड़ हेक्टर कृषि जमीन विश्व भर में विदेशी निवेशकों ने खरीदी है । ज्यादातर सौदे २००८ के बाद ही हुए हैं और अफ्रीका और एशिया के जिन देशों में ये जमीनें प्राप्त् की गई हैं, वे विश्व के सबसे गरीब, भूखे और कुपोषित देश हैं ।
जिस जमीन की यहां बात हो रही है वह २०० हैक्टर से ज्यादा क्षेत्रफल वाली जमीनें है । इनके बारे में खरीददारों का कहना है कि वे इसका इस्तेमाल खेती-बाडी के लिए ही करेंगे । अलग-अलग देशों में हुए और हो रहे सौदे मेजबान सरकारों की सहमति से, और कहींं-कहीं उनकी मदद से हो रहे है ।
और यह सब कृषि में बेहतर निवेश के नाम पर हो रहा है । ये लैंड ग्रैब डील्स किसके निरीक्षण में हो रही है, क्या कमिटमेंट है खरीददारों के कि वही फसलें उगाएंगे जो पहले उस जमीन पर थीं, क्या गारंटी है कि ज्यादा मुनाफे के लिए गैर-खाद्य फसल नहीं उगाएंगे ? इन सवालों के जवाब मुश्किल हो मगर आगे बढ़ने से पहले जरूरी हैं ।
शोधकर्ताआें को यह डॉटा लैंड-मेट्रिक्स वेबसाइट से मिला है जो अंतर्राष्ट्रीय और देशी जमीन के सौदों की सूचना रखता है । इस वेबसाइट पर मीडिया में प्रकाशित सौदे शामिल हैं और अन्य स्त्रोतों से भी डाटा लिया गया है । साथ में कोई भी, कहीं भी हो रहे सौदों के बारे में सूचना भेज सकता है और वेबसाइट के शोधकर्ताआें उसकी छानबीन करते हैं । हो सकता है कि उनके पास सारे सौदों की सूची न हो - उनका डाटा अधूरा हो सकता है । रूली और ड-ओरिको ने अपने विश्लेषण में सिर्फ उन सौदों को शामिल किया है जो पूरे हो चुके हैं और जिनकी जमीन के क्षेत्रफल की जानकारी पक्की है । फिर उन्होनें अनुमान लगाया कि अब तक लैंड-ग्रैब द्वारा खरीदी हुई जमीन पर लगभग १९ से ५५ करोड़ लोगों के लिए खाद्य पदार्थ उगाया जा सकता है । अगर जमीन पर उच्च्तम फसल हो तो ५५ करोड़ लोगों के लिए खाघान्न पैदा हो सकता है और अगर सन् २००० के स्तर उपर उपज हो तो १९ करोड़ लोगों के पोषण का इन्तजाम हो सकता है । १९ या ५५ करोड़, यह तो बढ़िया खबर है कि विश्व की खाद्य असुरक्षा का काफी हद तक हल हो सकता है ।
यह तो स्पष्ट है कि जिन देशों में ऐसे बड़े सौदे हो रहे हैं वहां कृषि और सशक्त बनाई जा सकती है। छोटे खेतों में फसल उगाने वाले गरीब किसान पैसों की कमी के कारण उपज बढ़ाने के तरीकों को नहीं अपना पाते हैं । नतीजा यह हैं कि उनके खेतों में फसल उच्च्तम उपज से काफी कम होती है - वर्तमान में यथेष्ट से कम उपज एशिया और अफ्रीका के देशों में होती है । यानी उपज बढ़ाने की संभावना तो है । लेकिन यह उपज स्थानीय लोगों के पास पहुंचेगी, यह कहना मुश्किल है ।
निवेशक अपने मुनाफे का ही सोचते है और फसल वहां बेचते हैं जहां मुनाफा सबसे अधिक हो । इसमें कोई बुरी बात न होती अगर स्थानीय लोगों का नुकसान न होता । दिक्कत यह है कि जिन देशों में, जिन इलाकों में ऐसे लैंड-ग्रैब हुए हैं, वहां के लोग गरीबी और भूख से त्रस्त है । जमीन बेचकर उनका अल्पकालिक फायदा तो हुआ होगा लेकिन उनकी दीर्घकालीन खाद्य असुरक्षा तो और भी गंभीर हो गई है।
मसलन कतर देश की सिर्फ १ प्रतिशत जमीन उपजाऊ है । तो कतर की सरकार ने अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए केन्या, सूडान, वियतनाम और कम्बोडिया में ४० हजार हेक्टर जमीन तेल, गेहूं, धान और मक्का उगाने के लिए खरीदी है । जाहिर है कतर के निवासियों के लिए इन्तजाम हो गया है, लेकिन सुडान वगैरह के निवासियों का क्या होगा ? कतर द्वारा सूडान में पैदा फसल के स्थानीय लोगों तक पहुंचने की संभावना कम ही है ।
फिर जमीन अक्सर हजारों छोटे व निर्वाह स्तर की खेती करने वाले किसानों से खरीदी गई हैं । अगर यही हाल रहा तो छोटे किसानों के लिए भविष्य में कम जगह होगी । तो समस्या सिर्फ जमीन या उपज के भविष्य की नहीं है, किसानों के भविष्य की भी है ।
इससे जुड़ा एक और मसला है न्यायपूर्ण सौदे का । कुछ देशों में देशी सरकारें ऐसे सौदे करवाने में विदेशियों की मदद इस तरह से कर रही हैं कि किसानों से जमीन छुड़वाई जा रही है, बल प्रयोग हो रहा है ताकि कम दामों पर किसान जमीन बेचने पर विवश हो जाएं । कई बार किसानों को पुनर्स्थापन में मदद भी नहीं मिलती ।
इन सब समस्याआें को देखते हुए देशी सरकारों और विदेशी खरीददारों की नीयत पर शंका होती है । अगर लोगों के पास पूरी जानकारी होती, ऐसे सौदों के निहितार्थो की समझ होती तो क्या पता, जमीन बेचने का निर्णय लेते ही नहीं । या जहां पर लोगों की पूरी सहमति है, वहां भी सरकार का तो दूरदर्शी होना चाहिए - आखिर उपनिवेश काल के बुरे प्रभावों के बारे में इतिहास से तो हम सीख ही सकते हैं । उदाहरण के लिए पाकिस्तान में १० लाख हैक्टर कृषि जमीन को विदेशी निवेशकों के हवाले कर दिया गया है । पाकिस्तान की आधी आबादी खाद्य असुरक्षा का सामना कर रही है । ऐसे में, पाकिस्तान की आधी आबादी खाद्य असुरक्षा का सामना कर रही है । ऐसे में, पाकिस्तान सरकार का निवेश आकर्षित करने के लिए यह निर्णय उनके लोगोंके लिए नुकसानदेह हो सकता है । मगर पाकिस्तान सरकार आगे भी ऐसा करने की सोच रही है।
तो भारत की क्या भूमिका है ? लैंड मेट्रिक्स वेबसाइट पर दिए गए डाटा के मुताबिक विदेशी निवेशकोंका हमारे देश में दखल अभी तक कम है । लेकिन गौरतलब है कि भारतीय कंपनियां दूसरे देशों में कृषि जमीन खरीद रही हैं, लैंड-ग्रैब कर रही हैं । उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक हमारी कंपनियों ने मोजाम्बिक, मैडागास्कर, मलेशिया, इंडोनेशिया, इथियोपिया और सूडान समेत १७ देशों में ९ लाख हैक्टर से ज्यादा जमीन खरीदी है । इसमें से ९ देशों में भारतीय कंपनियों ने खाद्य फसल के लिए २.८८ लाख हैक्टर जमीन खरीदी है । इथियोपिया में तो भारतीय कंपनियों ने १ लाख हैक्टर से ज्यादा खाद्य फसल की जमीन खरीदी है । अन्य किस्म की जमीन को जोड़ दें तो कुल मिलाकर इन कंपनियों ने ४ लाख हैक्टर से भी ज्यादा जमीन खरीदी है या फिर लम्बे समय के लिए पट्टा लिया है । तो लैंड-ग्रैब के मामले में हम सिर्फ पीड़ित नहीं है, हम समस्या का हिस्सा भी हैं ।
कुल मिलाकर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि अगर हम खाद्य सुरक्षा के लिए उपज बढ़ाना चाहते हैं तो कृषि में अधिक निवेश की जरूरत है । लेकिन निवेश का क्या सिर्फ यही तरीका है लैंड-ग्रैब ? क्या लैंड-ग्रैब के नियम सिर्फ खरीददारों और अल्पकालीन आर्थिक फायदों की बजाय स्थानीय लोगों के दीर्घकालीन हितों के अनुरूप बनाए जा सकते हैं ?
इन दोनों ने हिसाब लगाया है कि सन २००० से लगभग ३.१ करोड़ हेक्टर कृषि जमीन विश्व भर में विदेशी निवेशकों ने खरीदी है । ज्यादातर सौदे २००८ के बाद ही हुए हैं और अफ्रीका और एशिया के जिन देशों में ये जमीनें प्राप्त् की गई हैं, वे विश्व के सबसे गरीब, भूखे और कुपोषित देश हैं ।
जिस जमीन की यहां बात हो रही है वह २०० हैक्टर से ज्यादा क्षेत्रफल वाली जमीनें है । इनके बारे में खरीददारों का कहना है कि वे इसका इस्तेमाल खेती-बाडी के लिए ही करेंगे । अलग-अलग देशों में हुए और हो रहे सौदे मेजबान सरकारों की सहमति से, और कहींं-कहीं उनकी मदद से हो रहे है ।
और यह सब कृषि में बेहतर निवेश के नाम पर हो रहा है । ये लैंड ग्रैब डील्स किसके निरीक्षण में हो रही है, क्या कमिटमेंट है खरीददारों के कि वही फसलें उगाएंगे जो पहले उस जमीन पर थीं, क्या गारंटी है कि ज्यादा मुनाफे के लिए गैर-खाद्य फसल नहीं उगाएंगे ? इन सवालों के जवाब मुश्किल हो मगर आगे बढ़ने से पहले जरूरी हैं ।
शोधकर्ताआें को यह डॉटा लैंड-मेट्रिक्स वेबसाइट से मिला है जो अंतर्राष्ट्रीय और देशी जमीन के सौदों की सूचना रखता है । इस वेबसाइट पर मीडिया में प्रकाशित सौदे शामिल हैं और अन्य स्त्रोतों से भी डाटा लिया गया है । साथ में कोई भी, कहीं भी हो रहे सौदों के बारे में सूचना भेज सकता है और वेबसाइट के शोधकर्ताआें उसकी छानबीन करते हैं । हो सकता है कि उनके पास सारे सौदों की सूची न हो - उनका डाटा अधूरा हो सकता है । रूली और ड-ओरिको ने अपने विश्लेषण में सिर्फ उन सौदों को शामिल किया है जो पूरे हो चुके हैं और जिनकी जमीन के क्षेत्रफल की जानकारी पक्की है । फिर उन्होनें अनुमान लगाया कि अब तक लैंड-ग्रैब द्वारा खरीदी हुई जमीन पर लगभग १९ से ५५ करोड़ लोगों के लिए खाद्य पदार्थ उगाया जा सकता है । अगर जमीन पर उच्च्तम फसल हो तो ५५ करोड़ लोगों के लिए खाघान्न पैदा हो सकता है और अगर सन् २००० के स्तर उपर उपज हो तो १९ करोड़ लोगों के पोषण का इन्तजाम हो सकता है । १९ या ५५ करोड़, यह तो बढ़िया खबर है कि विश्व की खाद्य असुरक्षा का काफी हद तक हल हो सकता है ।
यह तो स्पष्ट है कि जिन देशों में ऐसे बड़े सौदे हो रहे हैं वहां कृषि और सशक्त बनाई जा सकती है। छोटे खेतों में फसल उगाने वाले गरीब किसान पैसों की कमी के कारण उपज बढ़ाने के तरीकों को नहीं अपना पाते हैं । नतीजा यह हैं कि उनके खेतों में फसल उच्च्तम उपज से काफी कम होती है - वर्तमान में यथेष्ट से कम उपज एशिया और अफ्रीका के देशों में होती है । यानी उपज बढ़ाने की संभावना तो है । लेकिन यह उपज स्थानीय लोगों के पास पहुंचेगी, यह कहना मुश्किल है ।
निवेशक अपने मुनाफे का ही सोचते है और फसल वहां बेचते हैं जहां मुनाफा सबसे अधिक हो । इसमें कोई बुरी बात न होती अगर स्थानीय लोगों का नुकसान न होता । दिक्कत यह है कि जिन देशों में, जिन इलाकों में ऐसे लैंड-ग्रैब हुए हैं, वहां के लोग गरीबी और भूख से त्रस्त है । जमीन बेचकर उनका अल्पकालिक फायदा तो हुआ होगा लेकिन उनकी दीर्घकालीन खाद्य असुरक्षा तो और भी गंभीर हो गई है।
मसलन कतर देश की सिर्फ १ प्रतिशत जमीन उपजाऊ है । तो कतर की सरकार ने अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए केन्या, सूडान, वियतनाम और कम्बोडिया में ४० हजार हेक्टर जमीन तेल, गेहूं, धान और मक्का उगाने के लिए खरीदी है । जाहिर है कतर के निवासियों के लिए इन्तजाम हो गया है, लेकिन सुडान वगैरह के निवासियों का क्या होगा ? कतर द्वारा सूडान में पैदा फसल के स्थानीय लोगों तक पहुंचने की संभावना कम ही है ।
फिर जमीन अक्सर हजारों छोटे व निर्वाह स्तर की खेती करने वाले किसानों से खरीदी गई हैं । अगर यही हाल रहा तो छोटे किसानों के लिए भविष्य में कम जगह होगी । तो समस्या सिर्फ जमीन या उपज के भविष्य की नहीं है, किसानों के भविष्य की भी है ।
इससे जुड़ा एक और मसला है न्यायपूर्ण सौदे का । कुछ देशों में देशी सरकारें ऐसे सौदे करवाने में विदेशियों की मदद इस तरह से कर रही हैं कि किसानों से जमीन छुड़वाई जा रही है, बल प्रयोग हो रहा है ताकि कम दामों पर किसान जमीन बेचने पर विवश हो जाएं । कई बार किसानों को पुनर्स्थापन में मदद भी नहीं मिलती ।
इन सब समस्याआें को देखते हुए देशी सरकारों और विदेशी खरीददारों की नीयत पर शंका होती है । अगर लोगों के पास पूरी जानकारी होती, ऐसे सौदों के निहितार्थो की समझ होती तो क्या पता, जमीन बेचने का निर्णय लेते ही नहीं । या जहां पर लोगों की पूरी सहमति है, वहां भी सरकार का तो दूरदर्शी होना चाहिए - आखिर उपनिवेश काल के बुरे प्रभावों के बारे में इतिहास से तो हम सीख ही सकते हैं । उदाहरण के लिए पाकिस्तान में १० लाख हैक्टर कृषि जमीन को विदेशी निवेशकों के हवाले कर दिया गया है । पाकिस्तान की आधी आबादी खाद्य असुरक्षा का सामना कर रही है । ऐसे में, पाकिस्तान की आधी आबादी खाद्य असुरक्षा का सामना कर रही है । ऐसे में, पाकिस्तान सरकार का निवेश आकर्षित करने के लिए यह निर्णय उनके लोगोंके लिए नुकसानदेह हो सकता है । मगर पाकिस्तान सरकार आगे भी ऐसा करने की सोच रही है।
तो भारत की क्या भूमिका है ? लैंड मेट्रिक्स वेबसाइट पर दिए गए डाटा के मुताबिक विदेशी निवेशकोंका हमारे देश में दखल अभी तक कम है । लेकिन गौरतलब है कि भारतीय कंपनियां दूसरे देशों में कृषि जमीन खरीद रही हैं, लैंड-ग्रैब कर रही हैं । उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक हमारी कंपनियों ने मोजाम्बिक, मैडागास्कर, मलेशिया, इंडोनेशिया, इथियोपिया और सूडान समेत १७ देशों में ९ लाख हैक्टर से ज्यादा जमीन खरीदी है । इसमें से ९ देशों में भारतीय कंपनियों ने खाद्य फसल के लिए २.८८ लाख हैक्टर जमीन खरीदी है । इथियोपिया में तो भारतीय कंपनियों ने १ लाख हैक्टर से ज्यादा खाद्य फसल की जमीन खरीदी है । अन्य किस्म की जमीन को जोड़ दें तो कुल मिलाकर इन कंपनियों ने ४ लाख हैक्टर से भी ज्यादा जमीन खरीदी है या फिर लम्बे समय के लिए पट्टा लिया है । तो लैंड-ग्रैब के मामले में हम सिर्फ पीड़ित नहीं है, हम समस्या का हिस्सा भी हैं ।
कुल मिलाकर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि अगर हम खाद्य सुरक्षा के लिए उपज बढ़ाना चाहते हैं तो कृषि में अधिक निवेश की जरूरत है । लेकिन निवेश का क्या सिर्फ यही तरीका है लैंड-ग्रैब ? क्या लैंड-ग्रैब के नियम सिर्फ खरीददारों और अल्पकालीन आर्थिक फायदों की बजाय स्थानीय लोगों के दीर्घकालीन हितों के अनुरूप बनाए जा सकते हैं ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें