ध्वनि प्रदूषण से पक्षियों की जीवन शैली प्रभावित
ध्वनि प्रदूषण यदि मानव जाति के लिए खतरा खड़ा कर सकता है तो पक्षियों के लिए क्यों नहीं। पक्षियों के लिए सबसे बड़ा खतरा यही हैकि उनके यौन जीवन पर मानव निर्मित ध्वनि प्रदूषण कुठाराघात कर रहा है। जंगलों तक में मानव का ध्वनि प्रदूषण पहुँच चुका है। दरअसल इस प्रदूषण से नर पक्षी का प्रेम गीत मादा पक्षी को सुनाई नहीं देता है।
चूँकि पक्षी आपसी संवाद चहचहाने के जरिए ही करते हैं, अत: ध्वनि प्रदूषण या शोरगुल का वातावरण उनके संवाद को बाधित करता है। साथ ही इसी शोरगुल के कारण वे शौन संबंध कायम नहीं कर पाते हैं। ध्वनि प्रदूषण के कारण उनके यौन संबंधों में १५ फीसदी कमी आई है।
जर्नल ऑफ एप्लाइड इकॉलॉजी यूनिवर्सिटी ऑफ अल्बर्टा के सहायक शोधकर्ता एरिन बायने ने कनाडा के अल्बर्टा इलाके में जंगल में लगे एक कम्प्रेसर स्टेशन के पास ध्वनि प्रदूषण वाले इलाके में और शांत इलाके में सेइरस ऑरोकैपिला के सहवास का अध्ययन किया गया। कम्प्रेशर स्टेशन में पाइप लाइन में प्रेशर डालने में खासा शोर होता है। यह देखा गया कि शांत इलाकों में इन पक्षियों की सहवास की खमता ९२ फीसदी थी, जबकि शोर वाले इलाके यानी कम्प्रेसर स्टेशन में पास में यह घटकर ७७ फीसदी रह गई।
इस शोध के मुख्य लेखक ल्यूकस हबीब यूनिवर्सिटी ऑफ अल्बर्टा के ही हैं। उनका कहना है कि नर पक्षी गाना गाकर मादा पक्षियों को आकर्षित करता है। परंतु शोर-शराबे में उसका प्रेम गीत मादा पक्षी नहीं सुन पाती है। यह भी संभावना रहती है कि नर पक्षी का गीत शोर में दब जाता हैं, जिससे मादा पक्षी अपने साथी को चुनती है। यदि ध्वनि प्रदूषण की वजह से नर पक्षी का गीत अवरुद्ध हो तो मादा को लगता है कि उसके गीत की क्वालिटी में कुछ कमी है जबकि वास्तव में वह कुछ और होता है।
श्री बायने ने आशंका जाहिर की है कि इस तरह के शोर से न केवल पक्षी वरन् अन्य जीव भी प्रभावित होंगे। उन्होंने बताया कि हमने अन्य जीवों को भी देखा तो उनकी आबादी कम्प्रेसर स्टेशन के पास घट चुकी थी।
इसी से इस शोध को बल मिलता है। जैसे-जैसे ध्वनि प्रदूषण बढ़ेगा, पक्षियों के ठिकाने कम होते जाएँगे। यदि पक्षियों ने शोरगुल वाले इलाकों को नहीं छोड़ा तो उनकी आबादी भी घट जाएगी। यह स्थिति तभी टल सकती है, जब मानव जाति प्रदूषण रोक दे या कम करें।
साँप देंगे भूकम्प की पूर्व सूचना
ऐसा माना जाता है कि जीव-जंतुआें को भूकम्प का पूर्वाभास हो जात है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए चीन के मौसम विज्ञानियों ने साँपों के विचित्र व्यवहार के आधार पर भूकम्प के पूर्वाभास की जानकारी प्राप्त करने के लिए एक प्रणाली विकसित की है।
दक्षिणी चीन के शांक्सी प्रांत की राजधानी नानिंग स्थित भूकम्प विभाग के निदेशक जियांग वाईसांग के मुताबिक साँप आधारित यह प्रणाली प्रकृति और विज्ञान का अद्भुत संगम है। इस प्रणाली के तहत साँपों के व्यवहार पर नजर रखने के लिए एक वीडियों कैमरा लगाया गया है जो पल-पल साँपों के व्यवहार की जानकारी देता रहेगा।
निदेशक का मानना है कि दूसरे प्राणियों की तरह ही साँप भी एक ऐसा जानवर है जो पृथ्वी के भूगर्भ में होने वाली हलचलों को पहले ही भाँप लेता है। साँपों की असामान्य गतिविधियों के आधार पर ही भूकम्प की भविष्यवाणी की जा सकती है। श्री वाईसांग के मुताबिक परीक्षणों मंे देखा गया है कि ज्याद तीव्रता के भूकम्प आने की दशा में इनकी गतिविधियाँ अचानक बढ़ जाती है।
बाँस से बन रहे हैं बुलेटप्रूफ जैकेट और बिजली
बाँस अनेक प्रकार से उपयोगी है। परंतु इसका प्रयोग बुलेटप्रूफ जैकेट बनाने में किया जाए तो थोड़े आश्चर्य की बात है। नेशलन मिशन ऑफ बैंबू एप्लीकेशन के निदेशक बीएस ओबेराय के अनुसार बाँस के उपयोग से ऊर्जा उत्पादन, बुलेटप्रूफ जैकेट, कृत्रिम अंग और ऑटो पाट्स सहित सैकड़ों वस्तुएँ बनाई जा सकती है।
श्री ओबेराय ने कहा कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा उपलब्ध कराई गई तकनीक से निजी क्षेत्र की कंपनियाँ बाँस को फायरप्रूफ बना रही हैं। इससे बनी जैकेट का परीक्षण अंतिम चरण में हैं ।
श्री ओबेराय ने बताया कि बाँस के इस्तेमाल से घर भी बनाए जा रहे हें। सुनामी पीड़ितों के पुर्नर्वास के लिए बाँस से सैकड़ों घर बनाए गए हैं। उन्होंने कहा कि ऐसे घर सीमावर्ती इलाकों और सियाचिन में भी बनाए जा रहे हैं। इनके निर्माण में ४५० रुपए प्रति वर्गफुट का व्यय होता है। इससे बने घर कुछ ही घंटों में बनकर तैयार हो जाते हैं। अरुणाचल प्रदेश के पासीधाट में ५० बिस्तरों का एक अस्पताल बाँस से बनी सामग्री से निर्मित किया गया है। इससे स्कूल भी बनाए जा रहे हैं। बाँस से बनी सामगी को अधिक बेहतर बनाने के लिए विदेशी विशेषज्ञों की भी मदद ली जा रही हैं।
दूरवर्ती क्षेत्र में तो बाँस से बिजली बनाई जा सकती है। उन्होंने कहा कि चीन की तरह भारत में भी बाँस से बनी सामग्री के निर्यात से व्यापार करने की क्षमता है। इसमें रोजगार की भी पर्याप्त संभावनाएँ हैं।
नींद न आए तो घातक है
नींद पूरी न हो पाना शरीर के लिये काफी घातक साबित हो सकता है । कम से कम चूहों में तो यही देखने में आया है। हेलसिंकी विश्वविद्यालय (फिनलेण्ड) की टार्जा पोर्काहाइसकोनेन और उनके सहयोगियों ने पता लगाया है कि यदि चूहों को पूरी नींद न मिले तो उनके शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र इसके विरुद्ध सक्रिय हो जाता है । तब उनके शरीर मंे ऐसे रसायनों का निर्माझ होने लगता है जो आम तौर पर तनाव के दौरान बनते हें । इसका मतलब है कि यदि लगातार नींद का अभाव बना रहे तो शरीर तनाव-जनित रोगांे(जैसे हृदय रोग) के जोखिम से घिर जाता है ।
पोर्का-हाइसकानेन का दल इस बात का अध्ययन कर रहा था कि नींद का अभाव होने पर दिमाग क्षतिपूर्ति के लिये क्या करता है । दूसरे शब्दांे में, दिमाग इस नींद की भरपाई कैसे करता हे । पहले किए गए उनके ही शोध से यह पता चल चुका था कि जब नींद का अभाव होता है तो दिमाग के अगले हिस्से में नाइट्रिक ऑक्साइड की मात्रा बढ़ने लगती है और यही रसायन क्षतिपूर्ति निद्रा चालू करने में भूमिका निभाता है । उन्होंने यह भी देखा था कि नाइट्रिक ऑक्साईड का निर्माण शुरु करवाने का काम एक एन्जाइम नाइट्रिक ऑक्साइड सिंथेज़ करता है । सवाल था कि यह एन्जाइम आता कहां से है ? पोर्का-हाईसकानेन का विचार था कि दिमाग में नाइट्रिक ऑक्साइड सिंथेज़ का निर्माण सतत रुप से होता होगा, चाहे इसकी जरुरत हो या नहंी । मगर जब उन्होंने प्रयोग किए तो पता चला कि दिमाग में नाइट्रिक ऑक्साईड सिंथेज़ सुप्त रुप में रहता है। वास्तवकि एन्ज़ाइम तब बनता है जब शरीर तनाव के विरुद्ध लड़ता है ।
यह एक आश्चर्यजनक खोज है क्योंकि इससे पता चलता है कि शरीर नींद के अभाव को एक तनाव मानकर उससे लड़ता है । इस अनुसंधान के दौरान यह भी पता चला कि चूहों में यह एन्ज़ाइम मात्र १० मिनट नींद के अभाव के बाद बनने लगता है । अर्थात् नींद का थोड़ा सा अभाव भी शरीर में तनावनुमा प्रतिक्रिया उत्पन्न करने के लिये पर्याप्त है । यदि यह स्थिति लगातार बनी रहे, तो शरीर पर काफी दबाव पड़ता है ।
अभी इस बात का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है कि नाइट्रिक ऑक्साइड सिंथेज़ की ज्यादा मात्रा का कोई खतरनाक असर होता है । मगर एक अध्ययन से पता चला था कि यदि १० दिन तक लगातार प्रतिदिन ४ घण्टे की नींद कम मिले तो खतरा बढ़ने लगता है, तो आराम बड़ी चीज है, मुंह ढंक के सोइये । ***
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