शुक्रवार, 19 जनवरी 2007

जीवन एक शाप

कविता

गिरेन्द्रसिंह भदौरिया प्राण

दुनिया सच लग रही समूची क्षण भर का मेला है।

क्योंकि मनुष्य प्रकृति के पोषक तत्वों से खेला है।।

हरी दरी को अमल-धवल भवनों से पाटा किसने ?

सघन वनों के अंग-अंग को आखिर काटा किसने ?

वृक्ष कटे, फल मिटे, दूब की जगह छीन ली किसने ?

ओस बिंदु की नमी चुराकर भला बीन ली किसने ?

जीवनरक्षी कवच परत ओजोन फाड़ दी किसने ?

निर्मल जल की नदी सोखकर क्यों उजाड़ दी किसने ?

किसने शीतल मंद सुगंधित हवा विषैली कर दी ?

किसने साँस-साँस में गुपचुप क्रूर घुटन सी भर दी ?

क्षणिक लाभ के लिये दूर का सोच गया ठेलाहै।

क्योंकि मनुष्य प्रकृति के पोषक तत्वों से खेला है।।

वह सागर जो बहुत बड़ा भू-भाग पालने वाला।

क्यों अमृत की जगह लग रहा जहर उगलनेवाला ?

आता है भूकम्प सिंधु सीमाएँ तोड़ रहा है।

महानाश से कौन जैव मण्डल को जोड़ रहा है ?

वन्यजीव, जलचर, विहंग, भू-जन्तु सभी खतरे में।

फूल-पात, बरसात और दिन-रात सभी खतरे में।

नदी-सिंधु, पर्वत-पठार के कोपों की बेला है।

क्योंकि मनुष्य प्रकृति के पोषक तत्वों से खेला है।।

पानी, पवन, प्रकाश, प्राण, पृथ्वी कुल पाँच बचा तू।

धूल धुएँ को रोक शुद्धता की कुछ आँच रचा तू।।

चिंताग्रस्त बिताना जीवन एक शाप होता है।

पर्यावरण प्रदूषित करना महापाप होता है।।

जिसे बचाने जिसके पुरखों ने भी दुख झेला है।

वही मनुष्य प्रकृति के पोषक तत्वों से खेला है।।

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