२० साल पहले
-राजीव गांधी
हजारों वर्षोंा से भारत ने आध्यात्मवाद की दिशा में अधिक विकास किया है, भौतिक दिशा में कम। पारम्परिक रुप से ही भारत का विश्वास रहा है कि मनुष्य और प्रकृति एक है और दोनों एक दूसरे के अभिन्न अंग है। इससे हमारी प्रकृति के बारे में जागरुकता आई है, हम प्रकृति के लिए महसूस कर सकते हैं।
भारत में प्रौद्योगिकी क्रांति आने से दोनों दिशाआें में विवाद खड़ा हो गया है। हमने अपनी प्रौद्योगिकी का विकास किया है। हमने अपने उद्योगों का विकास किया है और हम महसूस करते हैं कि हम अपनी पारम्परिक अध्यात्मवाद की गहराई और शक्ति से दिन पर दिन दूर होते जा रहे हैं। इससे हमारे सामाजिक ढांचे में कुछ समस्याएँ पैदा हो गई हैं। आज हम फिर से इन दोनों पहलुआें पर बराबरी के निर्माण करने की सोच रहे हैं।
हमारे इन प्रयत्नों में से सबसे महत्वपूर्ण है अपने पर्यावरण की सुरक्षा। भारत की विशेष समस्याएं है क्योंकि यहां की जनसंख्या बहुत अधिक है। पर्यावरण पर जनसंख्या से जो दबाव पड़ता है, अन्य देशों के मुकाबले भारत में सबसे अधिक है। विकासशील प्रक्रिया और गरीबी से यह और बढ़ जाता है। गरीबों के कारण जो कुछ उपलब्ध होता है, लोगों को उसी पर निर्भर होना पड़ता है। उनकी पहँुच भी कम साधनों तक होती है। इसलिए प्रकृति संरक्षण के लिए उच्च प्रौद्योगिकी के प्रयोग की क्षमता उनमें कम होती है।
हम स्कूल स्तर से ही पर्यावरण संरक्षण के बारे में जागरुकता लाने की कोशिश कर रहे हैं। पर्यावरण दूषित होने के भयंकर परिणामों से लोगों को परिचित करा रहे हैं। आखिरकार लोगों में जागरुकता ही पर्यावरण संरक्षण में सहायक हो सकती है।
किसी भी प्रकार के कानून पर्यावरण में सरंक्षण नहीं ला सकते, विशेष रुप से भारत जैसे विशाल देश में। इस प्रकार की गोष्ठियाँ जागरुकता लाने में सहायता करती हैं और मैं उम्मीद करता हँू कि हर स्तर पर इस तरह की गोष्ठियाँ आयोजित की जानी चाहिए। केवल दिल्ली में ही नहीं, भारत के अन्य हिस्सों में ताकि हम इस जागरुकता को पैदा कर सकें।
नीति-निर्देश
विकासशील देश में खर्च और अपने साधनों के शोषण से होने वाले लाभ में संतुलन होना चाहिए भले ही उद्योग लगाने के लिए कुछ क्षेत्रों को नष्ट करना पड़े या खानें खोदनी पड़े या अन्य विकासशील परियोजनाएं लगानी पड़े, भले ही नदियों में, वायु और विभिन्न इलाकों में प्रदूषण के रुप में हो। लेकिन एक बात हमें मान कर चलनी होगी कि अनतोगत्वा कहीं कोई छोटा रास्ता नहीं है। अगर आज हम कीमत अदा नहीं करते तो कल हमें बहुत अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी। यह बात हमें अवश्य जान लेनी चाहिए।
हमने बहुत से कानून बनाए है कुछ विशेष तरह के उद्योग कुछ विशेष इलाकों में स्थापित न किए जाएं और हम इस तरह के नीति निर्देश देने जा रहे हैंकि सुरक्षित क्षेत्रों में केवल इसी तरह के उद्योग खोले जाएं जिनसे प्रदूषण न फैलता हो और जो साफ-सुथरे हों। किसी परियोजना को सहमति देने से पूर्व हम इस बात का पूरा-पूरा ख्याल रखते हैं। कोई भी परियोजना तब तक शुरु नहीं हो सकती जब कि इसे पर्यावरण की ओर से अनुमति नहीं मिल जाती है। लेकिन हमने इससे भी आगे कदम उठाया है। अगर किसी विशेष परियोजना के लिए जंगल काटने पड़ सकते हैं तो जहां तक मुमकिन हो, उस क्षेत्र के आसपास ही उतने ही क्षेत्र में एक और जंगल बनाया जाए। हमारे यहाँ जंगलों की छत्रछाया वैसे ही बहुत कम है।
जल-प्रदूषण
जल-प्रदूषण हमारी बड़ी समस्याआें में से एक है। इससे निपटने के लिए हमने अपनी पहली बड़ी परियोजना गंगा की स्वच्छता शुरु कर दी है। यह एक ऐसी परियोजना है जो कि हर भारतवासी के दिल की बात है। उससे न केवल नई आध्यात्मिक भावना पैदा होगी बल्कि हजारों गांवों और गंगा घाटी में बसने वाले लाखों लोगों को स्वच्छ जल प्राप्त हो सकेगा। कई बार समस्या बड़ी आसान होती है। सवाल अच्छे प्रशासनिक नियंत्रण का होता है ताकि काम ठीक प्रकार से चलता रहे। गंगा के साथ लगे बहुत से कस्बों में सीवेज सुरक्षा प्लांट नहीं लगे हैंं। कुछ कस्बों में हैं। एक जहां तक मैं जानता हँू इसलिए बन्द कर दिया था क्योंकि बिजली के बिल का भुगतान नहीं किया गया था। कभी-कभी औद्योगिक प्रदूषण से समस्या गंभीर रुप धारण कर लेती है। हालांकि ''कन्स्ट्रेशन'' स्तर बहुत कम और ''टोक्सिक'' स्तर बहुत ऊँचे हैं। यहीं पर इंजीनियरिंग डिजाइन की आवश्यकता होती है।
उद्योग स्थापित करने के समय पर ही हमें प्रदूषण विरोधी साधन जुटा लेने चाहिए। हमें उन विशेष ''टाक्सिन'' की पहचान करके उन्हें प्लांट शुरु होने से पहले ही खत्म कर देना चाहिए। भोपाल में वायु प्रदूषण के भयंकर परिणाम हमने देख लिए हैं चूंकि एक रसायनिक प्लांट नियंत्रण से बाहर हो गया था। यह केवल सुरक्षा की ही बात नहीं है लेकिन कुछ भी गलत हो जाने से पहले सुरक्षात्मक तरीके अपनाने की बात है। एक ऐसा ढांचा खड़ा करने की बात है जहाँ कोई दुर्घटना घटने की सम्भावना ही न रहे। लेकिन हम देखते हैं कि रसायनिक प्लान्टों में इस तरह के तरीके नहीं अपनाए जाते हैंं।
उद्योग और पर्यावरण
उद्योग लाभ कमाने की होड़ में विशेष रसायनों के खतरों की और समुचित ध्यान नहीं देते हैं। हम जानते हें कि अभी भी अत्याधिक जहरीले रसायन ड्रमों में भर कर लाये जाते हैं और देश के बाहर टैंकरों में। अपने देश में हमने इसे रोक दिया है। लेकिन हम जानते हैं कि ऐसा विकसित देशों में भी हो रहा है। अपने होने वाले दुष्प्रभावों के कारण पर्यावरण दूषित हो रहा है और उद्योग पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कोई जिम्मेदारी लेना नहीं चाहते हैं। यह जिम्मेदारी अवश्य ही उद्योगों पर थोपी जानी चाहिए।
अगर इन खतरों के बारे में लोगों में जागरुकता आ जाए तो वे संरक्षण पर आने वाले खर्चे को चुकाने से भी नहीं हिचकेंगे। यह अतिरिक्त खर्च अगर सभी उपभोक्ताआें में बराबर बांट दिया जाए तो एक लम्बे समय के अन्दर, तो इसे वहन करना बड़ा आसान होगा। लेकिन अगर यहीं खर्च तात्कालिक है, उसी समय करना है जैसा भोपाल में हुआ - तो यह एक बड़ी मुश्ेकिल समस्या बन जाती है, चाहे वह संस्कार के लिए राहत कार्योंा के रुप में हो या कि उस उद्योग की क्षति पूर्ति के रुप में। अगर पहले से ही सुरक्षा के तरीकों में दूरदृष्टि से काम लिया जाय तो तो इस तरह की दुर्घटनाआें से बचा जा सकता है और इससे भारी खर्चोंा में भी कटौती आएगी। आज जो हम नई प्रौद्योगिकी विकसित कर रहे हैं, प्रदूषण के खिलाफ कार्यवाही उसका अभिन्न अंग होनी चाहिए। अधिक जोर उन उद्योगों पर दिया जाना चाहिए जिनसे प्रदूषण कम होता है, और जिनमें प्राकृतिक साधनों का कम से कम प्रयोग होता है ताकि पर्यावरण को कम से कम खतरा हो।
समन्वित परियोजनाएं
हमने भारत में देखा है कि विशेष क्षेत्रों का संरक्षण करके हम पर्यावरण की रक्षा करने में सफल हुए हैं। एक विशेष जानवर जैसे शेर की रक्षा करके हमने न केवल शेर को ही बचाया बल्कि उस क्षेत्र के पूरे पर्यावरण की भी रक्षा की है। स्थान और उद्योग की श्रेणी की दृष्टि से समन्वित परियोजनाआें, उद्योगों से होने वाले दुष्प्रभावों को रोकने वाले कानूनों के द्वारा हम सच में अपने पर्यावरण में सुधार ला सके हैं। हालांकि हम पर विकास और जनसंख्या का बहुत अधिक दबाव है।
यह अभी पहला ही कदम है। इस तरह की जागरुकता एक बहुत बड़े पैमाने पर हमें देश में पैदा करनी है और इसे हम कर रहे हैं। इस तरह की जागरुकता दूसरे देशों में भी लाई जानी चाहिए, विशेष रुप से विकासशील देशों में, जहाँ यह सोचा जाता है कि पर्यावरण संरक्षण में बहुत अधिक खर्च आता है। लेकिन जो कीमत हमें जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण को हुए नुकसान के कारण होने वाली प्राकृतिक विपदाआें से कहीं अधिक होती है। हमें इसके भयंकर परिणाम भुगतने होंगे। पूरे विश्व में यह जागरुकता आनी चाहिए कि जो कुछ करना है वह आज ही करना है, कल करने से बहुत देर हो जाएगी। (पर्यावरण डाइजेस्ट के प्रवेशांक जनवरी १९८७ का पहला लेख ) ***
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