शनिवार, 20 जनवरी 2007

सत्ता, गरीबी और वैश्विक जल संकट

विशेष लेख

महीन

वर्ष २००६ की मानव विकास रिपोर्ट दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन शहर में ९ नवंबर २००६ को जारी की गई। इस बार राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम की मानव विकास रिपोर्ट का मुख्य फोकस एक प्राकृतिक संसाधन पानी पर है, जो तेजी से एक दुर्लभ संसाधन बनता जा रहा है। रिपोर्ट में वैश्विक जल संकट के दो अलग-अलग पहलुआें पर ध्यान दिया गया है। पहला है जीवन के लिए पानी जहां साफ पानी मुहैया करना, अपजल को साफ करना और स्वच्छ शौच व्यवस्था उपलब्ध कराने को मानव प्रगति के तीन बुनियाद तत्वों के रुप में पहचाना गया है। इस बात पर विचार किया गया है कि इन बुनियादी तत्वों की व्यवस्था न की गई तो क्या कीमत चुकानी होगी इसके साथ ही सबको पानी व स्वच्छता मुहैया कराने की रणनीतियों की छानबीन की गई है।

दूसरे मुद्दे का संबंध जीविका के लिए पानी से है। इसमें पानी को एक उत्पादक संसाधन के रुप में देखा गया है जिसका बंटवारा देशों के अंदर और सरहदों के पार होता है।पानी का प्रबंधन समतामूलक ढंग से और कार्यक्षम ढंग से करना सरकारों के सामने एक चुनौती है।

सकंट की जड़ें

पानी संकट के बारे में आम मत यह है कि यह संकट पानी की सप्लाई में भौतिक कमी का परिणाम है। इसके विपरीत रिपोर्ट में दलील दी गई है कि पानी संकट की जड़ें दरअसल गरीबी, असमानता और सत्ता संबंधों में गैर बराबरी में देखी जा सकती हैं। इसके अलावा पानी प्रबंधन की नीतियों में भी खामियां हैं जिसकी वजह से अभाव और गंभीर हो जाता है। एक अरब से ज्यादा लोगों को साफ पेयजल मयस्सर नहीं है और करीब २.६ अरब लोग पर्याप्त और उचित शौच व्यवस्था से वंचित है।

ऐसी परिस्थिति में यह जरुरी हो जाता है कि जीवन के लिए पानी को एक बुनियादी मानवीय जरुरत और एक बुनियादी मानव अधिकार माना जाए। यह भी गौरतलब है कि इन मूलभूत जरुरतों से वंचित अधिकांश लोग गरीब हैं। विकासशील देशों में तो हर पांच में से एक व्यक्ति को निर्धारित न्यूनतम २० लीटर प्रतिदिन साफ पानी भी नहीं मिलता है, जबकि प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति पानी की खपत २००-३०० लीटर के बीच है और अमेरिका में तो यह ५७५ लीटर है।

इस तरह की असमान पहुंच आर्थिक वृद्धि को बाधित करती है और संपत्ति व जेंडर संबंधी विषमता को जन्म देती है। एक तथ्य यह भी है कि पानी के अच्छे स्त्रोत से वंचित लोगों में से करीब एक-तिहाई लोगा मात्र १ डॉलर प्रतिदिन की आमदनी पर जिंदा हैं। शौच व्यवस्था के संदर्भ में भी पंहुच व गरीबी के बीच साफ संबंध नजर आता है - शौच व्यवस्था तक पहुंच से वंचित करीब १.४ अरब लोग २ डॉलर प्रतिदिन से भी कम पर जीवन यापन करते हैं।

मानव विकास : भारत व पड़ोसी देशों की स्थिति

देश माविसू क्रम औसत आयु वयस्क सकल सकल घरेलू जेंडर विकास क्रम

(वर्ष) साक्षरता दाखिला उत्पाद सूचकांक

दर % दर

चीन ०.७६८ ८१ ७१.९ ९०.९ ७० ५८९६ ०.७६५ ६४

श्रीलंका ०.७५५ ९३ ७४.३ ९०.७ ६३ ४३९० ०.७४९ ६८

भारत ०.६११ १२६ ६३.६ ६१ ६२ ३१३९ ०.५९१ ९६

पाकिस्तान ०.५३९ १३४ ६३.४ ४९.९ ३८ २२२५ ०.५१३ १०५

भूटान ०.५८३ १३५ ६३.४ ४७ ४९* १९६९ अनु. अनु.

नेपाल ०.५२७ १३८ ६२.१ ४८.९ ५७ १४९० ०.५१३ १०६

म्यांमार ०.५८१ १३० ६०.५ ८९.९ ४९ १०२७ अनु. अनु.

बांग्लादेश ०.५३ १३७ ६३.३ ४१* ५७ १४९० ०.५२४ १०२

* अनुमानित, अनु. = अनुपलब्ध

संकट के असर

ऐसा बताते हैं कि अस्वच्छ पानी दुनिया में बच्चों का दूसरा सबसे बड़ा हत्यारा है। प्रति वर्ष करीब १८ लाख बच्चे दस्त व अन्य ऐसी बीमारियों के कारण मरते हैं जो अस्वच्छ पानी व खराब शौच व्यवस्था के कारण पैदा होती हैं। पानी लाने का बोझ प्राय: औरतों और लड़कियों पर आता है, जिसके कारण जेंडर असमानता को बढ़ावा मिलता है और कई बार इसके कारण महिलाएं रोजगार व शिक्षा से वंचित रह जाती हैं। इसके अलावा पानी व शौच व्यवस्था के अभाव के कारण होने वाली बीमारियों का असर उत्पादकता व आर्थिक विकास पर भी होता है। इसके चलते गैर बराबरी और गहरा जाती है।

संकट के आयाम

रिपोर्ट में बताया गया है कि पानी व शौच व्यवस्था के संकट की व्यापकता और पैटर्न अलग-अलग देशों में अलग-अलग हैं। अलबत्ता कुछ सामान्य बातें हैं जो क्षेत्रीय सीमाआें से स्वतंत्र हैं :

१. दुनिया के कुछ सबसे गरीब लोग पानी की सबसे भारी कीमत चुकाते हैं, इससे पता चलता है कि ग्रामीण इलाकों , झुग्गी बस्तियों और अनौपचारिक बस्तियों में पानी व्यवस्था का कवरेज कितना कम है।

२. बहुत कम देश ऐसे हैं जो पानी व शौच व्यवस्था को राजनैतिक प्राथमिकता मानते हैं । इसकी झलक इन चीजों के लिए रखे जाने वाले अल्प बजट प्रावधान से मिलती है। इसके अलावा ऐसे सरकारी या निजी प्रयास बहुत कम हैं जिनमें लोगों और समुदायों को नियोजन, क्रियांवयन अथवा निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जाता हो।

३. विकास की साझेदारी में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पानी व शौच व्यवस्था को प्राथमिकता देने में असफल रहा है।

जाहिर है कि जो लोग पानी व शौच व्यवस्था के संकट से सर्वाधिक पीड़ित हैं वे गरीब लोग हैं और खासकर गरीब औरतें हैं। पानी पर अपने हक को मुखरित करने की राजनैतिक आवाज भी उनके पास नहीं है। उनकी आवाज राजनीति के गलियारों में है ही नहीं।

रिपोर्ट में केस स्टडीज, आंकड़ों व विश्लेषण की मदद से इन मुद्दों की बारीकी से छानबीन की गई है। इसके रुबरु विकासशील देशों से ऐसे उदाहरण भी प्रस्तुत किए गए हैं जहां झुग्गी बस्तियों और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों ने इन समस्याआें को सुलझाने के लिए नेतृत्व प्रदान किया है, संसाधन जुटाए हैं और उत्साह व नवाचार का प्रदर्शन किया है। इनसे प्राप्त सबक और साथ में सुविचारित व वित्त पोषित योजनाआें के जरिए सबसे के लिए पानी व शौच व्यवस्था की उपलब्धता सुनिश्चित करने के सतत प्रयासो के महत्व को रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है। इन प्रयासों के लिए विश्व स्तरीय कार्ययोजना भी जरुरी होगी ताकि राजनैतिक इच्छा शक्ति तैयार हो सके और संसाधन जुटाए जा सकें।

जीविका और पानी

जीविका के लिए पानी के मुद्दे सर्वथा अलग हैं। यह तो सही है कि दुनिया से पानी खत्म नहीं हो रहा है और दैनिक उपयोग, कृषि व उद्योगों की जरुरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध है मगर दुनिया के सबसे जोखिमग्रस्त लोग उन इलाकों में रहते हैं जहां पानी का संकट तेजी से बढ़ रहा है। रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि करीब १.४ अरब लोग आज ऐसी नदी घाटियों में बसे हैं जहां पानी का उपयोग उसकेे पुनर्भरण से अधिक है। अति उपयोग के कारण नदियां सूख रही हैं, भूजल स्तर में गिरावट आती जा रही है और पानी-आश्रित इकोसिस्टम्स का तेजी से ह्रास हो रहा है।

जलवायु परिवर्तन से भी गरीब लोगों की जीविकाआें पर कुप्रभाव पड़ने की आशंका है। पानी की उपलब्धता ज्यादा अनिश्चित हो जाएगी तथा सूखे, बाढ़ व प्रतिकूल मौसम का प्रकोप बढ़ेगा। रिपोर्ट में इस मुद्दे को एक बढ़ती चुनौती के रुप में उभारा गया है कि पहले से पानी का सकंट झेल रहे इलाकों में पानी की उपलब्धता घट रही हैं, मौसम का पैटर्न आतिवादी हो रहा है ओर ग्लेशियर पिघल रहे हैं। रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन से निपटने की एक बहुआयामी रणनीति की बात कही गई है जिसमें कार्बन उत्सर्जन कम करना और अनुकूलन की रणनीतियों को समर्थन देना शामिल है।

यह तो अभी से स्पष्ट हो चला है कि आने वाले दशकों में पानी के लिए होड़ बढ़ेगी। जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण, औद्योगिक विकास और खेती की जरुरतें इस सीमित संसाधन पर दबाव बना रहे हैं। ग्रामीण जीविकाआें, पानी और गरीबी हटाने के वैश्विक प्रयासों के बीच कड़ियां स्पष्ट हैं। प्रतिदिन १ डॉलर के सम की आमदनी पर बसर करने वाले तीन-चौथाई लोग ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और मुख्यत: खेती पर आश्रित हैं। दुनिया के ८३ करोड़ कुपोषित लोगों में से दो तिहाई छोटे किसान और खेतिहर मजदूर हैं। पानी की सुरक्षा और जीविका के परस्पर संबंध के आधार पर पानी और गरीबी का संबंध आसानी से समझ में आ जाता है।

इसके अलावा इस बात की समझ भी बढ़ रही है कि पर्यावरण की जरुरतों को भी पानी उपयोग के पैटर्न में स्थान देने की जरुरत है।

ऐसे हालात में डर यर है कि जब पानी के लिए राष्ट्रों के बची होड़ बढ़ेगी, तब शक्तिशाली तबकों के द्वारा सबसे कमजोर अधिकारों वाले लोगों - छोटे किसानो और उनमें भी औरतों - की हकदारी का हनन होगा। तब सभी देशों में गरीब महिला किसानों के पानी के अधिकार को बढ़ावा देना और इस अधिकार की सुरक्षा करना केन्द्रीय महत्व को हो जाएगा क्योंकि शायद गरीब-हितैषी नीतियों वे वहां समुचित परिणाम न मिलें जहां गरीब लोग अशक्त कर दिए गए हैं। मगर पानी उपयोगकर्ता समूहों के अंदर गरीबों व महिलाआें को सशक्त करना एक चुनौतीपूर्ण काम होगा और इसके लिए सकारात्मक कार्रवाई यानी एफर्मेटिव एक्शन के प्रति एक दमदार संकल्प की जरुरत होगी।

एक तथ्य यह भी है कि कई देशों में सिंचाई व पानी प्रबंधन पर सार्वजनिक खर्च इतना कम हो गया है कि वह मात्र इन्फ्रास्ट्रक्चर के रख रखाव की जरुरत के लिए भी पर्याप्त नहीं है। जब सरकारें पानी के अभाव से निपटने की रणनीतियां बनाएंगी तो यह जरुरी होगा कि गरीब हितैषी टेक्नॉलॉजी और अन्य हस्तक्षेपों का उनमें अहम स्थान हो।

टकराव और विकल्प

रिपोर्ट में एक और अहम बात की ओर ध्यान दिलाया गया है। पानी की प्रकृति ही ऐसी है कि वह तो दूर-दूर तक बहेगा, चाहे देशों के अंदर या देशों के बीच कितनी ही सरहदें बांधी जाए। लिहाजा इसमें पानी के अभाव वाले क्षेत्रों में सरहदों के आर-पार तनाव की गुंजाइश बनी रहेगी। रिपोर्ट में सुझाया गया है सरकारी नीतियों और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के जरिए इनसे निपटा जा सकता हैऔर इन्हें टाला जा सकता है मगर दोनों ही मोर्चो पर इस तरह के टकराव के आसार दिखने लगे हैं।

भारत दोनों ही तरह के तनावों का गवाह रहा है। राज्यों के बीच नदियों के पानी के नियंत्रण को लेकर विवाद तो आम बात है ही, भारत पाकिस्तान के साथ सिंधु जल संधि में साझेदार है, जिस पर १९६० में हस्ताक्षर हुए थे और जो राजनैतिक व सैन्य टकराव के लंबे दौर को झेलकर भी जीवित है। रिपोर्ट में इस संधि को पानी के उपयोग में सहयोग को लेकर साझेदारियां विकसित करने के एक महत्वपूर्ण उदाहरण के रुप में प्रस्तुत किया गया है। इससे काफी कुछ सीखा जा सकता है।

सूचकांकों में भारत

मानव विकास रिपोर्ट में लोगों की रुचि प्राय: यह जानने में होती हैं कि विभिन्न देश मानव विकास के संदर्भ में कहां है। अपने रोजाना के अनुभव को ठोस आंकड़ों में देखना शायद संतोष देता है। शायद कई मुकालते व पूर्वाग्रह भी टूटते हैं। १९९० से हर वर्ष मानव विकास रिपोर्ट में मानव विकास सूचकांक (माविसू) शामिल किया जाता है। यह सूचकांक मात्र सकल घरेलू उत्पाद से आगे जाकर खुशहाली की ज्यादा व्यापक परिभाषा करने का प्रयास है।

माविसू में मानव विकास के तीन पक्षों का एक मिला-जुला माप प्रस्तुत होता है - लंबा व स्वस्थ जीवन (पैमाना औसत आयु), शिक्षित होना (पैमाना - वयस्क साक्षरता व प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्तर पर दाखिले), और जीवन का एक ठीक-ठाक स्तर (पैमाना - क्रय क्षमता और आमदनी) । यह सूचकांक किसी भी मायने में मानव विकास का एक संंपूर्ण पैमाना नहीं कहा जा सकता। इसमें कई महत्वपूर्ण सूचक शामिल नहीं हैं। जैसे मानव अधिकारों के प्रति सम्मान, प्रजातंत्र या गैर बराबरी। फिर भी यह हमें एक आईना उपलब्ध कराता है जिसमें मानव प्रगति तथा आमदनी व खुशहाली के परस्पर पेचीदा संबंध को देखा जा सकता है।

१९५५ की मानव विकास रिपोर्ट में पहली बार जेंडर संबंधति शामिल किए गए थे। इन सूचकांकों का उपयोग जेंडर के संदर्भ में मानव विकास संबंधी विश्लेषण व नीति संबंधी चर्चाआें के किया जा रहा है। जेंडर संबंधी विकास सूचकांक दरअसल मानव विकास का ही पैमाना है जिसमें स्त्री-पुरुष असमानता के हिसाब से समायोजन किया जाता है। जहां मानव विकास सूचकांक औसत उपलब्धि को नापता है, वहीं जेंडर संबंधी विकास सूचकांक में उपरोक्त तीनों पक्षों में स्त्री-पुरुष असमानता को भी शामिल किया जाता है। जेंडर असमानता का अंदाज लगाने के लिए आपको इन दोनों सूचकांकों की तुलना करनी होगी। इन दोनों सूचकांकों की गणना ० से १ के पैमाने पर की जाती है। कोई देश १ के जितना नजदीक है, वहां मानव विकास की स्थिति उतनी अच्छी है।

इस वर्ष का मानव विकास सूचकांक वर्ष २००४ की स्थिति को प्रतिबिंबित करता है। इसमें साफ दिखता है कि परस्पर जुड़ती जा रही दुनिया में खुशहाली और जीवन की संभावनाआें को लेकर कितनी गैर बराबरी मौजूद है।

इस रिपोर्ट में राष्ट्र संघ के १३७ सदस्य देशों को शामिल किया गया हैऔर उन्हें माविसू के क्रम में रखा गया है। नॉर्वे (माविसू ०.९६५) सूची में सबसे ऊपर है। उसके बाद आइसलैण्ड और ऑस्ट्रेलिया आते हैं नाइजर का माविसू सबसे कम (०.३११) है। नॉर्वे के लोग नाइजर के लोगों से औसतन ४० गुना ज्यादा सम्पन्न हैं और वे लगभग दुगनी आयु तक जीते हैं। इसके अलवा नॉर्वे में प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च शिक्षा में दर्ज संख्या लगभग सौ फीसदी है जबकि नाइजर में दर्ज संख्या मात्र २१ प्रतिशत है। सबसे कम माविसू वाले ३१ देश दुनिया की ९ प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन देशों में औसत आयु ४६ साल है। जेंडर संबंधी विकास सूचकांक १३६ देशों के लिए निकाला गया है। इसमें भी नॉर्वे और आइसलैण्ड सबसे ऊपर हैं (क्रमश: ०.९६२ और ०.९५८) जबकि नाइजर सबसे नीचे (०.२९१) है।

माविसू की दृष्टि से भारत बीच की श्रेणी में १२६ वें क्रम पर हैं और उसका माविसू ०.६११ है। यह मझौले देशों के माविसू के औसत (०.७०१) से कम है। रोचक बात यह है कि हमारा दक्षिणी पड़ोसी श्रीलंका हमसे बहुत बेहतर है; श्रीलंका का माविसू ०.७५५ है और दुनिया में वह ९३ नंबर पर है। जेंडर संबंधी विकास सूचकांक के मामले में भारत ९६ नंबर पर है और उसका सूचकांक ०.०५९१ है। यहां उपरेाक्त तालिका में हमारे देश की पड़ोसी देशों से तुलना की गई है। ***

कोई टिप्पणी नहीं: