सामाजिक पर्यावरण
डॉ. रामजी सिंह
महाश्वेता देवी ने अपने एक लेख में एक ऐसे विश्व का सपना देखा है जो हिंसामुक्त, अभाव, अन्याय और अशिक्षा से मुक्त तो होगा ही साथ ही अशांति और आतंकवाद से भी दूर होगा।
बहुत दिन पहले विन्डेल विल्की ने अपनी पुस्तक वन वर्ल्ड में ऐसे विश्व का स्वप्न देखा था जिसमें राष्ट्र की सीमाएं न हों। एच.जी. वेल्स, बर्टेण्ड रसेल आदि कुछ और चिन्तकों ने भी विश्व राज्य की कल्पना की हैं महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन ने २२ वीं सदी नामक अपने उपन्यास में एक भावी विश्व राज्य के चित्र को निरुपित किया था। आज दो विश्व युद्धों के बाद और खासकर परमाणु बम का हिरोशिमा और नागासाकी में हाहाकार सुनकर एक विश्व राज्य की कल्पना पहले से अधिक व्यावहारिक दिख रही है।
हमने अपने समय में ही देखा कि किस प्रकार दो वियतनाम और दो जर्मनी एक हो गये और पूर्वी यूरोप के पच्चीस राष्ट्रों की एक ही संयुक्त संसद, मुद्रा, बाजार ओर पारपत्र भी हो गया है। इसके अतिरिक्त दक्षिण पूर्वी एशिया में सार्क और एशियन राष्ट्रों के क्षेत्रीय संगठनों के बावजूद भी संयुक्त राष्ट्र संघ और उससे संबंधित वैश्विक अभिकरण काम कर रहे हैं। इससे लगता है कि स्वप्न अब सत्य और साकार हो सकता है।
आज सिद्धांतवाद के दिन लदते जा रहे हैं इसलिए चाहे पूंजीवाद हो या समाजवाद, दोनों वर्तमान अस्तित्व को स्वीकार करने पर विवश हैं। शायद यह इस युग की अनिवार्यता भी है। हमें अणु बम और अहिंसा के बीच अहिंसा को चुनना ही होगा। क्योंकि आणविक युद्ध का गति पथ समाप्त हो गया है। यह अच्छा है कि अणु बम पर किसी राष्ट्र विशेष का एकाधिकार नहीं है, इसलिए अमेरिका के पास लगभग ३० हजार परमाणु बम के रहते हुए भी और हजार परेशानियों के बावजूद भी उसने वियतनाम, अफगानिस्तान या युगोस्लाविया के युद्धों में अणु बम के प्रयोग करने का साहस नहीं किया। संक्षेप में कह सकते हैं कि आज इक्कीसवीं शताब्दी में युद्ध का गतितत्व ही समाप्त हो गया है। युद्ध का प्रारंभ मानव ने अपने नाखून और दांतो के उपयोग से शुरु किया था और आज लगता है इतिहास अपनी पुनरावृत्ति करना चाहता है। वैज्ञानिक आइंस्टीन से जब पूछा गया कि तीसरा विश्व युद्ध किन अस्त्रों से लड़ा जाएगा तो उन्होंने उत्तर दिया कि तीसरा विश्व युद्ध किससे लड़ा जाएगा यही नहीं कह सकता लेकिन यह निश्चित है कि जब चौथा विश्वयुद्ध छिड़ेगा तो हम आदि मानव की भांति अपने नाखूनों एवं दांतो का ही लड़ने में उपयोग करेंगे। स्पष्ट है कि अणु बम का अर्थ ही है मानव और मानवोत्तर प्रजातियां, समस्त कला और संस्कृति, ज्ञान और विज्ञान का सर्वनाश। यही कारण है कि साम्यवाद अपने युद्ध की अनिवार्यता के सिद्धांत का परित्याग कर पूंजीवाद के साथ सह-अस्तित्व को स्वीकार कर चुका है और अब तो विश्व व्यापार संगठन में साम्यवादी चीन भी सदस्य बनकर पूंजीवादी भूमंडलीकरण का एक उपकरण बन गया है। आज शांति की संस्कृति ही मानवता का एक मात्र विकल्प बच रही है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानव प्रवृत्ति का चित्रण करते हुए कहा है सुमति कुमति सबसे लिए रहिहीं- तो क्या हम यह मान लें कि मानव स्वभाव से दुष्ट स्वार्थी और कलह वृत्ति का ही है, लेकिन मानव को स्वभाव से दुष्ट मान लेने में अखिल मानव जाति का अपमान तो है ही निराशावाद का भी चरम है। यदि मानव मूलत: दुष्ट और बुरा है तो फिर शिक्षण, प्रशिक्षण, संस्कार, परिष्कार, नीति और धर्म के उपदेश सब व्यर्थ है। जिस प्रकार बालू से तेल नहीं निकल सकता उसी प्रकार दुष्ट मानव से साधुता की अपेक्षा नहीं की जा सकती। असत् से सत् का उद्भव नहीं हो सकता, इसलिए यदि हम मनुष्य को स्वभाव से बुरा मान लेंगे तो फिर अच्छाई और अच्छे विश्व की कल्पना नहीं हो सकती। मानव सभ्यता बर्बर से सभ्य समाज की ओर अग्रसर होती रही हैंऔर आज वह पृथ्वी से भी उपर उठकर मंगल और चंाद की और बढ़ रही है।
प्रश्न है कि मानव की ही नहीं सृष्टि के समस्त प्राणियों की एक ही अभीप्सा है, सुख या आनंद। इसी को फ्रायड ने प्लेजर इंसटिंक्ट या सुख की प्राप्ति की प्रवृत्ति कहा है। महाभारत का वचन है कि सब कोई सुख चाहते है। लेकिन सुख, शांति के बिना असंभव है। गीता में कहा गया है कि अगर शांति नहीं है तो सुख कहां से मिलेगा। सुख की आकांक्षा भी तभी परिपूर्ण होगी जब हम शांति प्राप्त करें और हमारे पड़ोस, समाज और विश्व में शाति का साम्राज्य हो।
आध्यात्मिक दृष्टि से यह कहा जाता है कि बाहर शांति तभी संभव है जब हमारे मन में शाति हो इसलिए मानसिक शांति के लिए निर्वाण और मोक्ष आदि की अवधारणा आई हैं योगशास्त्र के अनुसार भी मानसिक शांति के लिए अष्टांगिक योग की योजना है। चाहे भगवान बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग हो या भगवान महावीर के त्रिरत्न की कल्पना हो या योग, सांख्य, वेदांत आदि शास्त्र हों प्रत्येक जगह मानसिक शांति के लिए ज्ञान और समाधि पर जोर दिया जाता है।
शांति के लिए आध्यात्मिक एवं धार्मिक दृष्टि से प्रयासों के बावजूद जी जगत में अशांति और कलह की कमी नहीं हो रही हैं । पिछले पांच हजार वर्षो का इतिहास साक्षी है कि शांति के लिए धर्म की ओर से किये गये प्रयास भी सफल नहीं हो पाये है। हिन्दुआें के विभिन्न संप्रदायों के बीच जिस प्रकार हिंसा और प्रतिहिंसा चलती रही उसी प्रकार ईसाई समाज में प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक आदि सम्प्रदायों के बीच कलह का अंत दिखाई नहीं पड़ रहा है। एक अल्लाह एवं एक बिरादरी को मानने वाले इस्लाम में शिया सुन्नी आज भी लड़ ही रहे हैं।
शायद इसलिए मार्क्स ने धर्म को अफीम का नशा कहा था। जो धर्म शांति का संदेश वाहक माना जाता है, वह आज अशांति का सबसे बड़ा उपकरण बन गया है। मध्य युग में संतो ने धर्म और मत समन्वय की चेष्टा की थी। कबीर ने हिन्दु और मुसलमान दोनों की खबर ली थी और कहा था कि - इन दोनों राह न पाई । स्वामी रामानन्द ने तो स्पष्ट कहा था जाति पांति पूछे नहीं कोई, हरि को भजै से हरि का होई। इसी प्रकार संत परम्परा के प्राय: सभी संत कवियों ने धर्म समन्वय का प्रयास किया था। आधुनिक युग में भारतीय नव जागरण के पुरोधा राजा राममोहन राय ने - विश्व धर्म नामक पुस्तक लिखी और रामकृष्ण परमहंस की प्रेरणा से स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में व्यक्तिगत और साम्प्रदायिक धर्म को नकारते हुए विश्व धर्म का संदेश दिया। गांधी और विनोबा ने सर्व धर्म समभाव के सिद्धांत को अपने भीतर उतारने की पूरी कोशिश की थी।
विश्व शांति के लिए मानव मस्तिष्क की शांति और हृदय को निश्कलुष किया जाए इससे किसको विरोध होगा, लेकिन मानव शून्य में नहीं रहता वह तो समाज में ही रहता है जिस प्रकार उसकी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक परिस्थितियां होगी उसी प्रकार उसका चिंतन और जीवन भी होगा। इस दृष्टि से शांति की संस्कृति के लिए समाज की व्यवस्था और संरचना पर सर्वाधिक ध्यान देना होगा। भरी सभा में द्रोपदी का चीरहरण सम्पूर्ण पुरुष समाज और सभ्यता के लिए कलंक है। उसी प्रकार लड़के-लड़की में विभेद, बाल विवाह, अनिवार्य वैधव्य, वैश्यावृत्ति और देवदासी प्रथा, बढ़ते हुए बलात्कार और अल्ट्रासाउण्ड परीक्षण के पश्चात् स्त्री भ्रूण को ही नष्ट करना पाशविकता की सीमा को पार करना है।
इन सभी का मूल कारण है कि हमारा समाज सदियों से पुरुष सत्तात्मक है और स्त्रियों का शोषण और उत्पीड़न पुरुषों का जन्म सिद्ध अधिकार माना जाता है।शांति की संस्कृति के विकास की सबससे बड़ी बाधा है हमारी आकांक्षा तो शांति की रहती है लेकिन आयोजन युद्ध और कलह का होता है। हमारे शास्त्र उपकरण भी युद्ध और विनाश के होते हैं। हमें शांति की संस्कृति के लिए अपने मन में शांति की भावना को स्थापित करना होगा। जिस प्रकार युद्ध का प्रारंभ मानव मस्तिष्क से होता है उसी प्रकार शांति का दुर्ग भी मानव मन में ही निर्मित होगा। इसलिए शांति की संस्कृति के निर्माण के लिए शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी।
आज शिक्षण संस्थाआें में सैनिक शिक्षा के लिए प्रावधान तो है लेकिन शांति की शिक्षा की कल्पना भी नहीं की जाती। जहां महावीर, बुद्ध और गांधी का अभिर्भाव हुआ और जहां शाति की संस्कृति का विस्तार हुआ वहीं आज पुरे भारत में लगभग दो सौ पचहत्तर विश्वविद्यालयों में मात्र नौ स्थानों पर गांधी विचार और शांति की शिक्षा का प्रावधान है। एक असमान विश्व में शस्त्रीकरण और युद्ध के नाम पर लगभग २० खरब डॉलर खर्च करना एक प्रकार की असभ्यतम हिंसा ही तो है। शंाति की संस्कृति के लिए न केवल हमें शिक्षा पर ध्यान देना होगा बल्कि कला-संगीत तथा क्रीड़ा का सहारा लेकर इसे शांति उन्मुख बनाना होगा। ***
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