शनिवार, 20 जनवरी 2007

प्रदेश चर्चा


उड़ीसा : गैर कानूनी खनन की परंपरा

आशुतोष मिश्रा, राधिका सिंह, सुजीत कुमार सिंह

उत्कल एल्यूमिनियम इण्टरनेशनल लिमिटेड के रायगढ़, उड़ीसा में प्रस्तावित बॉक्साईट खनन एवं एल्यूमिनियम शोधन संयंत्र (रिफायनरी) की विस्तार परियोजना को स्वीकृति देने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया में परियोजना की वैधता एवं पर्यावरण पर प्रभाव के आकलन की गुणवत्ता तथा निर्णय प्रक्रिया में स्थानीय समुदाय की सहभागिता के विषय में अनेक सवाल खड़े हुए हैं। अपने अधिकारों का हनन होते देख प्रभावित ग्रामीण इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं।

उत्कल एल्यूमिनियम इण्टरनेशनल लिमिटेड ने रिफायनरी की क्षमता १० लाख टन प्रतिवर्ष से बढ़ाकर ३० लाख टन प्रतिवर्ष करने एवं अपनी खदान में बॉक्साईट उत्खनन ३ लाख टन से ८५ लाख टन करने के लिए आवेदन पत्र हो गई है। इस वजह से कानूनी जटिलताएं पैदा हो गई हैं। हिन्दुस्तान एल्यूमिनियम कार्पोरेशन (आदित्य बिरला समूह की अनुषंगी कम्पनी) और कनाडा मूल की अल्यूमिनियम कम्पनी ऑफ कनाडा के इस संयुक्त उपक्रम ने छल-बल से स्थानीय जनता को दबाना चाहा। मगर उन्हें कड़े प्रतिरोध का सामन करना पड़ा। उड़ीसा प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा १७ अक्टूबर २००६ को टिकरी में आयोजित परियोजना की जन-सुनवाई में प्रभावित ग्रामीणों का गुस्सा साफ नजर आ रहा था। परियोजना से प्रभावित होने वाले २४ में से लगभग आधे गांवों के लोगों ने वादों से मुकरने पर कम्पनी अधिकारियों को फटकार लगाई।

जनता के असंतोष से कम्पनी अच्छी तरह परिचित है। सन् १९९२ के उत्कल एल्यूमिनियम इण्टरनेशनल लिमिटेड की स्थापना तथा भू-अधिग्रहण एवं परियोजना की स्वीकृति लेते समय उसे स्थानीय जनता के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। कुछ ग्रामीण कहते हैं कि कम्पनी ने लोगों का विरोध दबाने के लिए ही जन-सुनवाई के समय पुलिस का सहारा लिया था। उनका कहना है कि सुनवाई स्थल का निर्धारण भी यही सोच कर किया गया था। यह स्थान परियोजना स्थल से १० किमी. दूर है। जबकि प्रभावित गांव नजदीक ही हैं जहां कुछ वर्ष पूर्व आंदोलन करने वाले ३ ग्रामीण मारे गये थे। स्वाभाविक है कि कम्पनी उस स्थान से दूरी बनाए रखना चाहती थी।

परिणामस्तरुप प्रकृति सम्पदा सुरक्षा परिषद् के झण्डे तले आंदोलनकारियों ने बगरीझोला में समानान्तर बैठक आयोजित की, जिसमें परियोजना से प्रभावित होने वाले कुल २४ में से १० गांवों के लोगों ने शिरकत की। परिषद् के संयोजक भगवान माझी ने बैठक में कहा - जन सुनवाई का आयोजन हमारे गाँवों से इतनी दूर किया गया है कि आप ग्रामीणों के लिए वहां पहुंचना कठिन है, उसमें केवल कम्पनी के दलाल ही पहुंचे हैं। सशस्त्र पुलिस की पांच प्लाटूनों ने समानान्तर बैठक में जाने वाले अनेक ग्रामीणों को धमकाया और उन्हें अधिकारिक बैठक में जाने का कहा।

अधिकारिक जन-सुनवाई में भी उत्कल एल्यूमिनियम इण्टरनेशनल लिमिटेड के अधूरे वादों, लोगों की अनदेखी और जनता के विरोध की मंशा को स्पष्ट कर देते हैं। एक के बाद एक वक्ताआें ने कम्पनी को सावधान किया कि जब तक वह पुलिस के माध्यम से फंसाने का काम बंद नहीं करती, तब तक उसे स्थानीय जनता के सहयोग की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

नुआपाड़ा के निवासी क्षमासागर नायक ने कहा कि लोगों से जमीन लेने के बाद भी कम्पनी मुआवजा न देकर उन्हें धोखा दे रही है। बैठक में उन्होंने अधिकारियों से पूछा - मैने अपनी जमीन दी मगर मुआवजा नहीं मिला। मुझे उच्च न्यायालय की शरण लेने को मजबूर होना पड़ा। अब मैं आपसे क्या उम्मीद करुं? खबर है कि तीर्की में हुई जन-सुनवाई के केवल दो व्यक्तियों ने ही परियोजना का समर्थन किया।

समानान्तर जन-सुनवाई में अनेक व्यक्ति ऐसे भी थे, जिन्हें जमीन का मुआवजा तो मिल चुका है, किंतु वे कम कीमत मिलने और कम्पनी अधिकारियों के रवैये से संतुष्ट नहीं है। नाचिगुडा के नीलाम्बर गौड़ ने बताया - हमारे परिवार ने तकरीबन ३ हेक्टेयर भूमि जिसके बदले में हमें केवल ६.३४ लाख रुपये मिले, जो नाकाफी हैं। कीमत इससे कम से कम तीन गुना अधिक होनी चाहिए थी। इसके अलावा हमें रोजगार देने के लिए कम्पनी ने कुछ नहीं किया।

बफीलीमाली पहाड़ी के प्रति स्थानीय समाज की धार्मिक आस्था हैं, उसमें होने वाले खनन से लोग नाराज हैं। इसके साथ ही इस खनन के कारण इन्द्रावती जलाशय में गाद भरने के संभावना है। गाद भरने की आशंका मिटाने के लिए कम्पनी ने काफी पापड़ बेले थे। उन्होंने दावा किया था कि केन्द्रीय जल एवं ऊर्जा अनुसंधान केन्द्र ने भूजल पर खनन के प्रभाव का अध्ययन किया हैऔर कहा है कि गाद भरने की संभावना नगण्य है। हालांकि सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता एस.के. मोहन्ती का कहना है कि खनन से गाद तो जमा होती ही है।

ग्रामीणों की दलील थी कि परियोजना जनजातीय क्षेत्र में हैं, जो संविधान की पांचवीं अनुसूची के अनुसार संरक्षित है। भूमि अधिग्रहण में बल प्रयोग और धमकाये जाने के भी प्रमाण मिले हैं और अनेक ग्राम सभाआें में परियोजना को अस्वीकृत किया गया है। जन-प्रतिरोध को दबाने के लिए पुलिस और कम्पनी के किराये के गुण्डो ने गोली चलाकर, हत्या और बलात्कार करके दमन किया। मानव अधिकार हनन और पर्यावरणीय न्याय पर निगरानी के लिए गठित स्वतंत्र निकाय इंडियन पिपुल ट्रियब्यूनल की रपट में भी परियोजना में शासन द्वारा दमन किये जाने की बात स्वीकार की गई है। न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) एस.एन.सभरवाल की अध्यक्षता में तैयार की गई रपट में शासन ने इसे तत्काल रोकने का आग्रह किया गया है और सुरक्षा बलों द्वारा किये अधिकारोें के हनन एवं उड़ीसा प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की पर्यावरणीय नाश को रोकने की क्षमता की जांच कराने की मांग की है। आवश्यक स्वीकृति मिलने के ११ वर्षो बाद अब तक ना तो रिफायनरी और ना ही खदानों में काम शुरु हो सका है। कम्पनी के अधिकारी साफ तौर पर स्वीकार करते है कि खदान और शोधन संयंत्र के काम में बहुत धीमी प्रगति हुई है। कम्पनी के व्यावसायिक दायित्व के प्रबंधक सत्यनारायण सामल के अनुसार सन् २००२-२००३ तक कम्पनी ने भू अधिग्रहण किया और आवश्यक स्वीकृतियां प्राप्त की और इसके बाद ही संयंत्र का काम शुरु हुआ।

ऐसी परियोजनाआें को पर्यावरणीय स्वीकृति देने के नियम स्पष्ट हैं - परियोजना को जो स्वीकृति दी जाती है, वह पांच वर्ष के भीतर निर्माण या कार्य आरम्भ करने के लिए होती है स्पष्ट है कि कम्पनी को दी गई स्वीकृति की वैधता समाप्त हो चुकी है। नई स्वीकृति लेने के बदले उत्कल एल्यूमिनियम इण्टरनेशनल लिमिटेड ने दो गैर-कानूनी कार्य किये- निर्माण शुरु किया और पर्यावरणीय स्वीकृति आगे बढ़ाने का आवेदन दिया। पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन के निर्देशों के अनुसार स्वीकृति का विस्तार केवल वर्तमान परियोजनाआें को ही दिया जा सकता है। जो परियोजनाएं चालू नहीं हुई हैं, उन्हें विस्तार नहीं दिया जा सकता। कम्पनी विस्तार क्यों चाहती है? इस सवाल के जवाब में सामल कहते है कि मूल निर्देशों का पालन किया जाए तो परियोजना आर्थिक दृष्टि के व्यवहार्य नहीं रह पाएगी।

बगरीझोला बैठक में रखी गई मांगों में एक मांग यह भी थी कि प्रदेश के मुख्यमंत्री और उद्योग एवं खनिज मंत्री को जनता को यह बताना चाहिए कि उत्कल एल्यूमिनियम इण्टरनेशनल लिमिटेड द्वारा उनके प्राकृतिक संसाधन हड़प लिये जाने के पश्चात् ये लोग किस प्रकार जिंदा रहेंगे। यह स्पष्ट नहीं है कि जल्दबाजी में क्या होगा, क्योंकि यदि हर मामले की उपेक्षा करने का इतिहास रहा हो, तो आंदोलनरत् ग्रामीाणें को क्षतिपूर्ति मिलने की संभावना बहुत कम है। ***

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