शनिवार, 20 जनवरी 2007

आवरण

आवरण

प्रकाशन यात्रा के दो दशक


इस अंक से पर्यावरण डाइजेस्ट अपने प्रकाशन के २१ वें वर्ष में प्रवेश कर रही है। प्रकाशन यात्रा के दो दशक में पत्रिका को अपने पाठकों, लेखकों एवं सहयोगियों का निरंतर स्नेह मिला। इसी स्नेह की ऊर्जा से इस छोटे से संकल्प का सातत्य बना रहा।

पिछले दो दशकों का समय हिन्दी पत्रिकाआें के लिए सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण और चुनौती भरा रहा है। इसी काल खण्ड में हिन्दी की प्रतिष्ठित और बड़ी-बड़ी पत्रिकायें एक-एक कर बंद हो गयी। देश में स्वतंत्रता के बाद से साठ बरसों में ऐसा समय कभी नहीं आया, जब इतनी संख्या में हिन्दी पत्रिकाआें का प्रकाशन बंद हुआ हो।

पिछले बीस वर्षो में हमने देखा कि व्यवसायिक पत्रिकाआें की बढ़ती भीड़ में रचनात्मक सरोकारों की पत्रिका को जिंदा रखना संकटपूर्ण तो है, लेकिन असंभव नहींं। पर्यावरण डाइजेस्ट का यह छोटा सा दीप अनेक झंझावातों के बावजूद शिशु मृत्यु के कठिन समय को पार कर यहां तक पहुंच पाया है तो इसके पीछे हमारे पाठको की पर्यावरण प्रेमी शक्ति का संबल था। यह सबल ही वर्तमान और भविष्य की हमारी यात्रा की गति एवं शक्ति का आधार है।

पिछले दो दशकों में पर्यावरण डाइजेस्ट ने कभी किसी सरकार, संस्थान या आंदोलन का मुखपत्र बनने का प्रयास नहीं किया, पत्रिका की प्रतिबद्धता सदैव सामान्य पाठक के प्रति रही है। इसी प्रतिबद्धता के संकल्प को आज हम फिर एक बार दोहराना चाहते हैं।

पत्रिका के प्रकाशन और निरंतरता में जिन मित्रों का सहयोग और समर्थन मिला उन सभी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए आशा करते है कि भविष्य में भी इसी प्रकार का स्नेह और सहयोग मिलता रहेगा।

प्रसंगवश


मालवा में नदी जोड़ योजना से जुड़ी बातें

भारत सरकार की नदी जोड़ने की योजना के अन्तर्गत मालवा क्षेत्र की प्रमुख नदियों पार्वती व कालीसिंध को चम्बल से जोड़ने की योजना है। इस योजना का मुख्य आधार है, जल अतिरेक वाली नदी से जलाभाव नदी में पानी पहुंचाना। इस क्षेत्र में चम्बल की सहायक व छोटी नदियों पर बांध बनाकर उनके पानी को चम्बल नदी में ऊपर की ओर बनें बांधों, गांधीसागर व राणा प्रताप नगर में मिलाया जाना प्रस्तावित है। सवाल यह उठता है कि चम्बल नदी घाटी के निचले व ऊपरी क्षेत्र में जब वर्षा का औसत समान है तो पानी एक जगह से दूसरी जगह ले जाने की क्या वजह है? इस परियोजना के अन्तर्गत पार्वती, नेवज एवं कालीसिंध नदियों पर तीन बांधों के अलावा गांधीसागर के जलग्रहण क्षेत्र में सात बांध बनाए जाने का प्रस्ताव हैं। इन बांधों से डूब में आने वाले १२४ गांवों में से सिर्फ ६५ गांवों के डूब के आंकड़े मौजूद हैं। अन्य ५९ गांव, जो कि गांधीसागर क्षेत्र में प्रस्तावित ७ बांधों एवं नहर क्षेत्र से प्रभावित होंगे, उनके बारे में कोई आंकड़ें मौजूद नहीं हैं। जिन ६५ गाँवों के आंकड़ें मौजूद है, उनके अनुसार ५४११ परिवारों के २७०५५ लोगों की आबादी विस्थापित होंगी। इन गांवों की १७३०८ हेक्टेयर जमीन डूब में आएगी। महत्वपूर्ण बात यह है कि ये आंकड़े सन् २००२-०३ में प्रकाशित किए गए हैं, जबकि जनसंख्या के आंकड़ें १९९१ की जनगणना पर आधारित हैं, प्रस्तावित योजना के अन्तर्गत पाटनपुर, मोहनपुरा एवं कुंडलिया में कुल मिलाकर २००० एमसीए पानी स्थानांतरण के लिए अतिरेक बताया जा रहा है जबकि इस अनुमान में स्थानीय आवश्यकता पर ध्यान नहीं दिया गया है। परियोजना के मूल प्रस्ताव के अलावा शिप्रा नदी को भी उस योजना में शामिल किए जाने की बात की जा रही है। इसके अन्तर्गत इन्दौर, देवास एवं उज्जैन में पेयजल उपलब्ध कराने की बात है। यदि ऐसा किया जाता है तो पानी की मात्रा १००० एमसीएम से काफी कम हो जाएगी और जल अतिरेक नहीं के बराबर होगा। इस क्षेत्र में एक साथ इतने सारे बांध बनाने के लिए जलाशयों के कारण स्थानीय पर्यावरण में काफी बदलाव आने की आशंका है। पर्यावरणीय प्रभावों के अलावा लोगों के विस्थापन के कारण स्थानीय सामाजिक परिस्थिति में भी काफी बदलाव आएंगे। इसके अलावा भूमि के उपयोग में बदलाव आने एवं रोजगार के साधन में बदलाव के कारण सामाजिक स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंका है। मालवा क्षेत्र में स्थानीय आवश्यकता को पूरा किए बगैर पानी के स्थानांतरण से क्षेत्रीय विषमता काफी बढ़ेगी। इसलिए आवश्यकता है कि गांधी सागर के न भर पाने की विकृतियों को पूरा किया जाए एवं चम्बल में नीचे मिलने वाली नदियों के पानी को ऊपरी चम्बल में मिलाने की कोई जरुरत नहीं है। यदि सदियों पुरानी परम्परागत जल व्यवस्था को पुन: विकसित किया जाए तो ऐसी महाकाय योजनाआें की जरुरत ही नहीं पड़ेगी, साथ ही पूरे इलाके को भावी पर्यावरणीय व सामाजिक संकट से बचाया जा सकेगा।

मीडिया का नैतिक दायित्व

भारतीय पत्रकारिता के स्थापना दिवस पर विशेष

-डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम

अब से लेकर सन् २०२० तक का कालखंड हमारे राष्ट्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीय प्रेस को एक अरब लोगों के प्रसार माध्यम के रुप में उभरना होगा। इससे भी बढ़कर, मीडिया को भारत के आर्थिक विकास में सहभागी के रुप में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना है। आर्थिक विकास तथा हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत का मेल भारत को एक खुशहाल, संपन्न राष्ट्र बना देगा।

मीडिया को चाहिए कि वह किसानों, मछुआरों, श्रमिकों, शिक्षकों, ज्ञानकर्मिकों, स्वास्थ्यकर्मियों आदि का हमेशा स्मरण करें। राजनीति के दो घटक होते है : राजनीतिक राजनीति और विकास की राजनीति। अधिकांश मीडिया राजनीतिक राजनीति को ही अधिक महत्व देता है। जबकि देश को जरुरत है विकास की राजनीति की। इस क्षेत्र में मीडिया की रिपोर्टिंग महत्वपूर्ण है।

एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन ग्रामीण युवाआें के माध्यम से ग्रामीण विकास हेतु क्षमता निर्माण गतिविधियों में रत है। कुछ समय पूर्व इस फाउंडेशन ने अपने राष्ट्रीय फैलो का सम्मेलन आयोजित किया था। आमतौर पर फैलो की उपाधि वैज्ञानिकों, इतिहासकारकों तथा अर्थशास्त्रीयों को दी जाती है। यहाँ जिन फैलो का जिक्र हो रहा है, वे किसान, मछुआरे और शिल्पकार हैं। विभिन्न क्षेत्रों से आए ये लोग देहात में रह रहे लोगों के जीवन में बदलाव ला सकते हैं। पत्रकारों को इन जमीन से जुड़े समाज सुधारकों से मिलकर इनकी योग्यता, समर्पण तथा अनुभवों को जनता के सामने लाना चाहिए ताकि ये हमारे युवाआें के लिए आदर्श के रुप में उभरें।

मैं अब तक १२ राज्यों के विधान मंडलों को संबोधित कर चुका हँू। मेरा मुख्य संदेश यहीं रहता है कि संबंधित राज्य को कैसे उच्च मानव विकास सूचकांक के साथ और प्रति व्यक्ति आय बढ़ाई जा सकती है। इसके लिए मैं ८-१० मिशन भी बताता हँू। मेरा सुझाव है कि मीडिया इन मिशनों का अध्ययन करें, शोध एवं विश्लेषण करें तथा राज्यों के विकास हेतु नेताआें के समक्ष अपने सुझाव रखे। केरल विधानसभा में मेरे संबोधन के बाद वहाँ के मीडिया ने इस दिशा में प्रशंसनीय पहल की।

मीडिया को विकसित भारत २०२० पूरा (ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाएँ उपलब्ध कराना), भारत निर्माण आदि जैसे कार्यक्रमों एवं राष्ट्रीय मिशनों में सहभागी होना चाहिए। मीडिया को इनके सकारात्मक पहलुआें को प्रमुखता से उभारना चाहिए।

यह जरुरी है कि मीडियाकर्मी तैयार करने वाले अकादमिक संस्थानो में अनुसंधान शाखाएँ हों। इससे हमारे पत्रकार राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर मौलिक अनुसंधान कर मध्यम व दीर्घकालिक समस्याआें के समाधान उपलब्ध करा सकेंगे। अखबार मालिकों को चाहिए कि वे युवा रिपोर्टरों द्वारा स्नातकोत्तर अर्हता पाने हेतु किए जाने वाले शोधकार्य को प्रोत्साहित करें। इससे प्रिंट मीडिया की सामग्री की गुणवत्ता में भी सुधार आएगा।एक अनुसंधानपरक वातावरण में लगातार ज्ञान अर्जित करते रहना सभी मीडियाकर्मियों के लिए जरुरी है।

एक उदाहरण देखिए। विदेशी अखबारों में किसी विषय पर चर्चा करने से पहले उसे एक आंतरिक शोध समूह के पास भेजा जाता है यहाँ तमाम तथ्यों व आँकड़ों का अध्ययन किया जाता है, उनका प्रमाणीकरण किया जाता है और फिर प्रमाणिक समाचार तैयार कर प्रकाशन के लिए भेजा जाता है। जब भारत में आउटसोर्सिंग करने को लेकर एक आलोचनात्मक टिप्पणी की गई थी, तो एक अमेरिकी पत्रकार कुछ दिन भारत में रहा और पूरे मुद्दे का अध्ययन किया। उसने पाया कि जो कंपनियाँ बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग कर रही थीं, वे अमेरिका तथा योरप से आयातित उपकरणों का प्रयोग कर रही थीं। इस प्रकार यह तथ्य सामने आया कि बीपीओ उद्योग अमेरिका व योरप के हार्डवेयर उद्योग के लिए परोक्ष बाजार उपलब्ध कराते हैं।

इसी प्रकार डिस्कवरी चैनल का एक व्यक्ति सूचना प्रौद्योगिकी में भारत की प्रगति का अध्ययन करना चाहता था। थॉमस फ्राइडमैन भारत आकर एक माह तक रहे और बंगलोर तथा अन्य जगहों पर गए। अपने समाचार विश्लेषण के आधार पर उन्होंने एक पुस्तक लिखी : द वर्ल्ड इज फ्लैट । यह है अनुसांधन की ताकत। ***

(भारतीय प्रेस परिषद के एक समारोह में दिए गए भाषण से संक्षिप्त)

शांति ही संस्कृति है

सामाजिक पर्यावरण

डॉ. रामजी सिंह

महाश्वेता देवी ने अपने एक लेख में एक ऐसे विश्व का सपना देखा है जो हिंसामुक्त, अभाव, अन्याय और अशिक्षा से मुक्त तो होगा ही साथ ही अशांति और आतंकवाद से भी दूर होगा।

बहुत दिन पहले विन्डेल विल्की ने अपनी पुस्तक वन वर्ल्ड में ऐसे विश्व का स्वप्न देखा था जिसमें राष्ट्र की सीमाएं न हों। एच.जी. वेल्स, बर्टेण्ड रसेल आदि कुछ और चिन्तकों ने भी विश्व राज्य की कल्पना की हैं महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन ने २२ वीं सदी नामक अपने उपन्यास में एक भावी विश्व राज्य के चित्र को निरुपित किया था। आज दो विश्व युद्धों के बाद और खासकर परमाणु बम का हिरोशिमा और नागासाकी में हाहाकार सुनकर एक विश्व राज्य की कल्पना पहले से अधिक व्यावहारिक दिख रही है।

हमने अपने समय में ही देखा कि किस प्रकार दो वियतनाम और दो जर्मनी एक हो गये और पूर्वी यूरोप के पच्चीस राष्ट्रों की एक ही संयुक्त संसद, मुद्रा, बाजार ओर पारपत्र भी हो गया है। इसके अतिरिक्त दक्षिण पूर्वी एशिया में सार्क और एशियन राष्ट्रों के क्षेत्रीय संगठनों के बावजूद भी संयुक्त राष्ट्र संघ और उससे संबंधित वैश्विक अभिकरण काम कर रहे हैं। इससे लगता है कि स्वप्न अब सत्य और साकार हो सकता है।

आज सिद्धांतवाद के दिन लदते जा रहे हैं इसलिए चाहे पूंजीवाद हो या समाजवाद, दोनों वर्तमान अस्तित्व को स्वीकार करने पर विवश हैं। शायद यह इस युग की अनिवार्यता भी है। हमें अणु बम और अहिंसा के बीच अहिंसा को चुनना ही होगा। क्योंकि आणविक युद्ध का गति पथ समाप्त हो गया है। यह अच्छा है कि अणु बम पर किसी राष्ट्र विशेष का एकाधिकार नहीं है, इसलिए अमेरिका के पास लगभग ३० हजार परमाणु बम के रहते हुए भी और हजार परेशानियों के बावजूद भी उसने वियतनाम, अफगानिस्तान या युगोस्लाविया के युद्धों में अणु बम के प्रयोग करने का साहस नहीं किया। संक्षेप में कह सकते हैं कि आज इक्कीसवीं शताब्दी में युद्ध का गतितत्व ही समाप्त हो गया है। युद्ध का प्रारंभ मानव ने अपने नाखून और दांतो के उपयोग से शुरु किया था और आज लगता है इतिहास अपनी पुनरावृत्ति करना चाहता है। वैज्ञानिक आइंस्टीन से जब पूछा गया कि तीसरा विश्व युद्ध किन अस्त्रों से लड़ा जाएगा तो उन्होंने उत्तर दिया कि तीसरा विश्व युद्ध किससे लड़ा जाएगा यही नहीं कह सकता लेकिन यह निश्चित है कि जब चौथा विश्वयुद्ध छिड़ेगा तो हम आदि मानव की भांति अपने नाखूनों एवं दांतो का ही लड़ने में उपयोग करेंगे। स्पष्ट है कि अणु बम का अर्थ ही है मानव और मानवोत्तर प्रजातियां, समस्त कला और संस्कृति, ज्ञान और विज्ञान का सर्वनाश। यही कारण है कि साम्यवाद अपने युद्ध की अनिवार्यता के सिद्धांत का परित्याग कर पूंजीवाद के साथ सह-अस्तित्व को स्वीकार कर चुका है और अब तो विश्व व्यापार संगठन में साम्यवादी चीन भी सदस्य बनकर पूंजीवादी भूमंडलीकरण का एक उपकरण बन गया है। आज शांति की संस्कृति ही मानवता का एक मात्र विकल्प बच रही है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानव प्रवृत्ति का चित्रण करते हुए कहा है सुमति कुमति सबसे लिए रहिहीं- तो क्या हम यह मान लें कि मानव स्वभाव से दुष्ट स्वार्थी और कलह वृत्ति का ही है, लेकिन मानव को स्वभाव से दुष्ट मान लेने में अखिल मानव जाति का अपमान तो है ही निराशावाद का भी चरम है। यदि मानव मूलत: दुष्ट और बुरा है तो फिर शिक्षण, प्रशिक्षण, संस्कार, परिष्कार, नीति और धर्म के उपदेश सब व्यर्थ है। जिस प्रकार बालू से तेल नहीं निकल सकता उसी प्रकार दुष्ट मानव से साधुता की अपेक्षा नहीं की जा सकती। असत् से सत् का उद्भव नहीं हो सकता, इसलिए यदि हम मनुष्य को स्वभाव से बुरा मान लेंगे तो फिर अच्छाई और अच्छे विश्व की कल्पना नहीं हो सकती। मानव सभ्यता बर्बर से सभ्य समाज की ओर अग्रसर होती रही हैंऔर आज वह पृथ्वी से भी उपर उठकर मंगल और चंाद की और बढ़ रही है।

प्रश्न है कि मानव की ही नहीं सृष्टि के समस्त प्राणियों की एक ही अभीप्सा है, सुख या आनंद। इसी को फ्रायड ने प्लेजर इंसटिंक्ट या सुख की प्राप्ति की प्रवृत्ति कहा है। महाभारत का वचन है कि सब कोई सुख चाहते है। लेकिन सुख, शांति के बिना असंभव है। गीता में कहा गया है कि अगर शांति नहीं है तो सुख कहां से मिलेगा। सुख की आकांक्षा भी तभी परिपूर्ण होगी जब हम शांति प्राप्त करें और हमारे पड़ोस, समाज और विश्व में शाति का साम्राज्य हो।

आध्यात्मिक दृष्टि से यह कहा जाता है कि बाहर शांति तभी संभव है जब हमारे मन में शाति हो इसलिए मानसिक शांति के लिए निर्वाण और मोक्ष आदि की अवधारणा आई हैं योगशास्त्र के अनुसार भी मानसिक शांति के लिए अष्टांगिक योग की योजना है। चाहे भगवान बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग हो या भगवान महावीर के त्रिरत्न की कल्पना हो या योग, सांख्य, वेदांत आदि शास्त्र हों प्रत्येक जगह मानसिक शांति के लिए ज्ञान और समाधि पर जोर दिया जाता है।

शांति के लिए आध्यात्मिक एवं धार्मिक दृष्टि से प्रयासों के बावजूद जी जगत में अशांति और कलह की कमी नहीं हो रही हैं । पिछले पांच हजार वर्षो का इतिहास साक्षी है कि शांति के लिए धर्म की ओर से किये गये प्रयास भी सफल नहीं हो पाये है। हिन्दुआें के विभिन्न संप्रदायों के बीच जिस प्रकार हिंसा और प्रतिहिंसा चलती रही उसी प्रकार ईसाई समाज में प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक आदि सम्प्रदायों के बीच कलह का अंत दिखाई नहीं पड़ रहा है। एक अल्लाह एवं एक बिरादरी को मानने वाले इस्लाम में शिया सुन्नी आज भी लड़ ही रहे हैं।

शायद इसलिए मार्क्स ने धर्म को अफीम का नशा कहा था। जो धर्म शांति का संदेश वाहक माना जाता है, वह आज अशांति का सबसे बड़ा उपकरण बन गया है। मध्य युग में संतो ने धर्म और मत समन्वय की चेष्टा की थी। कबीर ने हिन्दु और मुसलमान दोनों की खबर ली थी और कहा था कि - इन दोनों राह न पाई । स्वामी रामानन्द ने तो स्पष्ट कहा था जाति पांति पूछे नहीं कोई, हरि को भजै से हरि का होई। इसी प्रकार संत परम्परा के प्राय: सभी संत कवियों ने धर्म समन्वय का प्रयास किया था। आधुनिक युग में भारतीय नव जागरण के पुरोधा राजा राममोहन राय ने - विश्व धर्म नामक पुस्तक लिखी और रामकृष्ण परमहंस की प्रेरणा से स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में व्यक्तिगत और साम्प्रदायिक धर्म को नकारते हुए विश्व धर्म का संदेश दिया। गांधी और विनोबा ने सर्व धर्म समभाव के सिद्धांत को अपने भीतर उतारने की पूरी कोशिश की थी।

विश्व शांति के लिए मानव मस्तिष्क की शांति और हृदय को निश्कलुष किया जाए इससे किसको विरोध होगा, लेकिन मानव शून्य में नहीं रहता वह तो समाज में ही रहता है जिस प्रकार उसकी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक परिस्थितियां होगी उसी प्रकार उसका चिंतन और जीवन भी होगा। इस दृष्टि से शांति की संस्कृति के लिए समाज की व्यवस्था और संरचना पर सर्वाधिक ध्यान देना होगा। भरी सभा में द्रोपदी का चीरहरण सम्पूर्ण पुरुष समाज और सभ्यता के लिए कलंक है। उसी प्रकार लड़के-लड़की में विभेद, बाल विवाह, अनिवार्य वैधव्य, वैश्यावृत्ति और देवदासी प्रथा, बढ़ते हुए बलात्कार और अल्ट्रासाउण्ड परीक्षण के पश्चात् स्त्री भ्रूण को ही नष्ट करना पाशविकता की सीमा को पार करना है।

इन सभी का मूल कारण है कि हमारा समाज सदियों से पुरुष सत्तात्मक है और स्त्रियों का शोषण और उत्पीड़न पुरुषों का जन्म सिद्ध अधिकार माना जाता है।शांति की संस्कृति के विकास की सबससे बड़ी बाधा है हमारी आकांक्षा तो शांति की रहती है लेकिन आयोजन युद्ध और कलह का होता है। हमारे शास्त्र उपकरण भी युद्ध और विनाश के होते हैं। हमें शांति की संस्कृति के लिए अपने मन में शांति की भावना को स्थापित करना होगा। जिस प्रकार युद्ध का प्रारंभ मानव मस्तिष्क से होता है उसी प्रकार शांति का दुर्ग भी मानव मन में ही निर्मित होगा। इसलिए शांति की संस्कृति के निर्माण के लिए शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी।

आज शिक्षण संस्थाआें में सैनिक शिक्षा के लिए प्रावधान तो है लेकिन शांति की शिक्षा की कल्पना भी नहीं की जाती। जहां महावीर, बुद्ध और गांधी का अभिर्भाव हुआ और जहां शाति की संस्कृति का विस्तार हुआ वहीं आज पुरे भारत में लगभग दो सौ पचहत्तर विश्वविद्यालयों में मात्र नौ स्थानों पर गांधी विचार और शांति की शिक्षा का प्रावधान है। एक असमान विश्व में शस्त्रीकरण और युद्ध के नाम पर लगभग २० खरब डॉलर खर्च करना एक प्रकार की असभ्यतम हिंसा ही तो है। शंाति की संस्कृति के लिए न केवल हमें शिक्षा पर ध्यान देना होगा बल्कि कला-संगीत तथा क्रीड़ा का सहारा लेकर इसे शांति उन्मुख बनाना होगा। ***

निरंकुशता के शिकार बच्चे

बाल जगत

थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा विश्व में बच्चों की स्थिति नामक रिपोर्ट में बताया गया है कि बच्चों के अवैध व्यापार अथवा उन्हें बलपूर्वक घरेलू नौकर बनाने के कारण लाखों बच्चे ओझल हो चुके हैं। इसके अलावा गलियों में आवारा धूमने वाले बच्चे दिखाई तो देते हैं, मगर वे भी मूलभूत सेवाआें और सुरक्षा के दायरे से कमोवेश बहिष्कृत हो चुके हैं।

इन बच्चों को न सिर्फ अत्याचार भोगना पड़ता है, बल्कि वे उनकी वृद्धि एवं विकास के लिए आवश्यक शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य मुख्य सेवाआें से भी वंचित हो गये हैं। इन बच्चों के स्वास्थ्य एवं सुरक्षित बचपन के अधिकार की रक्षा करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि वर्तमान में ये बच्चे सार्वजनिक चर्चा तथा कानूनी प्रावधानों से लेकर आंकड़ों और खबरों तक से बाहर हकाल दिये गये हैं।

यह रपट इस बात पर बल देती है कि विशेष ध्यान दिये बगैर उपेक्षा और शोषण के चक्र में उलझे और समाज द्वारा भुला दिये गये इन लाखों बच्चों के साथ-साथ स्वयं समाज को भी भविष्य में इसके घातक परिणाम भुगतने होंगे। रिपोर्ट का तर्क है कि अपने बच्चों के कल्याण और स्वयं अपने भविष्य के प्रति जिस समाज को रुचि होगी, वह ऐसा कदापि नहीं होने देगा।

यूनिसेफ के कार्यकारी निदेशक एन.एम.विनमेन कहते हैं, समूचे विकासशील जगत में इन संकटग्रस्त बच्चों तक पहुंचे बगैर सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती है। अगर सर्वाधिक अभावग्रस्त, गरीब, संकटग्रस्त, शोषित एवं पीड़ित बच्चों की उपेक्षा जारी रही तो टिकाऊ विकास सम्भव ही नहीं हैं।

इसके पूर्व यूनिसेफ अपनी एक अन्य विशेष रिपोर्ट में बता चुका है कि गरीबी, एच.आय.वी/एड्स एवं शस्त्र संघर्ष बचपन को कैसे खोखला बना देते हैं। इसने अपनी हाल की रपट बहिष्कृत और उपेक्षित में बताया है कि कैेसे ये कारण और इनके साथ-साथ कमजोर शासन एवं भेदभाव, बच्चों को शोषण और दमन से बचाने में नाकाम होते हैं।

साथ ही जो बच्चे मूलभूत सुविधाआें से वंचित और गरीबी से त्रस्त होते हैं, वे सहज ही शोषण का शिकार बन जाते हैं। इसकी वजह है कि उन्हें अपनी सुरक्षा के विषय में बहुत कम जानकारी होती है। सशस्त्र संघर्ष में फंसे बच्चे आमतौर पर बलात्कार एवं अन्य प्रकार की लैंगिक हिंसा का शिकार बनते हैं। ऐसा ही कुछ-कुछ अकेले, असुरक्षित एवं उपेक्षित बच्चों के साथ भी होता है।

इस रिपोर्ट के अनुसार निम्न चार स्थितियों में बच्चों के बहिष्कृत और उपेक्षित होने की संभावना होती है।

औपचारिक पहचान विहीन बच्चे

विकासशील विश्व (चीन के अलावा) में प्रतिवर्ष जन्म लेने वाले बच्चों में से आधे बच्चों का जन्म-पंजीकरण ही नहीं होता, अर्थात् प्रतिवर्ष ५ करोड़ बच्चे नागरिक के रुप में औपचारिक स्वीकृति मिलने के अपने प्राथमिक जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित रहते हैं।

पंजीकृत पहचान के अभाव में बच्चों को शिक्षा, अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं तथा उनके बचपन तथा भविष्य को बेहतर बनाने वाली अन्य बुनियादी सुविधाएं मिलने की कोई निश्चितता नहीं होती। सीधे शब्दों में कहा जाए तो जिन बच्चों के पास औपचारिक पहचान नहीं है, वे किसी गिनती मे नहीं हैं, इसलिए उनकी और किसी प्रकार का ध्यान भी नहीं दिया जाता है।

अभिभावकों के प्यार से वंचित बच्चे

सड़कों पर आवारा फिरने वाले और जेलों (सुधार गृह) में बंद लाखों बच्चे अभिभावको और परिवार की स्नेह भरी देखभाल के अभाव जी रहे हैं। इन विपरीत परिस्थितियों में फंसे बच्चों को अक्सर बच्चा नहीं माना जाता। विकासशील देशों में लगभग १.४३ करोड़ बच्चे, अर्थात् प्रत्येक १३ में से १ बच्चा, अपने माता या पिता में से किसी एक की मौत का दुख झेल रहा होता है। अत्यधिक गरीबी में गुजर-बसर कर रहे बच्चों के अभिभावकों में से यदि किसी एक, विशेष रुप से यदि माता की मृत्यु हो जाए तो उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य खतरे में पड़ जाता है।

दुनिया में ऐसे करोड़ों बच्चे अपने बचपन का एक बड़ा हिस्सा सड़क किनारे फुटपाथ पर बिताते हैं, जहां उनका हर तरह से शोषण और दमन किया जाता है।

इस लाख से अधिक बच्चे छोटे-मोटे अपराध में पकड़े जाकर मुकदमों की प्रतीक्षा में हिरासत में रहते हैं। इनमें से अधिकांश बच्चे उपेक्षा, हिंसा और मानसिक कष्ट का शिकार होते हैं।

वयस्कों की भूमिका में बच्चे

रिपोर्ट में बताया गया है कि बचपन के स्वाभाविक विकास के महत्वपूर्ण चरण को दरकिनार करके बच्चों को वयस्कों की भूमिका निभाने के लिए बाध्य किया जाता है। सशस्त्र संघर्ष में शसस्त्र समूहों के लिए लाखों बच्चों को सैनिक, संदेश वाहक, भार वाहक, रसोईया और वैश्यावृत्ति जैसे काम करने के लिए बाध्य किया जाता है। अधिकांश मामले में इन बच्चों का बलपूर्वक अपहरण कर उन्हें ऐसे कामों में लगा दिया जाता है।

अनेक देशों में बाल विवाह के खिलाफ कानून होने के बावजूद कई विकासशील देशों में ८ करोड़ के अधिक बालिकाएं १८ वर्ष की उम्र से पहले ही ब्याह दी जाती है।

एक अनुमान के अनुसार १.७१ करोड़ बच्चे कारखानों, खदानों और खेती से जुड़े खतरनाक कामों से जुड़े हैं।

शोषित बच्चे :-

ऐसे बच्चे भी बहुत अधिक संख्या में हैं जिन्हें स्कूल और अन्य सेवाआें से वंचित कर दिया जाता है और वे अदृश्य शोषण का शिकार हैं। इनकी संख्या का पता लगाना और उनका जीवन बचाना अत्यन्त कठिन है।

इनमें से लगभग ८४ लाख बच्चे वैश्यावृत्ति से लेकर कर्ज की एवज में बंधुआ रखे जाने तक के सर्वाधिक बुरे किस्म के बाल मजदूर हैं, जहां उनका गुलामों की तरह शोषण होता है। लगभग २० लाख बच्चे जबरदस्ती वैश्यावृत्ति में लगे हुए हैं, जहां उन पर रोजाना यौन व शारीरिक अत्याचार होते हैं।

एक अनुमान के मुताबिक प्रतिवर्ष लाखों बच्चे तस्करी के माध्यम से भूमिगत और अनेक गैर-कानूनी गतिविधियों जिनमें वैश्यावृत्ति एवं अन्य अनैतिक कार्य शामिल हैं, में लगा दिये जाते हैं। घरेलू नौकर के रुप में काम कर रहे असंख्य बच्चों की संख्या और स्थिति का पता लगाना तो और भी दुष्कर कार्य है। अनेक बच्चों को स्कूल से निकाल दिया जाता है, उन्हें शारीरिक प्रताड़ना दी जाती है और साथ ही कम भोजन देकर उनसे अधिक काम कराया जाता है।

रिपोर्ट जोर देकर कहती है कि बच्चों को मूलभूत सेवाएं नही दे सकने वाले या ऐसा करने के अनिच्छुक देशों में रहने वाले लाखों-लाख बच्चे तो वास्तव में अदृश्य ही हैं। लिंग, जातीयता अथवा अपंगता के आधार पर विभेद भी बच्चों की उपेक्षा का एक प्रमुख कारण है।

अनेक देशों में लड़कियों को स्कूल नहीं भेजा जाता। जातीय अल्पसंख्यकों और आदिवासियों के बच्चो को भी मूलभूत सेवाआें से वंचित किया जाता है। रिपोर्ट का दावा है रोजमर्रा किये जाने वाले भेदभाव के कारण विश्व में आज की स्थिति में १५ करोड़ विकलांग बच्चों को शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्याप्त पोषण नहीं मिल पा रहा है।

विश्व में बच्चों की स्थिति २००६ के अनुसार नाजुक स्थिति में फंसे बच्चों का विकास सुनिश्चित करने के लिए संपूर्ण विश्व को विकास के वर्तमान प्रयासों के अतिरिक्त भी बहुत कुछ करना होगा। इन बच्चों तक पहुंचने के लिए सर्वप्रथम संबंधित सरकारों को ही कदम उठाने होंगे वे निम्नलिखित चार दिशाआें में काम कर सकती हैं।

अनुसंधान निगरानी और रिपोर्टिंग :-

उपेक्षित और अदृश्य बच्चों तक पहुंचने और उन पर हो रहे अत्याचार रोकने के लिए उनकी जानकारी एकत्रित करने और रिपोर्टिंग की व्यवस्था बनाना जरुरी है।

कानून :-

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बच्चों के मान्य अधिकारों के अनुरुप राष्ट्रीय कानून होना आवश्यक है। कानून के माध्यम से भेदभाव को पूर्णत: समाप्त किया जाना चाहिए। बच्चों को नुकसान पहुंचाने वालों के प्रति कानून लागू करने में सख्ती बरतनी चाहिए।

वित्तीय सहायता और क्षमता विकास :-

बाल केन्द्रित बजट बनने चाहिए एवं बच्चों की सेवा में लगी संस्थाआें को कानून और अनुसंधान में सहयोग करना चाहिए।

कार्यक्रम :-

अनेक देशों और समाजों में बच्चों को मूलभूत सेवाआें की प्राप्ति में बाधा बनने वाली व्यवस्थाआें में तत्काल सुधार की आवश्यकता है। जन्म प्रमाण-पत्र की अनिवार्यता समाप्त किये जाने से ज्यादा संख्या में बच्चे स्कूल पहुँचे सकेंगें। ***

सत्ता, गरीबी और वैश्विक जल संकट

विशेष लेख

महीन

वर्ष २००६ की मानव विकास रिपोर्ट दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन शहर में ९ नवंबर २००६ को जारी की गई। इस बार राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम की मानव विकास रिपोर्ट का मुख्य फोकस एक प्राकृतिक संसाधन पानी पर है, जो तेजी से एक दुर्लभ संसाधन बनता जा रहा है। रिपोर्ट में वैश्विक जल संकट के दो अलग-अलग पहलुआें पर ध्यान दिया गया है। पहला है जीवन के लिए पानी जहां साफ पानी मुहैया करना, अपजल को साफ करना और स्वच्छ शौच व्यवस्था उपलब्ध कराने को मानव प्रगति के तीन बुनियाद तत्वों के रुप में पहचाना गया है। इस बात पर विचार किया गया है कि इन बुनियादी तत्वों की व्यवस्था न की गई तो क्या कीमत चुकानी होगी इसके साथ ही सबको पानी व स्वच्छता मुहैया कराने की रणनीतियों की छानबीन की गई है।

दूसरे मुद्दे का संबंध जीविका के लिए पानी से है। इसमें पानी को एक उत्पादक संसाधन के रुप में देखा गया है जिसका बंटवारा देशों के अंदर और सरहदों के पार होता है।पानी का प्रबंधन समतामूलक ढंग से और कार्यक्षम ढंग से करना सरकारों के सामने एक चुनौती है।

सकंट की जड़ें

पानी संकट के बारे में आम मत यह है कि यह संकट पानी की सप्लाई में भौतिक कमी का परिणाम है। इसके विपरीत रिपोर्ट में दलील दी गई है कि पानी संकट की जड़ें दरअसल गरीबी, असमानता और सत्ता संबंधों में गैर बराबरी में देखी जा सकती हैं। इसके अलावा पानी प्रबंधन की नीतियों में भी खामियां हैं जिसकी वजह से अभाव और गंभीर हो जाता है। एक अरब से ज्यादा लोगों को साफ पेयजल मयस्सर नहीं है और करीब २.६ अरब लोग पर्याप्त और उचित शौच व्यवस्था से वंचित है।

ऐसी परिस्थिति में यह जरुरी हो जाता है कि जीवन के लिए पानी को एक बुनियादी मानवीय जरुरत और एक बुनियादी मानव अधिकार माना जाए। यह भी गौरतलब है कि इन मूलभूत जरुरतों से वंचित अधिकांश लोग गरीब हैं। विकासशील देशों में तो हर पांच में से एक व्यक्ति को निर्धारित न्यूनतम २० लीटर प्रतिदिन साफ पानी भी नहीं मिलता है, जबकि प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति पानी की खपत २००-३०० लीटर के बीच है और अमेरिका में तो यह ५७५ लीटर है।

इस तरह की असमान पहुंच आर्थिक वृद्धि को बाधित करती है और संपत्ति व जेंडर संबंधी विषमता को जन्म देती है। एक तथ्य यह भी है कि पानी के अच्छे स्त्रोत से वंचित लोगों में से करीब एक-तिहाई लोगा मात्र १ डॉलर प्रतिदिन की आमदनी पर जिंदा हैं। शौच व्यवस्था के संदर्भ में भी पंहुच व गरीबी के बीच साफ संबंध नजर आता है - शौच व्यवस्था तक पहुंच से वंचित करीब १.४ अरब लोग २ डॉलर प्रतिदिन से भी कम पर जीवन यापन करते हैं।

मानव विकास : भारत व पड़ोसी देशों की स्थिति

देश माविसू क्रम औसत आयु वयस्क सकल सकल घरेलू जेंडर विकास क्रम

(वर्ष) साक्षरता दाखिला उत्पाद सूचकांक

दर % दर

चीन ०.७६८ ८१ ७१.९ ९०.९ ७० ५८९६ ०.७६५ ६४

श्रीलंका ०.७५५ ९३ ७४.३ ९०.७ ६३ ४३९० ०.७४९ ६८

भारत ०.६११ १२६ ६३.६ ६१ ६२ ३१३९ ०.५९१ ९६

पाकिस्तान ०.५३९ १३४ ६३.४ ४९.९ ३८ २२२५ ०.५१३ १०५

भूटान ०.५८३ १३५ ६३.४ ४७ ४९* १९६९ अनु. अनु.

नेपाल ०.५२७ १३८ ६२.१ ४८.९ ५७ १४९० ०.५१३ १०६

म्यांमार ०.५८१ १३० ६०.५ ८९.९ ४९ १०२७ अनु. अनु.

बांग्लादेश ०.५३ १३७ ६३.३ ४१* ५७ १४९० ०.५२४ १०२

* अनुमानित, अनु. = अनुपलब्ध

संकट के असर

ऐसा बताते हैं कि अस्वच्छ पानी दुनिया में बच्चों का दूसरा सबसे बड़ा हत्यारा है। प्रति वर्ष करीब १८ लाख बच्चे दस्त व अन्य ऐसी बीमारियों के कारण मरते हैं जो अस्वच्छ पानी व खराब शौच व्यवस्था के कारण पैदा होती हैं। पानी लाने का बोझ प्राय: औरतों और लड़कियों पर आता है, जिसके कारण जेंडर असमानता को बढ़ावा मिलता है और कई बार इसके कारण महिलाएं रोजगार व शिक्षा से वंचित रह जाती हैं। इसके अलावा पानी व शौच व्यवस्था के अभाव के कारण होने वाली बीमारियों का असर उत्पादकता व आर्थिक विकास पर भी होता है। इसके चलते गैर बराबरी और गहरा जाती है।

संकट के आयाम

रिपोर्ट में बताया गया है कि पानी व शौच व्यवस्था के संकट की व्यापकता और पैटर्न अलग-अलग देशों में अलग-अलग हैं। अलबत्ता कुछ सामान्य बातें हैं जो क्षेत्रीय सीमाआें से स्वतंत्र हैं :

१. दुनिया के कुछ सबसे गरीब लोग पानी की सबसे भारी कीमत चुकाते हैं, इससे पता चलता है कि ग्रामीण इलाकों , झुग्गी बस्तियों और अनौपचारिक बस्तियों में पानी व्यवस्था का कवरेज कितना कम है।

२. बहुत कम देश ऐसे हैं जो पानी व शौच व्यवस्था को राजनैतिक प्राथमिकता मानते हैं । इसकी झलक इन चीजों के लिए रखे जाने वाले अल्प बजट प्रावधान से मिलती है। इसके अलावा ऐसे सरकारी या निजी प्रयास बहुत कम हैं जिनमें लोगों और समुदायों को नियोजन, क्रियांवयन अथवा निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जाता हो।

३. विकास की साझेदारी में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पानी व शौच व्यवस्था को प्राथमिकता देने में असफल रहा है।

जाहिर है कि जो लोग पानी व शौच व्यवस्था के संकट से सर्वाधिक पीड़ित हैं वे गरीब लोग हैं और खासकर गरीब औरतें हैं। पानी पर अपने हक को मुखरित करने की राजनैतिक आवाज भी उनके पास नहीं है। उनकी आवाज राजनीति के गलियारों में है ही नहीं।

रिपोर्ट में केस स्टडीज, आंकड़ों व विश्लेषण की मदद से इन मुद्दों की बारीकी से छानबीन की गई है। इसके रुबरु विकासशील देशों से ऐसे उदाहरण भी प्रस्तुत किए गए हैं जहां झुग्गी बस्तियों और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों ने इन समस्याआें को सुलझाने के लिए नेतृत्व प्रदान किया है, संसाधन जुटाए हैं और उत्साह व नवाचार का प्रदर्शन किया है। इनसे प्राप्त सबक और साथ में सुविचारित व वित्त पोषित योजनाआें के जरिए सबसे के लिए पानी व शौच व्यवस्था की उपलब्धता सुनिश्चित करने के सतत प्रयासो के महत्व को रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है। इन प्रयासों के लिए विश्व स्तरीय कार्ययोजना भी जरुरी होगी ताकि राजनैतिक इच्छा शक्ति तैयार हो सके और संसाधन जुटाए जा सकें।

जीविका और पानी

जीविका के लिए पानी के मुद्दे सर्वथा अलग हैं। यह तो सही है कि दुनिया से पानी खत्म नहीं हो रहा है और दैनिक उपयोग, कृषि व उद्योगों की जरुरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध है मगर दुनिया के सबसे जोखिमग्रस्त लोग उन इलाकों में रहते हैं जहां पानी का संकट तेजी से बढ़ रहा है। रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि करीब १.४ अरब लोग आज ऐसी नदी घाटियों में बसे हैं जहां पानी का उपयोग उसकेे पुनर्भरण से अधिक है। अति उपयोग के कारण नदियां सूख रही हैं, भूजल स्तर में गिरावट आती जा रही है और पानी-आश्रित इकोसिस्टम्स का तेजी से ह्रास हो रहा है।

जलवायु परिवर्तन से भी गरीब लोगों की जीविकाआें पर कुप्रभाव पड़ने की आशंका है। पानी की उपलब्धता ज्यादा अनिश्चित हो जाएगी तथा सूखे, बाढ़ व प्रतिकूल मौसम का प्रकोप बढ़ेगा। रिपोर्ट में इस मुद्दे को एक बढ़ती चुनौती के रुप में उभारा गया है कि पहले से पानी का सकंट झेल रहे इलाकों में पानी की उपलब्धता घट रही हैं, मौसम का पैटर्न आतिवादी हो रहा है ओर ग्लेशियर पिघल रहे हैं। रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन से निपटने की एक बहुआयामी रणनीति की बात कही गई है जिसमें कार्बन उत्सर्जन कम करना और अनुकूलन की रणनीतियों को समर्थन देना शामिल है।

यह तो अभी से स्पष्ट हो चला है कि आने वाले दशकों में पानी के लिए होड़ बढ़ेगी। जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण, औद्योगिक विकास और खेती की जरुरतें इस सीमित संसाधन पर दबाव बना रहे हैं। ग्रामीण जीविकाआें, पानी और गरीबी हटाने के वैश्विक प्रयासों के बीच कड़ियां स्पष्ट हैं। प्रतिदिन १ डॉलर के सम की आमदनी पर बसर करने वाले तीन-चौथाई लोग ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और मुख्यत: खेती पर आश्रित हैं। दुनिया के ८३ करोड़ कुपोषित लोगों में से दो तिहाई छोटे किसान और खेतिहर मजदूर हैं। पानी की सुरक्षा और जीविका के परस्पर संबंध के आधार पर पानी और गरीबी का संबंध आसानी से समझ में आ जाता है।

इसके अलावा इस बात की समझ भी बढ़ रही है कि पर्यावरण की जरुरतों को भी पानी उपयोग के पैटर्न में स्थान देने की जरुरत है।

ऐसे हालात में डर यर है कि जब पानी के लिए राष्ट्रों के बची होड़ बढ़ेगी, तब शक्तिशाली तबकों के द्वारा सबसे कमजोर अधिकारों वाले लोगों - छोटे किसानो और उनमें भी औरतों - की हकदारी का हनन होगा। तब सभी देशों में गरीब महिला किसानों के पानी के अधिकार को बढ़ावा देना और इस अधिकार की सुरक्षा करना केन्द्रीय महत्व को हो जाएगा क्योंकि शायद गरीब-हितैषी नीतियों वे वहां समुचित परिणाम न मिलें जहां गरीब लोग अशक्त कर दिए गए हैं। मगर पानी उपयोगकर्ता समूहों के अंदर गरीबों व महिलाआें को सशक्त करना एक चुनौतीपूर्ण काम होगा और इसके लिए सकारात्मक कार्रवाई यानी एफर्मेटिव एक्शन के प्रति एक दमदार संकल्प की जरुरत होगी।

एक तथ्य यह भी है कि कई देशों में सिंचाई व पानी प्रबंधन पर सार्वजनिक खर्च इतना कम हो गया है कि वह मात्र इन्फ्रास्ट्रक्चर के रख रखाव की जरुरत के लिए भी पर्याप्त नहीं है। जब सरकारें पानी के अभाव से निपटने की रणनीतियां बनाएंगी तो यह जरुरी होगा कि गरीब हितैषी टेक्नॉलॉजी और अन्य हस्तक्षेपों का उनमें अहम स्थान हो।

टकराव और विकल्प

रिपोर्ट में एक और अहम बात की ओर ध्यान दिलाया गया है। पानी की प्रकृति ही ऐसी है कि वह तो दूर-दूर तक बहेगा, चाहे देशों के अंदर या देशों के बीच कितनी ही सरहदें बांधी जाए। लिहाजा इसमें पानी के अभाव वाले क्षेत्रों में सरहदों के आर-पार तनाव की गुंजाइश बनी रहेगी। रिपोर्ट में सुझाया गया है सरकारी नीतियों और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के जरिए इनसे निपटा जा सकता हैऔर इन्हें टाला जा सकता है मगर दोनों ही मोर्चो पर इस तरह के टकराव के आसार दिखने लगे हैं।

भारत दोनों ही तरह के तनावों का गवाह रहा है। राज्यों के बीच नदियों के पानी के नियंत्रण को लेकर विवाद तो आम बात है ही, भारत पाकिस्तान के साथ सिंधु जल संधि में साझेदार है, जिस पर १९६० में हस्ताक्षर हुए थे और जो राजनैतिक व सैन्य टकराव के लंबे दौर को झेलकर भी जीवित है। रिपोर्ट में इस संधि को पानी के उपयोग में सहयोग को लेकर साझेदारियां विकसित करने के एक महत्वपूर्ण उदाहरण के रुप में प्रस्तुत किया गया है। इससे काफी कुछ सीखा जा सकता है।

सूचकांकों में भारत

मानव विकास रिपोर्ट में लोगों की रुचि प्राय: यह जानने में होती हैं कि विभिन्न देश मानव विकास के संदर्भ में कहां है। अपने रोजाना के अनुभव को ठोस आंकड़ों में देखना शायद संतोष देता है। शायद कई मुकालते व पूर्वाग्रह भी टूटते हैं। १९९० से हर वर्ष मानव विकास रिपोर्ट में मानव विकास सूचकांक (माविसू) शामिल किया जाता है। यह सूचकांक मात्र सकल घरेलू उत्पाद से आगे जाकर खुशहाली की ज्यादा व्यापक परिभाषा करने का प्रयास है।

माविसू में मानव विकास के तीन पक्षों का एक मिला-जुला माप प्रस्तुत होता है - लंबा व स्वस्थ जीवन (पैमाना औसत आयु), शिक्षित होना (पैमाना - वयस्क साक्षरता व प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्तर पर दाखिले), और जीवन का एक ठीक-ठाक स्तर (पैमाना - क्रय क्षमता और आमदनी) । यह सूचकांक किसी भी मायने में मानव विकास का एक संंपूर्ण पैमाना नहीं कहा जा सकता। इसमें कई महत्वपूर्ण सूचक शामिल नहीं हैं। जैसे मानव अधिकारों के प्रति सम्मान, प्रजातंत्र या गैर बराबरी। फिर भी यह हमें एक आईना उपलब्ध कराता है जिसमें मानव प्रगति तथा आमदनी व खुशहाली के परस्पर पेचीदा संबंध को देखा जा सकता है।

१९५५ की मानव विकास रिपोर्ट में पहली बार जेंडर संबंधति शामिल किए गए थे। इन सूचकांकों का उपयोग जेंडर के संदर्भ में मानव विकास संबंधी विश्लेषण व नीति संबंधी चर्चाआें के किया जा रहा है। जेंडर संबंधी विकास सूचकांक दरअसल मानव विकास का ही पैमाना है जिसमें स्त्री-पुरुष असमानता के हिसाब से समायोजन किया जाता है। जहां मानव विकास सूचकांक औसत उपलब्धि को नापता है, वहीं जेंडर संबंधी विकास सूचकांक में उपरोक्त तीनों पक्षों में स्त्री-पुरुष असमानता को भी शामिल किया जाता है। जेंडर असमानता का अंदाज लगाने के लिए आपको इन दोनों सूचकांकों की तुलना करनी होगी। इन दोनों सूचकांकों की गणना ० से १ के पैमाने पर की जाती है। कोई देश १ के जितना नजदीक है, वहां मानव विकास की स्थिति उतनी अच्छी है।

इस वर्ष का मानव विकास सूचकांक वर्ष २००४ की स्थिति को प्रतिबिंबित करता है। इसमें साफ दिखता है कि परस्पर जुड़ती जा रही दुनिया में खुशहाली और जीवन की संभावनाआें को लेकर कितनी गैर बराबरी मौजूद है।

इस रिपोर्ट में राष्ट्र संघ के १३७ सदस्य देशों को शामिल किया गया हैऔर उन्हें माविसू के क्रम में रखा गया है। नॉर्वे (माविसू ०.९६५) सूची में सबसे ऊपर है। उसके बाद आइसलैण्ड और ऑस्ट्रेलिया आते हैं नाइजर का माविसू सबसे कम (०.३११) है। नॉर्वे के लोग नाइजर के लोगों से औसतन ४० गुना ज्यादा सम्पन्न हैं और वे लगभग दुगनी आयु तक जीते हैं। इसके अलवा नॉर्वे में प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च शिक्षा में दर्ज संख्या लगभग सौ फीसदी है जबकि नाइजर में दर्ज संख्या मात्र २१ प्रतिशत है। सबसे कम माविसू वाले ३१ देश दुनिया की ९ प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन देशों में औसत आयु ४६ साल है। जेंडर संबंधी विकास सूचकांक १३६ देशों के लिए निकाला गया है। इसमें भी नॉर्वे और आइसलैण्ड सबसे ऊपर हैं (क्रमश: ०.९६२ और ०.९५८) जबकि नाइजर सबसे नीचे (०.२९१) है।

माविसू की दृष्टि से भारत बीच की श्रेणी में १२६ वें क्रम पर हैं और उसका माविसू ०.६११ है। यह मझौले देशों के माविसू के औसत (०.७०१) से कम है। रोचक बात यह है कि हमारा दक्षिणी पड़ोसी श्रीलंका हमसे बहुत बेहतर है; श्रीलंका का माविसू ०.७५५ है और दुनिया में वह ९३ नंबर पर है। जेंडर संबंधी विकास सूचकांक के मामले में भारत ९६ नंबर पर है और उसका सूचकांक ०.०५९१ है। यहां उपरेाक्त तालिका में हमारे देश की पड़ोसी देशों से तुलना की गई है। ***

जी.एम. फसलों में नये मापदंडों की जरुरत

कृषि जगत

-सौरव मिश्रा

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार २२ सितंबर २००६ को अपने अन्तरिम आदेश में देशभर में सभी प्रकार के जीन संवर्धित (जी.एम.) फसलों के खेत परीक्षण पर रोक लगा दी है। इसके साथ ही उन्होंने नियामक प्रणाली को भी खरी-खोटी सुनाई है।

इसका यह अर्थ हुआ कि केन्द्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय के अंतर्गत नियामक प्राधिकारी जीव संवर्धित अनुमोदन कमेटी (जी.ई.ए.सी.) अब न्यायालय के अंतिम आदेश के आने तक किसी भी जीन संवर्धित फसल के खेत परीक्षण की अनुमति नहीं दे सकती । यह आदेश अर्थशास्त्री अरुणा रोड्रिग्स और अन्य विशेषज्ञों की एक जनहित याचिका पर दिया गया है। याचिकाकर्ताआें में से एक विशेषज्ञ देवेन्दर शर्मा ने इस निर्णय का स्वागत करते हुए कहा कि जी.एम. नियामक में आमूलचूल परिवर्तन लम्बे समय से टल रहा था।

न्यायालय ने जी.ई.ए.सी. को निर्देशित किया है कि वह विशेषज्ञों की एक समिति बनाये जो कि जीन संवर्धित फसलों को जारी करने के सभी विषयों पर गहराई से विचार करें। दिशा निर्देशों का पालन करते हुए जी.ई.ए.सी. ने दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति दीपक पेंटल की अध्यक्षता में एक समिति का गठन कर दिया है। जी.एम. विरोधी सक्रिय समूह इस नियुक्ति से प्रसन्न नहीं है। उनका कहना है कि दीपक पेंटल जी.एम. फसलों के प्रबल प्रोत्साहनकर्ता हैं। उनका केन्द्र कई जी.एम. खाद्य फसलें विकसित करने का प्रयास कर रहा है। अतएव उनके निर्णय पक्षपातपूर्ण हो सकते हैं। वहीं हैदराबाद स्थित सेन्टर फार सस्टेनेबल एग्रीकल्चर की कविता कुरुगन्थी कहती हैं, चँूकि अधिकांश सदस्य जी.ई.ए.सी. की समित से ही हैं तो इसका यही अर्थ निकाला जा सकता है कि फिर वही पुरानी कहानी दोहरायी जाएगी।

जी.एम. फसलों की इस सत्ता का बचाव करते हुए कमेटी के एक वरिष्ठ सदस्य का कहना है कि भारत विश्व में पहला देश था जिसने कि सन् १९८९ में जी.एम. फसलों के लिये तब दिशा निर्देश बनाये थे। जबकि जी.एम. का विषय अपने प्रारंभिक विचार विमर्श में ही था। भारत के जी.एम. नियामक पूरे विश्व में सबसे कठोर माने जाते हैं जिसमें कि जी.ई.एम.सी. सहित पांच वैधानिक संस्थाएं शामिल हैं।

न्यायालय का निर्णय लोक संगठनों द्वारा जी.एम. निर्धारण के विरुद्ध चलाये गये वृहद अभियान के परिणाम स्वरुप आया है। इस अभियान ने जी.ई.ए.सी. द्वारा बी.टी. बैंगन के खेत परीक्षण की अनुमति देने के बाद और भी जोर पकड़ा। वैसे अब तक देश में जी.एम. कपास ही एकमात्र स्वीकृत वाणिज्यिक फसल है। इसके अतिरिक्त बैंगन सहित ७० अन्य फसलें अभी उपरोक्त कमेटी के अनुमोदन के इंतजार में है।

बी.टी. कपास का पर्यावरण और जानवरों की सेहत पर पड़ने वाला प्रभाव लम्बे समय से चर्चा में रहा है। सन् २००५ और २००६ में तो आंध्रप्रदेश से भेड़ों की मौत की भी खबर आई थी। इसी के साथ मनुष्यों पर होने वाले प्रभावों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। केन्द्रीय विज्ञान और तकनीक मंत्रालय के जैव-तकनीक विभाग के निदेशक टी.रमन्ना का कहना है कि यदि बी.टी. कपास के तेल को संवर्धित नहीं किया गया तो वह जहरीला हो जाएगा। साथ ही आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में इसने किसानों पर जो कहर ढाया है वह सर्वविदित है।

नागपुर स्थित केन्द्रीय कपास शोध संस्थान में शोधकर्ता के.आर.क्रांति के अनुसार देश का बी.टी. कपास अमेरिका के बी.टी. कपास की तुलना में १० गुना अधिक कीड़ों से प्रभावित होता है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए याचिकाकर्ताआें का कहना है, कि अमेरिका की बनिस्बत बी.टी. कपास का १० गुना कम प्रभावशाली होना अन्तत: नियामक प्राधिककारी की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। इस संदर्भ में जीन संवर्धन पुनर्विचार समिति (आर.सी. सी.एम.) भी जी.ई.ए.सी. के साथ एक नियामक प्राधिकारी है।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मई २००६ के निर्णय में न्यायालय ने कहा था कि इस संबंध मे जी.ई.ए.सी. ही एक मात्र नियामक प्राधिकारी होगी। खेतों में परीक्षण के संबंध में पुनर्विचार कमेटी के हितों को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय दिया गया था क्योंकि वह भी खेतों में परीक्षण करती है और जीन संवर्धित फसलों में उसका हित भी छुपा हुआ है। ऐसे में पूरी उम्मीद है कि उसके विचार प्रक्षपातपूर्ण हो सकते हैं। इसी के साथ सक्रिय समूहों का यह भी मानना है कि किसी भी किस्म को जारी करने में जी.ई.ए.सी. मात्र रबरस्टांप की भूमिका निभाती है।

परंतु विशेषज्ञ इस तर्क से सहमत नहीं है। उनका कहना है कि पुनर्विचार कमेटी की स्थापना तो जी.ई.ए.सी. को तकनीकी सहयोग देने के लिये ही की गई थी। समिति के सभी २० सदस्य अपने क्षेत्र के उद्भट विशेषज्ञ हैं और देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों से आए हैं। इसी संदर्भ में भारत के जी.एम. विरोधियों का कहना है यह नियामक भी अमेरिका के उद्योगों से चलित नियामक जैसा ही है। परंतु एक वरिष्ठ सदस्य के अनुसार भारतीय पुनर्विचार कमेटी में केवल वैज्ञानिक ही हैं, एक भी व्यक्ति उद्योग से नहीं है जैसा कि अमेरिका में होता है। परंतु इस विवाद का एक और कोण भी है। वह है भारत के कपास क्षेत्र में प्रयुक्त ६० प्रतिशत से अधिक हिस्सा नवभारत १५१ बी.टी. कपास है जिसे कि ५ वर्ष पूर्व ही जी.ई.ए.सी. ने प्रतिबंधित कर दिया था।

नवभारत १५१ के विकास करने वाले एन.पी. मेहता का कहना है कि दुर्भाग्य से उन किस्मों को बढ़ावा दे रहे हैं जिनकी वजह से किसान आत्म हत्या को मजबूर हैं, दूसरी ओर जिसके माध्यम से किसानों के पास ४५०० करोड़ रुपया आया उसे प्रतिबंधित कर रहे हैं। ***

प्रदेश चर्चा


उड़ीसा : गैर कानूनी खनन की परंपरा

आशुतोष मिश्रा, राधिका सिंह, सुजीत कुमार सिंह

उत्कल एल्यूमिनियम इण्टरनेशनल लिमिटेड के रायगढ़, उड़ीसा में प्रस्तावित बॉक्साईट खनन एवं एल्यूमिनियम शोधन संयंत्र (रिफायनरी) की विस्तार परियोजना को स्वीकृति देने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया में परियोजना की वैधता एवं पर्यावरण पर प्रभाव के आकलन की गुणवत्ता तथा निर्णय प्रक्रिया में स्थानीय समुदाय की सहभागिता के विषय में अनेक सवाल खड़े हुए हैं। अपने अधिकारों का हनन होते देख प्रभावित ग्रामीण इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं।

उत्कल एल्यूमिनियम इण्टरनेशनल लिमिटेड ने रिफायनरी की क्षमता १० लाख टन प्रतिवर्ष से बढ़ाकर ३० लाख टन प्रतिवर्ष करने एवं अपनी खदान में बॉक्साईट उत्खनन ३ लाख टन से ८५ लाख टन करने के लिए आवेदन पत्र हो गई है। इस वजह से कानूनी जटिलताएं पैदा हो गई हैं। हिन्दुस्तान एल्यूमिनियम कार्पोरेशन (आदित्य बिरला समूह की अनुषंगी कम्पनी) और कनाडा मूल की अल्यूमिनियम कम्पनी ऑफ कनाडा के इस संयुक्त उपक्रम ने छल-बल से स्थानीय जनता को दबाना चाहा। मगर उन्हें कड़े प्रतिरोध का सामन करना पड़ा। उड़ीसा प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा १७ अक्टूबर २००६ को टिकरी में आयोजित परियोजना की जन-सुनवाई में प्रभावित ग्रामीणों का गुस्सा साफ नजर आ रहा था। परियोजना से प्रभावित होने वाले २४ में से लगभग आधे गांवों के लोगों ने वादों से मुकरने पर कम्पनी अधिकारियों को फटकार लगाई।

जनता के असंतोष से कम्पनी अच्छी तरह परिचित है। सन् १९९२ के उत्कल एल्यूमिनियम इण्टरनेशनल लिमिटेड की स्थापना तथा भू-अधिग्रहण एवं परियोजना की स्वीकृति लेते समय उसे स्थानीय जनता के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। कुछ ग्रामीण कहते हैं कि कम्पनी ने लोगों का विरोध दबाने के लिए ही जन-सुनवाई के समय पुलिस का सहारा लिया था। उनका कहना है कि सुनवाई स्थल का निर्धारण भी यही सोच कर किया गया था। यह स्थान परियोजना स्थल से १० किमी. दूर है। जबकि प्रभावित गांव नजदीक ही हैं जहां कुछ वर्ष पूर्व आंदोलन करने वाले ३ ग्रामीण मारे गये थे। स्वाभाविक है कि कम्पनी उस स्थान से दूरी बनाए रखना चाहती थी।

परिणामस्तरुप प्रकृति सम्पदा सुरक्षा परिषद् के झण्डे तले आंदोलनकारियों ने बगरीझोला में समानान्तर बैठक आयोजित की, जिसमें परियोजना से प्रभावित होने वाले कुल २४ में से १० गांवों के लोगों ने शिरकत की। परिषद् के संयोजक भगवान माझी ने बैठक में कहा - जन सुनवाई का आयोजन हमारे गाँवों से इतनी दूर किया गया है कि आप ग्रामीणों के लिए वहां पहुंचना कठिन है, उसमें केवल कम्पनी के दलाल ही पहुंचे हैं। सशस्त्र पुलिस की पांच प्लाटूनों ने समानान्तर बैठक में जाने वाले अनेक ग्रामीणों को धमकाया और उन्हें अधिकारिक बैठक में जाने का कहा।

अधिकारिक जन-सुनवाई में भी उत्कल एल्यूमिनियम इण्टरनेशनल लिमिटेड के अधूरे वादों, लोगों की अनदेखी और जनता के विरोध की मंशा को स्पष्ट कर देते हैं। एक के बाद एक वक्ताआें ने कम्पनी को सावधान किया कि जब तक वह पुलिस के माध्यम से फंसाने का काम बंद नहीं करती, तब तक उसे स्थानीय जनता के सहयोग की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

नुआपाड़ा के निवासी क्षमासागर नायक ने कहा कि लोगों से जमीन लेने के बाद भी कम्पनी मुआवजा न देकर उन्हें धोखा दे रही है। बैठक में उन्होंने अधिकारियों से पूछा - मैने अपनी जमीन दी मगर मुआवजा नहीं मिला। मुझे उच्च न्यायालय की शरण लेने को मजबूर होना पड़ा। अब मैं आपसे क्या उम्मीद करुं? खबर है कि तीर्की में हुई जन-सुनवाई के केवल दो व्यक्तियों ने ही परियोजना का समर्थन किया।

समानान्तर जन-सुनवाई में अनेक व्यक्ति ऐसे भी थे, जिन्हें जमीन का मुआवजा तो मिल चुका है, किंतु वे कम कीमत मिलने और कम्पनी अधिकारियों के रवैये से संतुष्ट नहीं है। नाचिगुडा के नीलाम्बर गौड़ ने बताया - हमारे परिवार ने तकरीबन ३ हेक्टेयर भूमि जिसके बदले में हमें केवल ६.३४ लाख रुपये मिले, जो नाकाफी हैं। कीमत इससे कम से कम तीन गुना अधिक होनी चाहिए थी। इसके अलावा हमें रोजगार देने के लिए कम्पनी ने कुछ नहीं किया।

बफीलीमाली पहाड़ी के प्रति स्थानीय समाज की धार्मिक आस्था हैं, उसमें होने वाले खनन से लोग नाराज हैं। इसके साथ ही इस खनन के कारण इन्द्रावती जलाशय में गाद भरने के संभावना है। गाद भरने की आशंका मिटाने के लिए कम्पनी ने काफी पापड़ बेले थे। उन्होंने दावा किया था कि केन्द्रीय जल एवं ऊर्जा अनुसंधान केन्द्र ने भूजल पर खनन के प्रभाव का अध्ययन किया हैऔर कहा है कि गाद भरने की संभावना नगण्य है। हालांकि सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता एस.के. मोहन्ती का कहना है कि खनन से गाद तो जमा होती ही है।

ग्रामीणों की दलील थी कि परियोजना जनजातीय क्षेत्र में हैं, जो संविधान की पांचवीं अनुसूची के अनुसार संरक्षित है। भूमि अधिग्रहण में बल प्रयोग और धमकाये जाने के भी प्रमाण मिले हैं और अनेक ग्राम सभाआें में परियोजना को अस्वीकृत किया गया है। जन-प्रतिरोध को दबाने के लिए पुलिस और कम्पनी के किराये के गुण्डो ने गोली चलाकर, हत्या और बलात्कार करके दमन किया। मानव अधिकार हनन और पर्यावरणीय न्याय पर निगरानी के लिए गठित स्वतंत्र निकाय इंडियन पिपुल ट्रियब्यूनल की रपट में भी परियोजना में शासन द्वारा दमन किये जाने की बात स्वीकार की गई है। न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) एस.एन.सभरवाल की अध्यक्षता में तैयार की गई रपट में शासन ने इसे तत्काल रोकने का आग्रह किया गया है और सुरक्षा बलों द्वारा किये अधिकारोें के हनन एवं उड़ीसा प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की पर्यावरणीय नाश को रोकने की क्षमता की जांच कराने की मांग की है। आवश्यक स्वीकृति मिलने के ११ वर्षो बाद अब तक ना तो रिफायनरी और ना ही खदानों में काम शुरु हो सका है। कम्पनी के अधिकारी साफ तौर पर स्वीकार करते है कि खदान और शोधन संयंत्र के काम में बहुत धीमी प्रगति हुई है। कम्पनी के व्यावसायिक दायित्व के प्रबंधक सत्यनारायण सामल के अनुसार सन् २००२-२००३ तक कम्पनी ने भू अधिग्रहण किया और आवश्यक स्वीकृतियां प्राप्त की और इसके बाद ही संयंत्र का काम शुरु हुआ।

ऐसी परियोजनाआें को पर्यावरणीय स्वीकृति देने के नियम स्पष्ट हैं - परियोजना को जो स्वीकृति दी जाती है, वह पांच वर्ष के भीतर निर्माण या कार्य आरम्भ करने के लिए होती है स्पष्ट है कि कम्पनी को दी गई स्वीकृति की वैधता समाप्त हो चुकी है। नई स्वीकृति लेने के बदले उत्कल एल्यूमिनियम इण्टरनेशनल लिमिटेड ने दो गैर-कानूनी कार्य किये- निर्माण शुरु किया और पर्यावरणीय स्वीकृति आगे बढ़ाने का आवेदन दिया। पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन के निर्देशों के अनुसार स्वीकृति का विस्तार केवल वर्तमान परियोजनाआें को ही दिया जा सकता है। जो परियोजनाएं चालू नहीं हुई हैं, उन्हें विस्तार नहीं दिया जा सकता। कम्पनी विस्तार क्यों चाहती है? इस सवाल के जवाब में सामल कहते है कि मूल निर्देशों का पालन किया जाए तो परियोजना आर्थिक दृष्टि के व्यवहार्य नहीं रह पाएगी।

बगरीझोला बैठक में रखी गई मांगों में एक मांग यह भी थी कि प्रदेश के मुख्यमंत्री और उद्योग एवं खनिज मंत्री को जनता को यह बताना चाहिए कि उत्कल एल्यूमिनियम इण्टरनेशनल लिमिटेड द्वारा उनके प्राकृतिक संसाधन हड़प लिये जाने के पश्चात् ये लोग किस प्रकार जिंदा रहेंगे। यह स्पष्ट नहीं है कि जल्दबाजी में क्या होगा, क्योंकि यदि हर मामले की उपेक्षा करने का इतिहास रहा हो, तो आंदोलनरत् ग्रामीाणें को क्षतिपूर्ति मिलने की संभावना बहुत कम है। ***

पर्यावरण परिक्रमा


महानगरों में बढ़ते वाहन, घटती सड़कें

कार, बस, ट्रक, ऑटो, स्कूटर, मोटरसाइकल, ठेलागाड़ी, बैलगाड़ी, साइकल और कभी-कभी हाथी सड़क पर और इन सबके बीच आदमी। सड़कों पर जमकर घुटन है और १ अरब १० करोड़ की आबादी वाले देश में हर वर्ग किलोमीटर में ३३६ लोग रहते हैं। क्षेत्रफल के लिहाज से देश में जनसंख्या धनत्व पाकिस्तान के मुकाबले दुगुना और बांग्लादेश के मुकाबले तिगुना है।

आबादी तक तो ठीक है, लेकिन यातायात शहरों तक ही सीमित है। भारत में आधुनिकता का अर्थ है गाड़ियों की चमचमाती लाइटें और ड्रेनेज के गड्ढे। जितनी गाड़ियाँ है, उतनी ट्राफिक लाइटें नही हैं।

गाड़ियों का शोर और उनके ध्वनियंत्र यानी हॉर्न का शोर तो ठीक है, लेकिन भारतीय सड़को पर चलने वाले १७ भाषाएँ और ८४४ बोलियाँ बोलते हैं।

देश में होने वाली कार दुर्घटना की दर दुनिया में सबसे ज्यादा है। फिलहाल देश में दुनिया की १ प्रतिशत कारें हैं यानी करीब ४५ लाख कारें चल रही हैं। हर साल यहाँ सड़क दुर्धटना में १,००,००० लोग मारे जाते है। यह आँकड़ा पूरी दुनिया में होने वाली सड़क दुर्घटनाआें का १० प्रतिशत है। अमेरिका में दुनिया की ४० प्रतिशत कारें है, लेकिन दुर्घटनाआें में मरने वालेां की संख्या ४३,००० है।

हालाँकि ये आँकड़ा नहीं है कि शहरों में कितने ऑटो रिक्शा और दोपहिया सड़क की छाती पर मँूग दलते हैं। मोटरसाइकल, स्कूटर और साइकलों के बारे में अनुमान है कि ये ५०० लाख से अधिक होंगी। बजाज ऑटो हर साल २० लाख दोपहिया और तिपहिया बनाता है।

ऐसा लगता है कि देश में वाहन भी बड़ी बेतरतीबी से बाँटे गए हों, दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और बेंगलूर में देश की ५ फीसदी आबादी हैं, लेकिन इन शहरों में देश के १४ फीसदी वाहन हैं।

एशिया में प्रदूषण तीन गुना तक बढ़ेगा

एशिया विकास बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक अगले २५ वर्षो में एशिया में ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन तीन गुना बढ़ जाएगा।

इस रिपोर्ट में परिवहन और जलवायु परिवर्तन के बीच संबंध होने का विस्तृत विवरण दिया गया है। रिपोर्ट के अनुसार ग्रीनहाऊस गैसो के बारे मे यह आकलने जितनी भयावह तस्वीर पेश करता है, वास्तविक स्थिति उससे भी गंभीर हो सकती है। एशिया में सड़क यातायात से संबंधित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्तमान में एशिया के लोगों के पास व्यक्तिगत वाहनों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। अगर है भी तो ज्यादातर लोगों के पास दुपहिया वाहन ही हैं।

इन देशों में जिस तरह से लोगों की आय बढ़ रही है और शहरी आबादी भी फैल रही है, उससे वाहनों की संख्या भी बढ़ने की संभावना जताई गई है। रिपोर्ट के अनुसार चीन पहले ही विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और तीस सालों में वाहनो की संख्या आज के स्तर से १५ गुनी बढ़कर १९ करोड़ से भी अधिक हो जाने की संभावना है। भारत में भी इसी अवधि के दौरान वाहनों में समान रुप से बढ़ोत्तरी होने की संभावना है।

गाड़ियों से कार्बन डाईऑक्साइड गैस के उत्सर्जन की मात्रा भी भारत में ३.४ गुना और चीन में ५.८ गुना बढ़ जाने की संभावना हैं। ब्रितानी विदेश मंत्री मारग्रेट बेकेट ने भारत से अनुरोध किया था कि वह जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों में सहयोग करे। उनका बयान ब्रिटिश सरकार की उस रिपोर्ट के पहले आया था, जिसमें ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए धनी देशों से तुरंत कार्रवाई करने को कहा गया था।

इस बीच इंडोनेशिया में हुए एक सम्मेलन में कहा गया कि हालाँकि कुछ एशियाई सरकारों ने गाड़ियों के उत्सर्जन मानकों को कड़ा बनाया है। कई देशों ने सीसा वाले गैसोलीन का इस्तेमाल भी रोक दिया है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि एशिया में बढ़ रहा प्रदूषण प्रत्येक वर्ष ५ लाख ३७ हजार लोगों की अकाल मृत्यु का कारण बन सकता है। हृदय और साँस संबंधी रोगो में भी बढ़ोत्तरी हो सकती है।

सब्जियों में मिले प्रतिबंधित कीटनाशक

उ.प्र. में नोएडा और ग्रेटर नोएडा शहरों के ईद-गिर्द के खतों में ऐसे कीटनाशकों का इस्तेमाल हो रहा है जो पूरी दुनिया में अपनी जहरीली तासीर के कारण प्रतिबंधित है। यह खुलासा जल संवर्द्धन एवं पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र की एक स्वयंसेवी संस्था जनहित फाउंडेशन ने अपनी रिपोर्ट में किया है।

संस्था ने देहरादून स्थित पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट (पीएसआई) की प्रयोगशाला में जिले की खेतिहर भूमि, पानी और सब्जियों की जाँच कराने के बाद यह निष्कर्ष निकाला है। साफ आबोहवा और ताजे खानपान की चाहत में दिल्ली से नोएडा, ग्रेटर नोएडा का रुख करने वाले यह जानकर दंग रह जाएँगे कि जो पानी वे पी रहे हैं और सब्जियाँ खा रहे हैं, वे इन कीटनाशकों की बदौलत जहरीली हो चुकी है।

जनहित फाउंडेशन ने जाँच के लिए गाँव छलैरा, झूंडपुरा, बरोला फार्म, कुलेसरा, भगेल, सूरजपुर सब्जी मंडी से नमूने लिए। इनकी जाँच से यह पता लगा कि इनमें ऐसे कीटनाशकों के अंश समा चुके हैं जिन्हें स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में हुई अंतरराष्ट्रीय संधि के तहत प्रतिबंधित कर दिया गया था। ये कीटनाशक हैं - क्लोरडेन, डीडीटी, डाइएल्ड्रिन, एन्ड्रिन, हेक्लाक्लोर।

रिपोर्ट में यह भी इशारा किया गया है कि सब्जियों में इन कीटनाशकों की इतनी मात्रा धुल चुकी है कि उन्हें खाने का मतलब सीधे तौर पर बीमारियों को दावत देना है। इन कीटनाशकों का पाया जाना यह भी साबित कर रहा है कि प्रतिबंध के बावजूद ये बाजार में उपलब्ध हैं। मूली, गोभी, प्यास, बैंगन, आलू भी इसकी चपेट में हैं। इनमें बीएचसी-एल्फा, बीटा, गामा व डेल्टा, हेप्लाक्लोर और एल्ड्रिन शामिल है।

डॉक्टर सलाद खाने की सलाह देते हैं, लेकिन गौतम बुद्धनगर की हरी सब्जियाँ बीमारियाँ परोस रही हैं। इन सब्जियों के सेवन से हार्ट अटैक, ब्लड प्रेशर, दिमागी बुखार, लकवा, चर्म रोग व अन्य गंभीर बीमारियाँ लोगों को शिकंजे में ले रही है। समय रहते कीटनाशकों का प्रयोग न रोका गया तो जमीन के साथ-साथ सेहत पर भी बुरा असर पड़ते देर नहीं लगेगी।

सरदार सरोवर बांध का कार्य पूर्ण

पिछले दिनों देश के सबसे विवादास्पद बाँध सरदार सरोवर की ऊँचाई १२१.९२ मीटर करने का कार्य पूर्ण हो गया है। पिछले दो दशक से ये परियोजना चल रही थी। इसका काम १९८७ से शुरु हुआ था।

अधिकारियों के मुताबिक इससे चार राज्य के लोगों को पेयजल मुहैया कराया जा सकेगा। नर्मदा नदी पर बने इस बाँध से बिजली की जरुरत को बहुत हद तक पूरा किया जा सकेगा। १२२ मीटर ऊँचे और १२५० मीटर लंबे बाँध पर काम १९८७ में शुरु हुआ, लेकिन तमाम विरोध, विलंब और कानूनी बाधाआें में यह उलझा रहा।

अदालत ने बाँध की ऊँचाई १२१.९२ मीटर करने की अनुमति दे दी थी, लेकिन कुछ आंदोलनकारियों ने इसे ११०.६४ मीटर से ज्यादा बढ़ाने पर खतरे का अंदेशा व्यक्त किया था। इनका कहना था कि इससे हजारों लोगों की जान को खतरा है।

इसका शिलान्यास १९६१ में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने किया था। काम शुरु हो सका १९८७ से। इसके बाद नर्मदा बचाआें आंदोलन ने इसका विरोध शुरु किया। यह आंदोलन इस बाँध की वजह से चार राज्यों के हजारों लोगों के विस्थापन के खिलाफ आवाज उठा रहा था। इसके बाद अदालत के स्थगनादेश, भूख हड़ताल और वाद-विवाद का दौर चलता रहा।

पिछले वर्ष ६माह पहले प्रधानमंत्री कार्यालय ने सुप्रीम कोर्ट को यह आश्वासन दिया कि इस बाँध की इतनी ऊँचाई पूरी होने से जो विस्थापित होंगे, उनको पुन: बसाया जाएगा। इसके बाद २७ अक्टूबर से दिन-रात एक करके इंजीनियर और श्रमिकों ने इसे इस ऊँचाई तक पहुँचाया।

नर्मदा भारत की पाँचवी सबसे बड़ी नदी है। मध्यप्रदेश की जीवन रेखा कही जाने वाली यह नदी अमरकंटक नामक स्थान पर ९०० मीटर की ऊँचाई से निकलती हैऔर १३१२ किलोमीटर बहती है। नदी प्रारंभ में १०७७ किमी मध्यप्रदेश में बहती है। फिर ३५ किमी मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र की तथा ३५ किमी महाराष्ट्र व गुजरात की सीमा बनाती हुईबहती है। आखरी १६५ किमी का बहाव गुजरात में है। फिर भी गुजरात राज्य नर्मदा नदी का उपयोग करने में सबसे आगे रहा है। सरदार सरोवर बाँध का काम पूरा हो गया और नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण तथा नर्मदा बचाओ आंदोलन की कार्रवाई चलती रही। नर्मदा घाटी विकास की योजना पर विचार-विमर्श तो सन् १९४६ में ही शुरु हो गया था।

नर्मदा में १६ स्थानों पर ३००० मेगावाट जलविद्युत ऊर्जा उत्पन्न करने तथा ६० लाख हैक्टेयर भूमि पर सिंचाई करने की क्षमता का आकलन किया गया था। गुजरात राज्य ने सरदार सरोवर बाँध की तथा मध्यप्रदेश ने इंदिरा सागर, आेंकारेश्वर, महेश्वर, मान, जोबट, बरगी, बरगी डायवर्शन, अवंति सागर, हालोन, अपर नर्मदा, बेटा अपर, लोअर गोई जैसी तीस योजनाआें की रुपरेखा को अंतिम रुप दिया। आश्चर्य यही है कि योजनाआें पर काम चल रहा है और पुनर्वास का काम ही पूरा नहीं हो पया हैइसके लिये गुजरात, महाराष्ट्र व मध्यप्रदेश की सरकारों को पहल करनी होगी ।बाँध का जल तो मध्यप्रदेश से ही बहकर जाता है और उस जल का प्रवाह मध्यप्रदेश के लिए भी मूल्यवान है। कोई उपयोग करे या न करे नर्मदा बहती रहेगी। ***

शुक्रवार, 19 जनवरी 2007

पर्यावरण संरक्षण की जागरुकता

२० साल पहले

-राजीव गांधी

हजारों वर्षोंा से भारत ने आध्यात्मवाद की दिशा में अधिक विकास किया है, भौतिक दिशा में कम। पारम्परिक रुप से ही भारत का विश्वास रहा है कि मनुष्य और प्रकृति एक है और दोनों एक दूसरे के अभिन्न अंग है। इससे हमारी प्रकृति के बारे में जागरुकता आई है, हम प्रकृति के लिए महसूस कर सकते हैं।

भारत में प्रौद्योगिकी क्रांति आने से दोनों दिशाआें में विवाद खड़ा हो गया है। हमने अपनी प्रौद्योगिकी का विकास किया है। हमने अपने उद्योगों का विकास किया है और हम महसूस करते हैं कि हम अपनी पारम्परिक अध्यात्मवाद की गहराई और शक्ति से दिन पर दिन दूर होते जा रहे हैं। इससे हमारे सामाजिक ढांचे में कुछ समस्याएँ पैदा हो गई हैं। आज हम फिर से इन दोनों पहलुआें पर बराबरी के निर्माण करने की सोच रहे हैं।

हमारे इन प्रयत्नों में से सबसे महत्वपूर्ण है अपने पर्यावरण की सुरक्षा। भारत की विशेष समस्याएं है क्योंकि यहां की जनसंख्या बहुत अधिक है। पर्यावरण पर जनसंख्या से जो दबाव पड़ता है, अन्य देशों के मुकाबले भारत में सबसे अधिक है। विकासशील प्रक्रिया और गरीबी से यह और बढ़ जाता है। गरीबों के कारण जो कुछ उपलब्ध होता है, लोगों को उसी पर निर्भर होना पड़ता है। उनकी पहँुच भी कम साधनों तक होती है। इसलिए प्रकृति संरक्षण के लिए उच्च प्रौद्योगिकी के प्रयोग की क्षमता उनमें कम होती है।

हम स्कूल स्तर से ही पर्यावरण संरक्षण के बारे में जागरुकता लाने की कोशिश कर रहे हैं। पर्यावरण दूषित होने के भयंकर परिणामों से लोगों को परिचित करा रहे हैं। आखिरकार लोगों में जागरुकता ही पर्यावरण संरक्षण में सहायक हो सकती है।

किसी भी प्रकार के कानून पर्यावरण में सरंक्षण नहीं ला सकते, विशेष रुप से भारत जैसे विशाल देश में। इस प्रकार की गोष्ठियाँ जागरुकता लाने में सहायता करती हैं और मैं उम्मीद करता हँू कि हर स्तर पर इस तरह की गोष्ठियाँ आयोजित की जानी चाहिए। केवल दिल्ली में ही नहीं, भारत के अन्य हिस्सों में ताकि हम इस जागरुकता को पैदा कर सकें।

नीति-निर्देश

विकासशील देश में खर्च और अपने साधनों के शोषण से होने वाले लाभ में संतुलन होना चाहिए भले ही उद्योग लगाने के लिए कुछ क्षेत्रों को नष्ट करना पड़े या खानें खोदनी पड़े या अन्य विकासशील परियोजनाएं लगानी पड़े, भले ही नदियों में, वायु और विभिन्न इलाकों में प्रदूषण के रुप में हो। लेकिन एक बात हमें मान कर चलनी होगी कि अनतोगत्वा कहीं कोई छोटा रास्ता नहीं है। अगर आज हम कीमत अदा नहीं करते तो कल हमें बहुत अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी। यह बात हमें अवश्य जान लेनी चाहिए।

हमने बहुत से कानून बनाए है कुछ विशेष तरह के उद्योग कुछ विशेष इलाकों में स्थापित न किए जाएं और हम इस तरह के नीति निर्देश देने जा रहे हैंकि सुरक्षित क्षेत्रों में केवल इसी तरह के उद्योग खोले जाएं जिनसे प्रदूषण न फैलता हो और जो साफ-सुथरे हों। किसी परियोजना को सहमति देने से पूर्व हम इस बात का पूरा-पूरा ख्याल रखते हैं। कोई भी परियोजना तब तक शुरु नहीं हो सकती जब कि इसे पर्यावरण की ओर से अनुमति नहीं मिल जाती है। लेकिन हमने इससे भी आगे कदम उठाया है। अगर किसी विशेष परियोजना के लिए जंगल काटने पड़ सकते हैं तो जहां तक मुमकिन हो, उस क्षेत्र के आसपास ही उतने ही क्षेत्र में एक और जंगल बनाया जाए। हमारे यहाँ जंगलों की छत्रछाया वैसे ही बहुत कम है।

जल-प्रदूषण

जल-प्रदूषण हमारी बड़ी समस्याआें में से एक है। इससे निपटने के लिए हमने अपनी पहली बड़ी परियोजना गंगा की स्वच्छता शुरु कर दी है। यह एक ऐसी परियोजना है जो कि हर भारतवासी के दिल की बात है। उससे न केवल नई आध्यात्मिक भावना पैदा होगी बल्कि हजारों गांवों और गंगा घाटी में बसने वाले लाखों लोगों को स्वच्छ जल प्राप्त हो सकेगा। कई बार समस्या बड़ी आसान होती है। सवाल अच्छे प्रशासनिक नियंत्रण का होता है ताकि काम ठीक प्रकार से चलता रहे। गंगा के साथ लगे बहुत से कस्बों में सीवेज सुरक्षा प्लांट नहीं लगे हैंं। कुछ कस्बों में हैं। एक जहां तक मैं जानता हँू इसलिए बन्द कर दिया था क्योंकि बिजली के बिल का भुगतान नहीं किया गया था। कभी-कभी औद्योगिक प्रदूषण से समस्या गंभीर रुप धारण कर लेती है। हालांकि ''कन्स्ट्रेशन'' स्तर बहुत कम और ''टोक्सिक'' स्तर बहुत ऊँचे हैं। यहीं पर इंजीनियरिंग डिजाइन की आवश्यकता होती है।

उद्योग स्थापित करने के समय पर ही हमें प्रदूषण विरोधी साधन जुटा लेने चाहिए। हमें उन विशेष ''टाक्सिन'' की पहचान करके उन्हें प्लांट शुरु होने से पहले ही खत्म कर देना चाहिए। भोपाल में वायु प्रदूषण के भयंकर परिणाम हमने देख लिए हैं चूंकि एक रसायनिक प्लांट नियंत्रण से बाहर हो गया था। यह केवल सुरक्षा की ही बात नहीं है लेकिन कुछ भी गलत हो जाने से पहले सुरक्षात्मक तरीके अपनाने की बात है। एक ऐसा ढांचा खड़ा करने की बात है जहाँ कोई दुर्घटना घटने की सम्भावना ही न रहे। लेकिन हम देखते हैं कि रसायनिक प्लान्टों में इस तरह के तरीके नहीं अपनाए जाते हैंं।

उद्योग और पर्यावरण

उद्योग लाभ कमाने की होड़ में विशेष रसायनों के खतरों की और समुचित ध्यान नहीं देते हैं। हम जानते हें कि अभी भी अत्याधिक जहरीले रसायन ड्रमों में भर कर लाये जाते हैं और देश के बाहर टैंकरों में। अपने देश में हमने इसे रोक दिया है। लेकिन हम जानते हैं कि ऐसा विकसित देशों में भी हो रहा है। अपने होने वाले दुष्प्रभावों के कारण पर्यावरण दूषित हो रहा है और उद्योग पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कोई जिम्मेदारी लेना नहीं चाहते हैं। यह जिम्मेदारी अवश्य ही उद्योगों पर थोपी जानी चाहिए।

अगर इन खतरों के बारे में लोगों में जागरुकता आ जाए तो वे संरक्षण पर आने वाले खर्चे को चुकाने से भी नहीं हिचकेंगे। यह अतिरिक्त खर्च अगर सभी उपभोक्ताआें में बराबर बांट दिया जाए तो एक लम्बे समय के अन्दर, तो इसे वहन करना बड़ा आसान होगा। लेकिन अगर यहीं खर्च तात्कालिक है, उसी समय करना है जैसा भोपाल में हुआ - तो यह एक बड़ी मुश्ेकिल समस्या बन जाती है, चाहे वह संस्कार के लिए राहत कार्योंा के रुप में हो या कि उस उद्योग की क्षति पूर्ति के रुप में। अगर पहले से ही सुरक्षा के तरीकों में दूरदृष्टि से काम लिया जाय तो तो इस तरह की दुर्घटनाआें से बचा जा सकता है और इससे भारी खर्चोंा में भी कटौती आएगी। आज जो हम नई प्रौद्योगिकी विकसित कर रहे हैं, प्रदूषण के खिलाफ कार्यवाही उसका अभिन्न अंग होनी चाहिए। अधिक जोर उन उद्योगों पर दिया जाना चाहिए जिनसे प्रदूषण कम होता है, और जिनमें प्राकृतिक साधनों का कम से कम प्रयोग होता है ताकि पर्यावरण को कम से कम खतरा हो।

समन्वित परियोजनाएं

हमने भारत में देखा है कि विशेष क्षेत्रों का संरक्षण करके हम पर्यावरण की रक्षा करने में सफल हुए हैं। एक विशेष जानवर जैसे शेर की रक्षा करके हमने न केवल शेर को ही बचाया बल्कि उस क्षेत्र के पूरे पर्यावरण की भी रक्षा की है। स्थान और उद्योग की श्रेणी की दृष्टि से समन्वित परियोजनाआें, उद्योगों से होने वाले दुष्प्रभावों को रोकने वाले कानूनों के द्वारा हम सच में अपने पर्यावरण में सुधार ला सके हैं। हालांकि हम पर विकास और जनसंख्या का बहुत अधिक दबाव है।

यह अभी पहला ही कदम है। इस तरह की जागरुकता एक बहुत बड़े पैमाने पर हमें देश में पैदा करनी है और इसे हम कर रहे हैं। इस तरह की जागरुकता दूसरे देशों में भी लाई जानी चाहिए, विशेष रुप से विकासशील देशों में, जहाँ यह सोचा जाता है कि पर्यावरण संरक्षण में बहुत अधिक खर्च आता है। लेकिन जो कीमत हमें जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण को हुए नुकसान के कारण होने वाली प्राकृतिक विपदाआें से कहीं अधिक होती है। हमें इसके भयंकर परिणाम भुगतने होंगे। पूरे विश्व में यह जागरुकता आनी चाहिए कि जो कुछ करना है वह आज ही करना है, कल करने से बहुत देर हो जाएगी। (पर्यावरण डाइजेस्ट के प्रवेशांक जनवरी १९८७ का पहला लेख ) ***

ज्ञान विज्ञान


ध्वनि प्रदूषण से पक्षियों की जीवन शैली प्रभावित



ध्वनि प्रदूषण यदि मानव जाति के लिए खतरा खड़ा कर सकता है तो पक्षियों के लिए क्यों नहीं। पक्षियों के लिए सबसे बड़ा खतरा यही हैकि उनके यौन जीवन पर मानव निर्मित ध्वनि प्रदूषण कुठाराघात कर रहा है। जंगलों तक में मानव का ध्वनि प्रदूषण पहुँच चुका है। दरअसल इस प्रदूषण से नर पक्षी का प्रेम गीत मादा पक्षी को सुनाई नहीं देता है।

चूँकि पक्षी आपसी संवाद चहचहाने के जरिए ही करते हैं, अत: ध्वनि प्रदूषण या शोरगुल का वातावरण उनके संवाद को बाधित करता है। साथ ही इसी शोरगुल के कारण वे शौन संबंध कायम नहीं कर पाते हैं। ध्वनि प्रदूषण के कारण उनके यौन संबंधों में १५ फीसदी कमी आई है।

जर्नल ऑफ एप्लाइड इकॉलॉजी यूनिवर्सिटी ऑफ अल्बर्टा के सहायक शोधकर्ता एरिन बायने ने कनाडा के अल्बर्टा इलाके में जंगल में लगे एक कम्प्रेसर स्टेशन के पास ध्वनि प्रदूषण वाले इलाके में और शांत इलाके में सेइरस ऑरोकैपिला के सहवास का अध्ययन किया गया। कम्प्रेशर स्टेशन में पाइप लाइन में प्रेशर डालने में खासा शोर होता है। यह देखा गया कि शांत इलाकों में इन पक्षियों की सहवास की खमता ९२ फीसदी थी, जबकि शोर वाले इलाके यानी कम्प्रेसर स्टेशन में पास में यह घटकर ७७ फीसदी रह गई।

इस शोध के मुख्य लेखक ल्यूकस हबीब यूनिवर्सिटी ऑफ अल्बर्टा के ही हैं। उनका कहना है कि नर पक्षी गाना गाकर मादा पक्षियों को आकर्षित करता है। परंतु शोर-शराबे में उसका प्रेम गीत मादा पक्षी नहीं सुन पाती है। यह भी संभावना रहती है कि नर पक्षी का गीत शोर में दब जाता हैं, जिससे मादा पक्षी अपने साथी को चुनती है। यदि ध्वनि प्रदूषण की वजह से नर पक्षी का गीत अवरुद्ध हो तो मादा को लगता है कि उसके गीत की क्वालिटी में कुछ कमी है जबकि वास्तव में वह कुछ और होता है।

श्री बायने ने आशंका जाहिर की है कि इस तरह के शोर से न केवल पक्षी वरन् अन्य जीव भी प्रभावित होंगे। उन्होंने बताया कि हमने अन्य जीवों को भी देखा तो उनकी आबादी कम्प्रेसर स्टेशन के पास घट चुकी थी।

इसी से इस शोध को बल मिलता है। जैसे-जैसे ध्वनि प्रदूषण बढ़ेगा, पक्षियों के ठिकाने कम होते जाएँगे। यदि पक्षियों ने शोरगुल वाले इलाकों को नहीं छोड़ा तो उनकी आबादी भी घट जाएगी। यह स्थिति तभी टल सकती है, जब मानव जाति प्रदूषण रोक दे या कम करें।

साँप देंगे भूकम्प की पूर्व सूचना

ऐसा माना जाता है कि जीव-जंतुआें को भूकम्प का पूर्वाभास हो जात है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए चीन के मौसम विज्ञानियों ने साँपों के विचित्र व्यवहार के आधार पर भूकम्प के पूर्वाभास की जानकारी प्राप्त करने के लिए एक प्रणाली विकसित की है।

दक्षिणी चीन के शांक्सी प्रांत की राजधानी नानिंग स्थित भूकम्प विभाग के निदेशक जियांग वाईसांग के मुताबिक साँप आधारित यह प्रणाली प्रकृति और विज्ञान का अद्भुत संगम है। इस प्रणाली के तहत साँपों के व्यवहार पर नजर रखने के लिए एक वीडियों कैमरा लगाया गया है जो पल-पल साँपों के व्यवहार की जानकारी देता रहेगा।

निदेशक का मानना है कि दूसरे प्राणियों की तरह ही साँप भी एक ऐसा जानवर है जो पृथ्वी के भूगर्भ में होने वाली हलचलों को पहले ही भाँप लेता है। साँपों की असामान्य गतिविधियों के आधार पर ही भूकम्प की भविष्यवाणी की जा सकती है। श्री वाईसांग के मुताबिक परीक्षणों मंे देखा गया है कि ज्याद तीव्रता के भूकम्प आने की दशा में इनकी गतिविधियाँ अचानक बढ़ जाती है।

बाँस से बन रहे हैं बुलेटप्रूफ जैकेट और बिजली



बाँस अनेक प्रकार से उपयोगी है। परंतु इसका प्रयोग बुलेटप्रूफ जैकेट बनाने में किया जाए तो थोड़े आश्चर्य की बात है। नेशलन मिशन ऑफ बैंबू एप्लीकेशन के निदेशक बीएस ओबेराय के अनुसार बाँस के उपयोग से ऊर्जा उत्पादन, बुलेटप्रूफ जैकेट, कृत्रिम अंग और ऑटो पाट्स सहित सैकड़ों वस्तुएँ बनाई जा सकती है।

श्री ओबेराय ने कहा कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा उपलब्ध कराई गई तकनीक से निजी क्षेत्र की कंपनियाँ बाँस को फायरप्रूफ बना रही हैं। इससे बनी जैकेट का परीक्षण अंतिम चरण में हैं ।

श्री ओबेराय ने बताया कि बाँस के इस्तेमाल से घर भी बनाए जा रहे हें। सुनामी पीड़ितों के पुर्नर्वास के लिए बाँस से सैकड़ों घर बनाए गए हैं। उन्होंने कहा कि ऐसे घर सीमावर्ती इलाकों और सियाचिन में भी बनाए जा रहे हैं। इनके निर्माण में ४५० रुपए प्रति वर्गफुट का व्यय होता है। इससे बने घर कुछ ही घंटों में बनकर तैयार हो जाते हैं। अरुणाचल प्रदेश के पासीधाट में ५० बिस्तरों का एक अस्पताल बाँस से बनी सामग्री से निर्मित किया गया है। इससे स्कूल भी बनाए जा रहे हैं। बाँस से बनी सामगी को अधिक बेहतर बनाने के लिए विदेशी विशेषज्ञों की भी मदद ली जा रही हैं।

दूरवर्ती क्षेत्र में तो बाँस से बिजली बनाई जा सकती है। उन्होंने कहा कि चीन की तरह भारत में भी बाँस से बनी सामग्री के निर्यात से व्यापार करने की क्षमता है। इसमें रोजगार की भी पर्याप्त संभावनाएँ हैं।

नींद न आए तो घातक है



नींद पूरी न हो पाना शरीर के लिये काफी घातक साबित हो सकता है । कम से कम चूहों में तो यही देखने में आया है। हेलसिंकी विश्वविद्यालय (फिनलेण्ड) की टार्जा पोर्काहाइसकोनेन और उनके सहयोगियों ने पता लगाया है कि यदि चूहों को पूरी नींद न मिले तो उनके शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र इसके विरुद्ध सक्रिय हो जाता है । तब उनके शरीर मंे ऐसे रसायनों का निर्माझ होने लगता है जो आम तौर पर तनाव के दौरान बनते हें । इसका मतलब है कि यदि लगातार नींद का अभाव बना रहे तो शरीर तनाव-जनित रोगांे(जैसे हृदय रोग) के जोखिम से घिर जाता है ।

पोर्का-हाइसकानेन का दल इस बात का अध्ययन कर रहा था कि नींद का अभाव होने पर दिमाग क्षतिपूर्ति के लिये क्या करता है । दूसरे शब्दांे में, दिमाग इस नींद की भरपाई कैसे करता हे । पहले किए गए उनके ही शोध से यह पता चल चुका था कि जब नींद का अभाव होता है तो दिमाग के अगले हिस्से में नाइट्रिक ऑक्साइड की मात्रा बढ़ने लगती है और यही रसायन क्षतिपूर्ति निद्रा चालू करने में भूमिका निभाता है । उन्होंने यह भी देखा था कि नाइट्रिक ऑक्साईड का निर्माण शुरु करवाने का काम एक एन्जाइम नाइट्रिक ऑक्साइड सिंथेज़ करता है । सवाल था कि यह एन्जाइम आता कहां से है ? पोर्का-हाईसकानेन का विचार था कि दिमाग में नाइट्रिक ऑक्साइड सिंथेज़ का निर्माण सतत रुप से होता होगा, चाहे इसकी जरुरत हो या नहंी । मगर जब उन्होंने प्रयोग किए तो पता चला कि दिमाग में नाइट्रिक ऑक्साईड सिंथेज़ सुप्त रुप में रहता है। वास्तवकि एन्ज़ाइम तब बनता है जब शरीर तनाव के विरुद्ध लड़ता है ।

यह एक आश्चर्यजनक खोज है क्योंकि इससे पता चलता है कि शरीर नींद के अभाव को एक तनाव मानकर उससे लड़ता है । इस अनुसंधान के दौरान यह भी पता चला कि चूहों में यह एन्ज़ाइम मात्र १० मिनट नींद के अभाव के बाद बनने लगता है । अर्थात् नींद का थोड़ा सा अभाव भी शरीर में तनावनुमा प्रतिक्रिया उत्पन्न करने के लिये पर्याप्त है । यदि यह स्थिति लगातार बनी रहे, तो शरीर पर काफी दबाव पड़ता है ।

अभी इस बात का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है कि नाइट्रिक ऑक्साइड सिंथेज़ की ज्यादा मात्रा का कोई खतरनाक असर होता है । मगर एक अध्ययन से पता चला था कि यदि १० दिन तक लगातार प्रतिदिन ४ घण्टे की नींद कम मिले तो खतरा बढ़ने लगता है, तो आराम बड़ी चीज है, मुंह ढंक के सोइये । ***