राष्ट्रीय जनमत संग्रह आयोग बने
- डॉ. बनवारीलाल शर्मा
इस समय देश के हर कोने से बचाओ-बचाआें की आवाजें आ रही हैं। उत्तर प्रदेश में गंगा एक्सप्रैस वे, जमुना एक्सप्रैस वे, ताज कॉरी-डोर जैसी परियोजनाआें से किसानों की सबसे बढ़िया, ऊपजाऊ लाखों एकड़ जमीन छिन रही है। कहने को तो सड़क बनाने के लिए जमीन ली जा रही है पर दरअसल इस बहाने सड़क के किनारे होटल, मोटल, कालोनी, माल आदि खड़े करने की योजनाएँ हैं । पिछले दिनों पश्चिम उत्तर प्रदेश के हजारों किसान दिल्ली में डेरा डाले पड़े थे, इसलिए कि वे अपनी गन्ने की खेती बचाना चाहते हैं । सरकार ने किसानों को पूछे बिना उनके गन्ने का दाम तय कर दिया है बाहर से चीनी मंगाने का फैसला कर लिया है। महाराष्ट्र में रायगढ़, गोराई, नासिक आदि स्थानों पर किसान सेज के खिलाफ, रत्नागिरी के गाँवों में परमाणु प्लांट के खिलाफ लड़ रहे है । पूरा झारखण्ड लड़ाई का मैदान बन गया है । कोयला, लोहा, युरेनियम तथा अन्य खनिजों की खदान लगाने के नाम पर लाखों लोगों की खेती, जंगल और घरद्वार से उजाड़ा जा रहा है। यही कहानी आन्ध्रप्रदेश के कोस्टल कॉरीडोर की है । वहॉ लग रहे सेज और परमाणु प्लांट के खिलाफ आंदोलन चल रहे हैं । तमिलनाडू में, कर्नाटक में, केरल में लोग अपने जमीन और जल को बचाने के लिए लोग सड़कों पर उतर आये हैं । मेघालय में ददाह (रेणुकाजी) में बाँध के विरूद्ध तथा उत्तराखण्ड में नदियों को बचाने के लिए लोग सड़कों पर उतर आये हैं । मेघालय में युरेनियम खान को रोकने के लिए आन्दोलित है । गुजरात में भावनगर में स्थापित होने वाले परमाणु प्लांट के खिलाफ लोगों ने मोर्चा संभाल लिया है। पंजाब के किसान अपने बेंगन बचाने के लिए मोनसांटो कम्पनी के बीटी ब्रिंजल के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं । यह तस्वीर कमोवेश पूरे देश की है । सरकार और देश-विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ मिल कर विकास के नाम पर लोगोंं जमीन, जंगल, जल और जीविका से विस्थापित कर रहे हैं । अगर लोग यह सब बचाने के लिए खड़े होते हैं तो उन्हें विकास विरोधी कहा जाता है और सरकार उन पर पुलिस की लाठियाँ बरसाती है । सरकार, कम्पनियों और कुछ पढ़े-लिखे विद्वानों-अर्थशास्त्रियों की तरफ से कहा जाता है कि विकास तो होना ही है, ९ फीसदी जीडीपी दर तो लानी ही है, फिर किसी न किसी को तो उसकी कीमत चुकानी ही पड़ेगी । यह तो होना ही है, और कोई रास्ता नहीं है । लोभ लालच देकर, भय दिखाकर, दमन करके लोगों को बड़े पैमाने पर उजाड़ा जा रहा है । सवाल यह है : यह देश है किसका ? ये जल, जंगल, जमीन हैं किसकी? क्या उन सरकारों की हैं जो किसी तरह से जैसे-तैसे वोट बटोर कर, गठजोड़ कर के बनती है? क्या उन देशी-विदेशी कम्पनियों की हैं जिन्होंने छल-फरेबी, घूसखोरी करके धन-दौलत बटोर ली है ? और जिनकी बेईमानी के काले कारनामे जगजाहिर हैं ? या फिर उन करोड़ों लोगों की, किसानों की, आदिवासियों की, वनवासियों की है जो सदियों से रक्षा करते हुए, इन्हें संभाले हुए और अपनी जीविका चलाते हुए चले आ रहे हैं ? देश में अभी तानाशाही तो है नहीं, लोकतंत्र है । पर यह कैसा लोकतंत्र है कि लोगों से पूछा तक नहीं जाता है कि तुम्हें परमाणु प्लांट चाहिए या नहीं, सेज चाहिए या नहीं, जंगल काटने चाहिए या नहीं, नदी बिकनी चाहिए या नहीं । जिन लोगों के वोट और नोट पर सरकार और कम्पनियों में बैठे लोग मौज कर रहे है उनके उनकी राय जानने की बात इन आकाश मेंउड़ने वालों के दिमाग में क्यों नहीं आती ? इसलिए नहीं आती कि वे जानते है कि उनके कारनामे जन विरोधी हैं । रायगढ़ में अम्बानी का २५ हजार एकड़ जमीन पर सेज सरकार ने मंजूर कर दिया। लोगों ने चिल्लाना शुरू किया कि हम उजड़ जायेंगे इस सेज की वजह से आन्दोलनकारियों ने दबाव बनाया कि लोगों से पूछो तो सही । कलेक्टर अच्छा था, सरकार से इजाजत लेकर उसने २२ गाँवों में जनमत संग्रह (रिफरेंडम) करा डाला । ९६ फीसदी लोगों ने सेज न बने यह वोट डाले । सरकार ने जनमत संग्रह का नतीजा घोषित ही नहीं किया । यह दूसरी बात है कि नतीजा लीक हो गया और एक अखबार ने छाप दिया । सरकारें लोगों के प्रति जिम्मेदार नहीं रह गयी है । उनकी निगाह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, विश्व बैंक, आईएमएफ , वर्ल्ड इकनोमिक फोरम, इण्डोयूएस बिजिनेस काउंसिल, अमरीकी सरकार, यूरोपीय संघ की तरफ हैं । इस देश की सरकारें जनमत संग्रह नहीं करायेंगी (जबकि कई अन्य देशों में ऐसा होता है ।) पर जो काम सरकार न करे तो उसे लोगों को करना होगा । वक्त आ गया है कि देश में एक राष्ट्रीय जनमत संग्रह आयोग (छरींळिरिश्र ठशषशीशर्विीा उिााळीीळिि) गठित किया जाये। देश में ५-७ ऐसे लोग इसके सदस्य हो जिनकी सत्यनिष्टा, न्याय निष्ठा पर कोई अंगुली न उठा सके । देश के जितने छोटे-बड़े जन संगठन है, वे इस आयोग को मान्यता प्रदान करें । यह आयोग पारदर्शी तरीके से जरूरत पड़ने पर अलग-अलग मुद्दों पर जनमत संग्रह करायेगा । जनमत संग्रह की प्रक्रिया खड़ी की जा सकती है, उसे खड़ी करने के लिए, दश्ेा में लोग हैं । सरकार इसे मान्यता न देगी, न दे, पर देश-विदेश के लोग इसके नतीजों को मानेंगे, उससे जन शिक्षण होगा, जन संघर्षोंा को बल मिलेगा और न्याय व्यवस्था की दिशा में सही कदम उठेंगे । (इस विषय में पाठकों की महत्वपूर्ण राय क्या है, यह जानने का हमें इन्तजार रहेगा - सम्पादक ) ***
पक्षियों ने लगाई विमानन कंपनियों को करोड़ों की चपत
पक्षियों ने इस साल देश की नागर विमानन कंपनियों को कम से कम ७ करोड़ रूपए का नुकसान पहुँचाया है । वास्तव में पक्षियों के विमान से टकराने की वजह से कंपनियों को यह नुकसान हुआ है । सरकार द्वारा जारी आँकड़ों के मुताबिक इस वर्ष अक्टूबर के अंत तक विभिन्न घरेलू एयर लाइनों के विमानों से पक्षियों के टकराने की २४१ घटनाएँ दर्ज की गइंर्। पिछले वर्ष इसी अवधि में ऐसे २७७ मामले दर्ज किए गए । इनमें एयर इंडिया में २४, जेट में ४९, किंगफिशर ६०, इंडिगो २७, स्पाइस जेट ३०, पैरामाउंट १ और गो एयर ने ऐसी ७ घटनाआें की सूचना दी । इस दौरान अंतराष्ट्रीय एयरलाइनों ने ऐसे ३४ और अन्य विमानों ने ६ मामलों की रपट दी । ऐसी घटनाआें के कारण इस वर्ष स्पाईस जेट को ५.५७ करोड़ रूपए का नुकसान उठाना पड़ा, जबकि वेट एयरवेज को ८.९१ लाख रूपए, इंडिगो को ८७ लाख रूपए और गोएयर को ४५.६ लाख रूपए की चपत लगी । इस समस्या के निबटने के लिए एनबीसीसी द्वारा जारी दिशा-निर्देश पर नागर विमानन महानिदेशालय ने कार्रवाई की, उल्लेखनीय है कि नए नियमों के तहत हवाईपट्टी क्षेत्र और उसके आसपास के इलाकों में मरे हुए पशु-पक्षियों को खुला फेंकने की रोकथाम के लिए प्रावधान सख्त किए हैं क्योंकि इनसे पक्षी आकर्षित होते हैं । ऐसे मामले में एक लाख रूपए का जुर्माना या तीन महीने की कैद या दोनों की सजा का प्रावधान भी है ।
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