एक अंतहीन त्रासदी के २५ बरस
अब्दुल जब्बार
२-३ दिसम्बर १९८४ की मध्य रात्रि को घटी भोपाल गैस त्रासदी को २५ वर्ष हो गए हैं । परंतु न तो भारत सरकार ने और न ही मध्यप्रदेश सरकार ने इस दारूण त्रासदी से कोई सबक लिया है । बल्कि लापरवाहीपूर्ण नीतियों को बढ़ावा देने से देश के अनेक इलाकों में भोपाल जैसी स्थितियां निर्मित होने की नौबत आ गई हैं । वास्तविकता तो यह है कि देशभर के करोड़ो नागरिक बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं स्थानीय औद्योगिक इकाईयों की वजह से कार्यस्थलों एवं वातावरण में घुलने वाले जहरीले पदार्थोंा की चपेट में आते जा रहे हैं । यह कहने में कोई भी अतिशयोक्ति नहीं हैं कि ये कंपनियां बिना सोचे-विचारे यह कार्य इसलिए कर पा रही हैं क्योंकि भोपाल गैस त्रासदी के अपराधियों पर विगत २५ वर्षोंा से न तो कोई कार्यवाही हुई और न ही निकट भविष्य में इसके होने की संभावना है । इससे विशेषत: बहुतराष्ट्रीय कंपनियों ने तो यह निष्कर्ष ही निकाल लिया है कि वे बिना किस डर के इस देश के स्वास्थ्य और पर्यावरण को तबाह कर सकती हैं और उनकी इस धृष्टतापूर्ण कार्यवाही के लिए उन्हें दोषी भी नहीं ठहराया जा सकताहैं । २५ वर्ष पहले हुई इस दुखद घटना की याद रोंगटे खड़े कर देती हैं । एक अध्ययन के अनुसार दुर्घटना के पहले ही हफ्ते में ८ हजार से अधिक इंसान मौत की नींद सो गए थे । बाद में इनकी संख्या बढ़कर २० हजार से भी अधिक हो गई । भारतीय स्वास्थ्य शोध संस्थान (आईसीएमआर) के अनुसार कम से कम ५ लाख २० हजार गैस प्रभावित लोगों के शरीर में इस दौरान जहरीला खून बह रहा था । (वर्तमान आंकड़ों के अनुसार ५७४३६७ लोग प्रभावित हैं) जिसने उनके शरीर के लगभग प्रत्येक तंत्र को हानि पहुंचाई । इसके परिणामस्वरूप मोतियाबिंद, भूख न लगना, अनियमित मासिक धर्म, बार-बार बुुखार आना, थकान, कमजोरी व व्यग्रता एवं तनाव के मामलों में वृद्धि आई हैं । परंतु यूनियन कार्बाइड भोपाल कारखाने से रिसी गैसों के मिश्रण व शरीर पर पड़ने वाले उनके प्रभावों की जानकारी लगातार गुप्त् बनाए रखे हैं । वह इसे अपना ट्रेड सीक्रेट मानती है । जानकारी के अभाव में भोपाल के चिकित्सक आज इस गैस संबंधी बीमारियों के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं । इसका सबसे अच्छा इलाज भी थोड़ी देर की राहत के अलावा कुछ नहीं देता । स्टेयोराइड, एंटीबायोटिक व साइकेट्रिक दवाआें का इस्तेमाल गैसजनित बीमारियों को और भी बढ़ा रहा हैं । गैस पीड़ितों में फेंफड़े की टी.बी. राष्ट्रीय औसत से तीन गुना अधिक, श्वास संबंधी समस्याएं और जानलेवा कैंसर भी औसत से कहीं अधिक है । इसकी वजह जानने के लिए एक बार पुन: २५ वर्ष पीछे लौटते हैं । रिसाव के समय जानबूझकर कारखाने का सायरन बंद रखा गया परिणामस्वरूप लोगों को हादसे के बारे में तभी पता लगा जब जहरीली गैसों ने उन्हें घेर लिया । लोग खांसते-हांफते उठे । उन्हें लगा जैसे उनकी आंखे गोया आग पर रखीें हो । लोग बच्चें को उठाए किसी भी दिशा में शहर से बाहर भागे । इस सैलाब में कई बच्च्े बिछुड़ भी गए । गैस के कारण लोगों के फेंफड़े जलने लगे । इससे उनके अंदर इतना पानी भरा कि फेंफड़े पानी से भर गए और लोग अपने ही शरीरिक द्रव्यों में डूबकर मर गए । ३ दिसम्बर १९८४ को जब यूनियन कार्बाइड के चिकित्सा अधिकारी को बुलाया गया तो उसने बताया कि यह गैस तो आंसू गैस के समान है आपको तो बस आंखों को पानी से धोना है । मिथाईल आइसों साइनाईट (मिक) नामक यह ६० टन गैस टैंक क्रमांक ई-६१० में भरी थी । जंग लगे पाईपों के माध्यम से बहुत सा पानी इस टैंक में घुसा । इस वजह से भारी मात्रा में गर्मी व दबाव उत्पन्न हुआ और मिथाइल आइसो साइनाईट हाइड्रो साइनाइड, मोनो मिथाइल, कार्बन मोनोआक्साइड व २० अन्य रसायनों का यह ४० टन जहरीला मिश्रण घने बादलों की शक्ल में शहर पर छा गया जिसके परिणामस्वरूप भोपाल के अस्पतालों के मुर्दाघर लाशोंसे पट गये । कब्रिस्तान और श्मशान लाशों के अंबार से निपटने मेंअसमर्थ थे और अगले तीन दिन और तीन रात तक शहर के विभिन्न हिस्सों में अनवरत रूप से अंतिम संस्कार होते रहे थे । मगर भोपाल त्रासदी के २५ वर्ष बाद भी अपराधियों को उनके अपराध के लिए दंडित नहीं किया जा सका है। गैस प्रभावितों को न्यायपूर्ण मुआवजा नहीं मिला है । आज भी ६००० गैस पीड़ित प्रतिदिन गैस त्रासदी से उत्पन्न बीमारियों का इलाज कराते हैा । इतना ही नहीं व्यवस्थित उपचार न मिल पाने से गैस पीड़ित अब भी लगातार असमय मृत्यु का शिकार हो रहे हैं । आर्थिक पुनर्वास का सरकारी कार्यक्रम कमोबेश थम गया है । हजारों गैस पीड़ितों की विधवाआें, अनाथ व अन्य विकलांगों के लिए पेंशन का प्रावधान तक नहीं किया गया है । पर्यावरणीय पुनर्वास कार्यक्रम के अंतर्गत सरकार पीने का स्वच्छ पानी व शौचालय जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध करवा पाने में असमर्थ रही है । बड़ी मात्रा में जहरीला पदार्थ अभी भी कारखाने में पड़ा है जो कि जमीन के अंदर पहुंचकर ५ वर्ग कि.मी. के इलाके के भूगर्भीय जल एवं भूमि को प्रदूषित कर रहा है । इस सबके बीच गैस पीड़ितों के स्मारक की बात तो कागजोंपर ही सीमित हैं । इतना ही नहीं भारत सरकार और युनियन कार्बाइड के बीच १९८९ में भोपाल निपटारा (समझौता भी कह सकते हैं ) हुआ । यह निपटारा इस कल्पना पर आधारित था कि केवल ३००० गैस पीड़ित मारे गए हैं और १०२००० विभिन्न प्रकार की चोटों से प्रभावित हुए हैं । वहीं भोपाल के कल्याण आयुक्त द्वारा स्थापित दावा न्यायालयों ने मृत व्यक्तियों सहित कुल ५७४३६७ व्यक्तियों को गैस प्रभावित माना है । इससे इस विपदा की व्यापकता का आभास होता है कि कितने लोग मारे गए होंगे । जबकि घायलों की संख्या निपटारे की बनिस्बत ५ गुना ज़्यादा हैं । यूनियन कार्बाइड और इसके आरोपी अधिकारियों के विरूद्ध भोपाल के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में आपराधिक मामला केंचुए की गति से चल रही है । राज्य एवं केन्द्र सरकार द्वारा हाथ में लिए गए स्वास्थ्य, आर्थिक व सामाजिक पुनर्वास के मामले भी अधकचरी अवस्था में हैं । वहीं दूसरी ओर सरकार ने प्रारंभ में त्रासदी की क्षतिपूर्ति के लिए करीब ३९०० करोड़ का दावा किया था परंतु गैस पीडितों से पूछे बिना वह कंपनी से सांठगांठ कर ७१५ करोड़ रूपए के क्षतिपूर्ति समझौते पर राजी हो गई । सर्वोच्च् न्यायालय ने भी १५ फरवरी १९८९ को इस समझौते पर अपनी मोहर लगा दी । फलस्वरूप कंपनी को मात्र ५० सेंट प्रति शेयर का नुकसान हुआ और वालस्ट्रीट में उसके शेयरों की कीमतों में उछाल आ गया है । सरकारी आंकड़ों के अनुसार भोपाल में गैस त्रासदी विकारों के १०,०१,७२३ दावे एवं मृत्यु के २२,१४६ दावे आए थे । इनमें मनमानी कमी कर दी गई । ३ दिसम्बर १९८४ को भोपाल के थाना हनुमान गंज में लापरवाही के कारण हुई मृत्युआें को लेकर संगीन अपराध की श्रेणी में रिपोर्ट दर्ज की गई थी । सीबीआई ने इस हेतु दमदार मुकदमा भी तैयार किया गया था । जिसमें १० वर्ष तक की कैद हो सकती थी । परंतु १९९२ में वारने एंडरसन के खिलाफ जारी हुए समन की अभी तक तामील नहीं हो पाई है और मुकदमे की धाराएं बदलने से सजा मिलने की स्थिति में कैद की मियाद घटकर २ वर्ष रह गई हैं । भोपाल के गैस पीड़ित भूलने के खिलाफ याद रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं। वे पूरी दुनिया को याद दिलाना चाहते हैं कि यूनियन कार्बाइड डाव केमिकल्स से विलय के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी रासायनिक कंपनी बन गई है । आवश्यकता इस बात की है कि २-३ दिसम्बर को मात्र २५ वीं बरसी न समझकर अन्याय के खिलाफ लड़ाई की शुरूआत मानना चाहिए । यही भोपाल गैस त्रासदी के प्रभावितों को सच्ची श्रद्धांजली होगी । ***संदर्भ - कोपनहेगन
खुद बुलाई त्रासदी
जलवायु परिवर्तन की वजह से पृथ्वी के गर्म होने , ग्लेशियरों के पिघलने और समुद्र के जलस्तर बढ़ने की वजह से दुनिया के बड़े हिस्से के डूब जाने के खतरा का कारण हम खुद हैं । आईपीसीसी (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज) के मुताबिक ग्रीन हाउस गैसों के लगातार उत्सर्जन के चलते ग्लोबल वार्मिंग के अंटार्कटिक में बर्फ तेजी से पिघलेगी । जिसकी वजह से वर्ष २१०० तक २० फीट के करीब समुद्री जलस्तर में बढ़ोतरी हो सकती है । वर्ष २००५ में ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे के दौरान यह तथ्य सामने आया कि अंटार्कटिक महाद्वीप में बर्फ के ग्लेशियर पिछले ५० साल में ८७ फीसदी तक पिघल चुके हैं । जबकि बीते पांच साल में दुनिया भर के ग्लेशियर १६४ फीट प्रतिवर्ष की औसत दर से पिघल रहे हैं । पृथ्वी की करीब ७० फीसदी आबादी समुद्र तटीय इलाकों में रहती है । दुनिया के १५ बड़े शहरों में से ११ तटीय क्षेत्र में हैं । इस सदी में अगर समुद्र का जलस्तर ९ से८८ सेमी तक भी बढ़ा तो इनमें से कई शहरों का नामोनिशान मिट जाएगा । वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अगर अगले सौ साल में अगर १.४ से ५. डिग्री सेल्सियस की औसत से तापमान और औसतन ३.५ इंच से ३४.६ इंच के करीब समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी हुई तो दुनिया के लगभग सारे तटीय इलाकों में पानी भर जाएगा ।
1 टिप्पणी:
भोपाल गैस की त्रासदी की विस्तृत जानकारी के लिए धन्यवाद।
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