कोपनहेगन से उम्मीद है
(विशेष संवाददाता द्वारा)
ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी को बचाने के मकसद से दुनिया के करीब १९२ देशों के १५ हजार से ज्यादा प्रतिनिधि कोपेनहेगन में इकट्ठा होने जा रहे हैं। विश्व बैंक के पूर्व अर्थशास्त्री लॉर्ड निकोलस स्टर्न इसे दूसरे विश्वयुद्घ के बाद सबसे बड़ा शिखर सम्मेलन बाते हैं । स्टर्न के मुताबिक दुनियाभर के देशों में ने जलवायु परिवर्तन को पहले गंभीरता से नहीं लिया, जिसका खामियाजा हम पहले भी भुगत चुके हैं। इसके अलावा कई देश, शहर व द्वीप खत्म होने की दलहीज पर है । ऐसे में विकसित व विकासशील देशों के नेताआें को एक साफ दृष्टिकोण के साथ इस सम्मेलन में भाग लेना होगा, ताकि मानव सभ्यता को खत्म होने से बचाया जा सके । दुनिया के रईस देशों को गरीब देशों की हर तरह से मदद करना होगी, ताकि वे इस दिशा में तुरंत ठोस कदम उठा सकें । संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित इस सम्मेलन में दुनियाभर के पर्यावरण मंत्री व अधिकारी भाग लेंगें, ताकि जलवायु परिर्वतन के मुद्दे पर `क्योटो प्रोटोकॉल' से आगे की रणनीति तय कर सकें । इस सम्मेलन का उद्देेश्य वर्ष १९९२ के पृथ्वी सम्मेलन के नियमों को और बेहतर बनाना व संशोधिक करना है, जिससे दुनियाभ में तेजीसे हो रहे जलवायु परिवर्तन को रोका जा सके । `सीओपी -१५' कोपेनहेगन सम्मेलन का अधिकारिक नाम है ।सीओपी यूनाइटेड नेंशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसी) का उच्च्तम अंग है , जिसमें प्रतिनिधि देशों के पर्यावरण मंत्री व अधिकारी सदस्य होते हैं । इस सम्मेलन के प्रतिभागी देश कोशिश करेंगें कि क्योटो प्रोटोकॉल का क्रमिक अनुसरण कर सकें । क्योटो प्रोटोकॉल की पहली अवस्था २०१२ में खत्म हो रही है । निकोलस स्टर्न के अनुसार पृथ्वी का तापमान अगर औसत दो डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ा तो प्रलय आने में देर नहीं लगेगी । इसे रोकने के लिए हमें वर्ष २०१० तक ४७ बिलियन टन , २०२० तक ४४ बिलियन टन और २०५० तक २० बिलियन टन सालाना कार्बन उत्सर्जन कम करना होगा । लिहाजा जरूरत है कि एक ठोस वैश्विक कार्ययोजना और तुरंत उस पर अमल शुरू करने की । कोपेनहेगन सम्मेलन आखिरी मौका है । चाहे कैसे भी हो, सब देशों को मिलकर इस सम्मेलन के दौरान एक वैश्विक संधि लागू कर उस पर अमल के लिए खुद को तैयार करना ही होगा । इस समस्या के हल के लिए अगर यह आखिरी मौका खो दिया तो वर्ष २१०० तक धरती का एक बड़ा हिस्सा जलमग्न हो जाएगा । यूएनएफसीसी के कार्यकारी सचिव यूवो डे बोएर के अनुसार इस सम्मेलन के मुद्दों में विकसित व विकासशील देशों द्वारा ग्रीन हाउस गैसों में कमी की सीमा निर्धारित करना अहम् है । विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए व्यवसायिक मदद और इसके लिए मुद्रा प्रबंधन भी प्रमुख मुद्दा है, लेकिन इन उद्देश्यों को हासिल करने में कुछ अड़चने भी हैं , जिनमें सबसे बड़ी है धन का प्रबंध । इस समस्या से निबटने की दिशा में विकासशील और अविकसित देश भी बेहतर काम कर सकें, इसके लिए धन का प्रबंध करने की जिम्मेदारी विकसित देशों को उठानी होगी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गार्डन ब्राउन के मुताबिक २०२० तक जलवायु परिवर्तन संबंधी निधिकरण के लिए १०० बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष खर्च करना पड़ेगा, लेकिन आर्थिक मंदी ने इस राह में रोड़ा डाला है ।फिर भी आशा है कि कोपेनहेगन में जुटने वाले विभिन्न देशों के प्रतिनिधि इस महाप्रलय से निपटने के लिए सार्थक कदम उठा पाएंगें । ***
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