प्रकृति के प्रांगण में चलें
-सत्यनारायण भटनागर
हिमालय की ऊँचाई और विस्तार को दखते-देखते प्रकृति के विविध रूपों का भी दर्शन होने लगता है । ऐसा लगता है, ईश्वर ने प्रकृति को विभिन्न रूपों से सजा-धजाकर बैठा दिया है । अपार सौन्दर्य है, प्रकृति के रूपों का । हम सुन्दरता के लिये नये-नये वस्त्र, डिजाइन और रंग रोज प्रयोग करते हैं, किन्तु प्रकृति के इन रूपों को देखकर लगता है कि काश हम भी ऐसे ही सुन्दर होते । एक छोटी सी तितली के रंग-ढंग देखकर सिर चक्कर खाने लगता है । क्या सुन्दर रूप है उसका ! एक चिड़िया के रंग-बिरंगे परों को देखकर मन मोहित हो जाता है । ऐसी एक तितली या चिड़िया नहीं है, हजारों हैं संख्या में, पर आश्चर्य सब एक जैसी होते हुए भी भिन्न हैं । किसी से किसी का मेल नहीं। विविध रूप, विभिन्न ढंग, पर एक जाति की । प्रकृति की यह एकता और विभिन्नता मोहक हैं । यदि ये सब एक रूप, एक रंग की होती तो कितना भद्दा लगता ? प्रकृति का जो आनन्द इस विभिन्नता में है, वह एकरसता में हो ही नहीं सकता था, इसलिये कवि, नाटककार ऑलिवर गोल्डस्मिथ ने कहा है, विराट प्रकृति ज्ञान की एक पुस्तक हैं । प्रकृति का रंग-ढंग बड़ा विचित्र है । इसे देखों और देखते रहो । देखते ही रहो और फिर डूब जाआें विचारों में, अन्तर्तम की गहराई में । यही प्रकृति का ज्ञान देने का ढंग है शायद । यहाँ वन में बड़े-बड़े वृक्ष हैं तो छोटे-छोटे भी हैं । किसी में ढेर सारे फल हैं तो किसी में एक भी फल नहीं हैं, पर वे पुष्पों से लदे हैं । कुछ वृक्षों में न फल हैं और न पुष्प, पर प्रकृति ने इन्हें इतने सुन्दर चिकने पत्ते दिये हैं कि देखते ही रह जाआें । कितने विविध जाति के वृक्ष हैं । अलग-अगल रूप और रंग के । सब पास-पास खड़े हैं। हवा के हिलोर से झूल रहे हैं । आपस में मिल रहे हैं । सरसराहट का संगीत बज उठता है । सूरज की रोशनी से स्नान किये सूरज की गरमी से शक्ति पाये ये प्रफुल्लित हैं । जीवन के गीत गाते हैं । हवा इनको एक जैसी हिलोर देती है । सूरज एक जैसी गरमी देता हैं । वर्षा एक जैसा पानी बरसाती है । हमारे लिये भी तो प्रकृति यही सब करती है । हममें अैर इन वृक्षों में अन्तर क्या है ? यदि प्रकृति दयालु न हो तो न ये वृक्ष रह सकते हैं और न हम । किन्तु वृक्षों में कितनी ही भिन्नता हो । ऊँच-नीच हो, जातिगत भेद हों, रंग-भेद हो, गुणवत्ता के भेद हों, उत्पादकता के भेद हों, किन्तु प्रकृति के आंगन में वे बिना किसी मतभेद, विवाद तनाव के रह लेते हैं । उनमें कभी युद्ध नहीं होता । वे अपने फलों को नि:संकोच बाँट देते हैं । उनका जीवन है ही इसलिये । वे त्याग की मूर्ति हैं । हम भी प्रकृति के हाथों के खिलौने हैं, किन्तु हमारा अहंकार कितना बड़ा है ? शायद हिमालय से भी बड़ा । वह समाप्त् ही नहीं होता । शायद इसीलिये हम बड़े होकर भी हिमालय पर आकर बहुत छोटे लगने लगते हैं । अंग्रेजी के कवि वर्ड्सवर्थ ने कहा था, प्रकृति को अपना शिक्षक बनाआें । प्रश्न है कैसे बनायें ? हम तो खुद शिक्षक हैं।हम कितने ही अपने आपको शिक्षाशास्त्री बतायें, लेकिन प्रकृति के मौन मुखरित विश्वविद्यालय की बराबरी नहीं कर सकत। पउम चरिउ के रचियता स्वयंभूदेव ने एक कविता में कहा हैं वह वटवृक्ष मानो शिक्षक का रूप धारण कर पक्षी रूपी शिष्यों को सुन्दर स्वर और व्यंजन के पाठ पढ़ा रहा था । कोए का-का कर रहे थे । कोयल को-कौ और पपीहा कं-कं: का उच्चरण कर रहे थे । विभिन्न पक्षी विभिन्न बोली, विभिन्न आवाजें फिर भी वे एक वन प्रदेश के एक वृक्ष पर बैठ सकते हैं , फल खा सकते हैं, घोंसला बना सकते हैं और जीवन निर्वाह की अपनी गतिविधियाँ चला सकते हैं । उनमें भी मतभेद तो होते होंगें, पर खून-खराबा और हिंसा होते कभी नहीं सूनी, कौआ भले ही कर्कश ध्वनि करे और कोयल भरे ही मधुर गीत गाये, पर वे साथ-साथ रह लेते हैं । उन्होंने प्रकृति के विश्वविद्यालय में शिक्षा पायी है । हम प्रकृति से दूर चले गये हैं, इसलिये इस विश्वविद्यालय का पाठ हम तक नहीं पहुँच रहा । हम पशु-पक्षियों के मैत्री भाव, सद्भाव, सहयोग के पाठ को भूल कर हिंसा पर क्यों विश्वास करने लगे हैं ? यह एक प्रश्न है । इसी प्रश्न का उत्तर दिया है कवि वर्ड्सवर्थ ने । वे कहते हैं, वसन्तकालीन वन की एक अन्त:प्रेरणा तुम्हें मानवता, नैतिकता तथा पाप-पुण्य के विषय में समस्त संतों से अधिक शिक्षादे सकती है। किसी भी वन प्रदेश के वृक्ष, पशु पक्षी, नदी और पर्वत हमारे अर्न्तमन की गहराई को छूकर मौन भाषा में हमसे बहुत कुछ कहते हैं । आओ, हम समय निकालें और प्रकृति के प्रांगण में जाकर उसका सन्देश सुनें । ***
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