सोमवार, 14 दिसंबर 2009

१० ज्ञान विज्ञान

कहां से सीखते हैं पक्षी गुनगुनाना


एक नई सामाजिक नेटवर्क टेक्नॉलॉजी टिव्टर से पता लगाया जा सकेगा कि कौन सी सॉन्गबर्ड (गाने वाली चिड़िया) एक-दूसरे के साथ समय बीताती है और वे धुनें कैसे सीखती हैं । चिड़ियाआें के इस मेल - मिलाप को रिकॉर्ड करने के लिएउन पर एक बिल्ला लगाया जाएगा जो यह जानकारी देगा कि वे कब, कहां और कितनी देर एक-दूसरे के समीप रहती हैं । वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताआें की योजना है कि अगले बसंत तक शहर के पास के जंगल में गीत गाने वाली गौरैया पर ऐसे बिल्ले लगा देंगें । उनको लगता है कि अन्य इकॉलॉजिस्ट भी इनका उपयोग करने को आगे आएंगें । एक-एक ग्राम के ये बिल्ले जॉन बर्ट और उनके साथियों ने विकसित किए हैं । ये सोलर सेल से चलते हैं और उनमें ऊर्जा संग्रहण की क्षमता होती है । ये बिल्ले रेडियो द्वारा बताते रहते हैं कि कब दूसरा बिल्ला पास आया और कितनी देर तक पास रहे । यह डैटा जंगल में स्थापित एक बेस स्टेशन में रिकॉर्ड होता रहता है। बर्ट और उनके साथी नर सॉन्गबर्ड में पहला बिल्ला लगाने की योजना बना रहे हैं । ये नर पक्ष मादा पक्षियों को अलग- अलग प्रकार की धुनों से रिझाने की कोशिश करते हैं और पड़ोस के इलाके के अन्य नर पक्षियों से भी संवाद करते हैं। युवा नर अपना इलाका स्थापित करने से पहले अपनी ज़िंदगी का पहला साल इन धुनों व गीतों को सीखने और उनकी रियाज करने में बिताते हैं । बर्ट बताते हैं कि `` वे गीतों को आत्मसात करते हैं लेकिन गाते नहीं हैं ।'' युवा नरों में पड़ोसी इलाकों में रहने वाले वयस्कों से गीत सीखने की प्रवृत्ति होती है । वे अपने पड़ोसी इलाके के पक्षियों की धुन गुनगुनाकर आक्रमण का संकेत भी देते हैं और कभी- कभी तनाव कम करने में भी उपयोग करते हैं। इसका मतलब यह है कि अपने पड़ोसी की सबसे सफल धुनों को जानना बहुत महत्वपूर्ण है । जो पक्षी इसमें असफल हो जाते हैं , वे आपस में ज्यादा लड़ाई करते हैं और अपना इलाका छोड़ देते हैं। और इसी के साथ अपना साथी ढूंढने का मौका भी गंवा देते हैं । लेकिन सही-सही यह अभी तक पता नहीं चल पाया है कि युवा नरों को यह कैसे पताचलता है किाकौन-सी धुनें सीखें । वयस्कों और युवाआें पर बिल्ले लगाएंगे जो यह बता पाएंगें कि ये पक्षी किसके साथ कितना वक्त बिताते हैं और किसका गाना सुन रहे हैं । इन प्रोटोटाइप बिल्लों की कीमत अभी ४०० डॉलर के आस-पास है मगर जल्दी ही कम हो जाएगी । बर्ट को अपने प्रोजेक्ट के लिए कम से कम सौ के करीब बिल्लों की जरूरत होगी । वे कहते हैं कि `` हर कोई मेरी तरह चिड़ियाआें के इस तरह के व्यवहार को जानना चाहता है । '' इस तरह की प्रक्रिया चलाने के लिए दूसरी सहायक तकनीकों की भी ज़रूरत होगी , जैसे ऑडियो रिकॉर्डर, त्वरण मापी या जीपीस यूनिट । वे इस माड्यूलर बनाना चाहते हैं ताकि हर शोधकर्ता अपने हिसाब से इसके अलग-अलग घटकों में परिवर्तन कर सके। बिल्लों का उपयोग अन्य जंतुआें पर सामाजिक व्यवहार शोध के लिए भी किया जा सकता है ।



नर हार्मोन कंजूसी का द्योतक है



यदि आप किसी सेल्समेन से सौदेबाजी करने जा रहे हैं तो हट्टे-कट्टे , मोटे - तगड़े सेल्समेन से बचकर रहें । क्योंकि जो हार्मोन उसे हट्टे-कट्टा बनाता है वही उसे कंजूस भी बनाता है । यह बात एक नए शोध से साबित हुई है । केलिफोर्निया के व्हिटियर कॉलेज में न्यूरोइकोनॉमिस्ट केरन रेडवाइन कहती हैं कि `` टेस्टोस्टेरॉन मर्दोंा को कंजूस बनाता है'' । उन्होंने अपना यह निष्कर्ष हाल ही में सोसायटी फॉर न्यूरोसाइंस की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत किया । लंदन शहर के १७ व्यापारियों पर पहले किए गए एक अध्ययन से पता चला था कि यक्ति में सुबह टेस्टेस्टेरॉन स्तर का संबंध उस दिन के लाभ - हानि से होता है । हार्मोन ज़्यादा हो तो लाभ होता है । लेकिन इस अध्ययन से टेस्टेस्टेरॉन और चालाकी के बीच कार्य- कारण संबंध स्थापित नहीं हुआ । रेडवाइन और उनके साथियों ने इसे और समझाने के लिए विश्वविद्यालय के २५ युवाआें पर एक प्रयोग किया । इनमें से कुछ को टेस्टेस्टेरॉन युक्त और कुछ को साधारण मल्हम लगाया गया । टेस्टेस्टेरॉन यक्त मल्हम लगाने पर शरीर में इस हार्मोन की मात्रा बढ़ जाती है। मगर न तो शोधकर्ताआें और न ही वालंटियर्स को पता था कि किसके खून में हार्मोन बढ़ा हुआ है । फिर उनकी उदारता का परीक्षण किया गया । इन वालंटियर्स को कम्प्यूटर पर लेन-देन का एक सरल खेल खेला । एक वालंटियर को कहा गया कि वह १० डॉलर को दूसरे वालंटियर के साथ जैसे चाहे बांटे और दूसरे वालंटियर को यह ऑफर था किवह इस बंटवारे को स्वीकार कर ले या अगर उसे बंटवारा सही न लगे तो उसे अस्वीकार कर दे । अस्वीकार करने की स्थिति में किसी को भी कोई पैसा नहीं मिलेगा । सभी वालंटियर्स को बंटवारा करने तथा उसे स्वीकार या अस्वीकार करने का मौका मिला । खेल का निष्कर्ष यह निकला कि बढ़े हुए टेस्टेस्टेरॉन के कारण उदारता में औसतन २७ प्रतिशत की कमी आई । बढ़े हुए टेस्टेस्टेरॉन वाले वालंटियर्स बंटवारे में सामने वाले को १० में से २.१५ से १.५७ डॉलर ही देते थे । यही प्रयोग टेस्टेस्टेरॉन के एक अपेक्षाकृत ज़्यादा शक्तिशाली रूप टेस्टेस्टेरॉन डाइहाइड्रोस्टेरॉन (ऊढक) के साथ भी किया गया । इसका प्रभाव और भी ज़्यादा रहा । जिसे ज़्यादा मात्रा में ऊढक दिया गया था उसने अपने पार्टनर को १० डॉलर में से मात्र ०.५५ डॉलर दिए औ जिसे कम ऊढक दिया गया था उसने ३.६५ डॉलर दिए । दूसरी ओर , हार्मोन की वजह से वालंटियर्स ४ डॉलर से कम की पेशकश को अस्वीकार भी करने लगे जबकि कम हार्मोन वाले वालंटियर्स २.५ डॉलर तक स्वीकार करने को तैयार हो जाते थे । यानी हार्मोन का असर लोगों को ज़्यादा स्वार्थी बना देता है, चाहे वे पेशकश करने की भूमका में हो या उसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करने की भूमिका में हों। यह बंटवारे को ५०-५० की ओर धकेलने का एक तरीका हो सकता है । अभी यह स्पष्ट नहीं है कि व्यवहार में यह परिवर्तन कैसे होता है । एक कारण यह हो सकता है कि टेस्टेस्टेरॉन एक अन्य हार्मोन ऑक्सीटोसीन के साथ कुछ क्रिया करता है । ऑक्सीटोसीन उदारता को बढ़ाता है । रेडवाइन ने नोट किया है मस्तिष्ट में टेस्टेस्टेरॉन ऑक्सीटोसीन की क्रिया को रोक देता है।



ग्रीन हाऊस प्रभाव का रासायनिक विश्लेषण



वैश्विक तापक्रम का सबसे बड़ा कारण कार्बन डॉईऑक्साइड हो सकता है, लेकिन दूसरी गैसें भी ग्रीन हाउस एजेंटों के रूप में ज़्यादा प्रभावी हैं । सवाल यह है कि इन अणुआें में ऐसी क्या बात है कि ये गर्मी को बांधने में इतने सक्षम होते हैं ? नासा में कार्यरत् एक दल का कहना है कि वह यह रहस्य जानता है और इसके आधार पर ज़्यादा पर्यावरण मित्र पदार्थ बनाए जा सकते हैं । कैलीफोर्निया के एम्स रिसर्च सेंटर के टीमोथी ली और उनके साथियों ने फ्लोरोकार्बन नामक ग्रीन हाऊस गैस के रासायनिक और भौतिक व्यवहार का विश्लेषण किया । उन्होंने पाया कि जिन अणुआें में फ्लोरीन परमाणु होता है वे गर्मी को कैद करने में अत्यंत सक्षम होते हैं । खासकर वे अणु जिनमें एक ही कार्बन परमाणु से कई फ्लोरीन परमाणु जुड़े होते हैं । फ्लोरोकार्बन इसी तरह का अणु है । ली का कहना है कि ग्रीनहाउस प्रभाव की दृष्टि से महत्व सिर्फ कार्बन -फ्लोरीन बंधनों की संख्या का नहीं बल्कि इस बात का भी है कि ये बंधन अणु में कैसे और कहां स्थित है । फ्लोरोकार्बन की ताप अवशोषित करने की क्षमता कार्बन-फ्लोरीन बंधनों के इलेक्ट्रिक गुणधर्म की वजह से होती है और यह प्रभाव तब ज्यादा होता है जब एक ही अणु मेंकई ऐसे बंधन मौजूद हों । यह बात ट्रेट्राफ्लोरोमीथेन के उदाहरण से समझी जा सकती है । इसमें एक ही कार्बन पर चार फ्लोरीन परमाणु जुड़े होते हैं, जो अधिकतम संभव है । टेट्राफ्लोरोमीथेन कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में ७३९० गुना ज़्यादा ग्रीन हाउस प्रभाव पैदा करता है । यह टेट्राफ्लोरोमीथेन की ग्लोबल वार्मिंग क्षमता है जिसकी गणना १०० साल की अवधि में की गई है । ***

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