हिमाचल : सेब से आलू तक की यात्रा
- सुश्री रावलीन कौर
वह दिन दूर नहीं जब हमें ठेलों पर हिमाचल के सेब ही जगह हिमाचल के आलू की पुकार सुनाई देगी । जलवायु परिवर्तन से सेब की पारम्परिक खेती को जबरदस्त नुकसान पहुंच रहा है। प्रकृति हमें संभलने के लिए एक के बाद एक संकेत दे रही है । परंतु हम इसे गंभीरता से लेने के बजाए घटिया विकल्पों को अपना रहे हैं । हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के सांगला विकासखंड के ५० वर्षीय हरीश नेगी जिन्होंने अभी- अभी और चीजों के साथ ही साथ रसोई गैस का कनेक्शन भी लिया है का सेबों का बगीचा अपने पूरे शबाब पर है और वे चाहते हैं कि उनके बच्च्े जो शिमला और चंडीगढ़ में पढ़ रहे हैं , घर लौट आएं । उनका कहना है कि उनकी यहां जरूरत है तो वे शहर में क्यों रह रहे हैं ? ६ वर्ष पहले तक हरीश अपनी ८ बीघा (०.६४ हेक्टेयर) जमीन से प्रतिवर्ष ३ लाख रूपये तक कमा लेते थे परंतु परिस्थितियों ने नया मोड़ लिया और इस पहाड़ी इलाके में ठंड कम पड़ने लगी । इससे उत्पादन बड़ा और हरीश और जमीन खरीदने में जुट गया । आज उसके पास १९ बीघा जमीन है और ६ वर्ष पहले के मुकाबले ८ गुना अधिक कमाता है । पहाड़ी सांगला गांव की बत्सेरी पंचायत के सचिव इंदर भगत का कहना है कि पिछले ६ वर्षोंा में एक तरह की क्रांति आई है । अब ९०% से अधिक किसान अनाज और फलियों की खेती छोड़कर सेबों की खेती में जुट गए हैं । हरीश भी उन्हीं मंे से एक है । ऊपरी क्षेत्रों जैसे काजा और टोगो में सेबों की फसल का क्षेत्र और उत्पादन में वृदि्घ हुई है । उदाहरण के लिए १९९८ और २००८ के मध्य किन्नौर जिले में उत्पादन दुगुना हुआ है, लाहौल और स्पीति जिलों में इसके उत्पादन में आठ गुना वृद्धि हुई है और शिमला जिले में डेढ़ गुना की वृद्धि हुई है। ऊपरी क्षेत्र के गांव वाले सेब की फसल की ओर इसलिए मुड़े क्योंकि यहां का वातावरण अब उनके अधिक अनुकूल हो गया है । पहले इस इलाके में सालभर बर्फ रहती थी और किसान इसके पिघलने पर ही कुछ करने की स्थिति में होते थे। किन्नौर जिले के फलोद्यान विभाग के उपनिदेशक एस.एस.मेहता का कहना है कि कुछ किसानोंका कारोबार तो २ से ३ करोड़ रूपए तक का हो गया है । इसके ठीक विपरीत हिमाचल का मध्य और निचले हिस्सा जो कि अपने मीठे सेबों के लिए प्रसिद्घ है, को घाटा उठाना पड़ रहा है । राज्य के फलोद्यान विभाग के अनुसार पिछले वर्ष जहां ५ लाख टन सेब का उत्पादन हुआ था इस वर्ष इसकी तुलना में मात्र २ लाख टन सेब के उत्पादन का अनुमान है । मीठे सेबों को प्रति मौसम कम से कम १ हजार घंटे की ठंड की आवश्यकता होती है । मध्य और निचले इलाके में यह कठिन होता जा रहा है । शिमला के शाथला गांव के बगीचा मालिक जितेंद्र सरकेक का कहना है कि इस वर्ष बर्फबारी ही नहीं हुई और इसके बाद अकाल भी पड़ गया । ठंड ने इस वर्ष तापमान १२ डिग्री से नीचे गया ही नहीं अतएव जमाने वाली ठंड पड़ी ही नहीं । भारतीय मौसम विभाग के निदेशक मनमोहन सिंह का कहना है कि तापमान (जनवरी व फरवरी) में प्रतिवर्ष ०.०१ डिग्री सेंटीग्रेड प्रतिवर्ष का इजाफा हो रहा है । अतएव ऊपरी क्षेत्रों के अपने सहभागियों की बजाए इस क्षेत्र के किसान राज्य के फलोद्यान विभाग की मदद से तेजी से खट्टे सेब का उत्पादन बढ़ाने में लग गए हैं । इस इलाके में बीचे भी काफी पहले लगाए गए थे ।अब ये पेड़ बूढ़े होकर अपना पूरा जीवन जी चुके हैं । नए रोपण के समय किसानों का खट्टे सेबों के प्रति झुकाव साफ नजर आता है इसका कारण है कि इनमें चार वर्षोंा में ही फल आ जाते हैं जबकि मीठी किस्मों में फल आने में आठ वर्ष लग जाते हैं । खट्टे हों या मीठे दोनों तरह के सेबों का अपना बाजार है । खट्टी किस्में इसलिए भी बिक जाती है क्योंकि वे अधिकाधिक सेब मौसम से दो महीने पहले जुलाई में ही बाजार में आ जाती हैं । दिल्ली में इनके २० किलो बक्से की कीमत ११०० से १५०० रूपये के मध्य होती है । हालांकि किन्नौर की मीठी किस्म अधिक लोकप्रिय है जो कि राजधानी में १६०० से २००० के मध्य बिकती है । राज्य के फलोद्यान विभाग के निदेशक गुरूदेव सिंह का कहना है कि जलवायु में आ रहे परिवर्तन से फलसचक्र भी बदल रहा है । इन खट्टे सेबों की किस्मों की जड़ स्पर कहलाती है । इसे अमेरिका से आयात किया जाता है और यह क्लोनल रूट स्टॉक (कृत्रिम कोशिकाआें से निर्मित मातृ पौधा) पर ही विकसित होता है । कोई मातृ पौधा तब कृत्रिम कोशिका कहलाता है जब नर्सरी में उसका विकास बजाए बीज के जड़ से हुआ हो। जब यह विकसित पौधे का रूप ले लेता है तो इसे किसानों को बेचा जाता है । इसके बाद किसान इस पर अपनी पसंद की किस्म जैसे `स्पर' आदि की कलम लगा (ग्राफ्ट) कर देते हैं । इन विदेशी जड़ों के साथ प्रायोग सन् २००० के दशक के प्रारंभ में शुरू किए गए थे । दो साल में ही ये स्थापित भी हो गए । इन जड़ों पर आश्रित इन पेड़ों को अन्य पेड़ों से विविधता के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है। इन वृक्षों का कद छोटा होता है, फल का आकार व रंग एक सा होता है और यह जल्दी फल देता है । गौरतलब है कि इन वृक्षों का जीवन मात्र ४० वर्ष है जबकि बीजों से विकसित वृक्ष ७० वर्ष तक जीवित रहते हैं । चूंकि इन्हें पास-पास लगाया जा सकता है अतएव अधिक फल देते हैं । वैसे इस पौधे की लागत ५०० रूपए है परंतु शासन इसे कृषकों को १५० रूपए में दे रहा है । फलोद्यान विभाग गाईला और लाल फ्यूजी जैसी कम खट्टी किस्मों को इसलिए प्रोत्साहित कर रहा है क्योंकि इनमें स्वमेव परागण की क्षमता है । यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि तूफान की स्थिति में मधुमक्खियों की गतिविधियां सीमित हो जाती हैं और चूंकि फूलोें का जीवन तो मात्र १५ से २० दिन का होता है ऐसे में परागण में रूकावट से उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । इस सबसे इतर किन्नौर में सेब उत्पादकों को एक अन्य समस्या से भी दो-चार होना पड़ रहा है । किन्नौर के चगाहो ग्राम के जयचंद्र नेगी का कहना है कि इलाके में निर्मित हो रही जल विद्युत परियोजनाआें के कारण उड़ रही धूल से भी समस्याएं खड़ी हो रही हैं । जिस तेजी से यहां ये परियोजनाएं निर्मित हो रही हैं उससे यह कह पाना कठिन हो गया है कि किन्नौर अपनी सर्वश्रेष्ठ सेब उत्पादक की प्रतिष्ठा को कब तक कायम रख पाएगा ? जहां किसानों का कहना है कि अगर जलवायु अनुकूल रहती है तो हम अच्छे स्वाद वाले सेब अधिक मात्रा में और उचित मूल्य पर उपलब्ध करवा पाएंगे। यदि जलवायु इसी तरह परिवर्तित होती रही तो निचले एवं मध्यम के क्षेत्रों में सिंचाई एक समस्या बन जाएगी । परंतु शासन के पास तो अगली योजना तैयार है, फलोद्यान विभाग के निदेशक का कहना है कि अभी तो हमने `स्पर' को अपना लिया है । जब यह विकल्प भी कारगर नहीं रहेगा तो हम आलू के उत्पादन को प्रोत्साहित करेंगे ।***
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