भूमि प्रदूषण : संरक्षण एवं नियंत्रण
डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
भूमि पर्यावरण की आधारभूत इकाई होती है । यह एक स्थिर इकाई होने के नाते इसकी वृद्धि मेंबढ़ोत्तरी नहीं की जा सकती हैं । बड़े पैमाने पर हुए औद्योगीकरण एंव नगरीकरण ने नगरों में बढ़ती जनसंख्या एवं निकलने वाले द्रव एंव ठोस अवशिष्ट पदार्थ मिट्टी को प्रदूषित कर रहें हैं । ठोस कचरे के कारण आज भूमि में प्रदूषण अधिक फैल रहा है । ठोस कचरा प्राय: घरों, मवेशी-ग्रहों, उद्योगों, कृषि एवं दूसरे स्थानों से भी आता है । इसके ढेर टीलों का रूप ले लेते हैं क्योंकि इस ठोस कचरे में राख, काँच, फल तथा सब्जियों के छिल्के, कागज, कपड़े, प्लास्टिक, रबड़, चमड़ा, इंर्ट, रेट, धातुएँ मवेशी गृह का कचरा, गोबर इत्यादि वस्तुएँ सम्मिलित हैं । हवा में छोड़े गये खतरनाक रसायन सल्फर, सीसा के यौगिक जब मृदा में पहुँचने हैं तो यह प्रदूषित हो जाती है। भूमि के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में ऐसा कोई भी अवाछिंत परिवर्तन, जिसका प्रभाव मनुष्य तथा अन्य जीवों पर पड़ें या जिससे भूमि की प्राकृतिक गुणवत्ता तथा उपयोगिता नष्ट हो भू-प्रदूषण कहलाता है । भूमि पर उपलब्ध चक्र भू-सतह का लगभग ५० प्रतिशत भाग ही उपयोग के लायक है और इसके शेष ५० प्रतिशत भाग में पहाड़, खाइयां, दलदल, मरूस्थल और पठार आदि हैं । यहाँ यह बताना आवश्यक है कि विश्व के ७९ प्रतिशत खाद्य पदार्थ मिट्टी से ही उत्पन्न होते हैं । इस संसाधन (भूमि) की महत्ता इसलिए और भी बढ़ जाती है कि ग्लोब के मात्र २ प्रतिशत भाग में ही कृषि योग्य भूमि मिलती है । अत: भूमि या मिट्टी एक अतिदुर्लभ (अति सीमित) संसाधन है । निवास एवं खाद्य पदार्थोंा की समुचित उपलब्धि के लिए इस सीमित संसाधन को प्रदूषण से बचाना आज की महती आवश्यकता हो गयी है । आज जिस गति से विश्व एवं भारत की जनसंख्या बढ़ रही है इन लोगों की भोजन की व्यवस्था करने के लिए भूमि को जरूरत से ज्यादा शोषण किया जा रहा है । जिसके परिणाम स्वरूप आज भूमि की पोषक क्षमता कम होती जा रही है । पोषकता बढ़ाने के लिए मानव इसमें रासायनिक उर्वरकों को एवं कीटनाशकों का जमकर इस्तेमाल कर रहा है । इसके साथ ही पौधों को रोगों व कीटाणुआें तथा पशु पक्षियों से बचाने के लिए छिड़के जाने वाले मैथिलियान, गैमेक्सीन, डाइथेन एम ४५, डाइथेन जेड ७८ और २,४ डी जैसे हानिकारक तत्व प्राकृतिक उर्वरता को नष्ट कर मृदा की साधना में व्यतिक्रम उत्पन्न कर इसे दूषित कर रहे हैं जिससे इसमें उत्पन्न होने वाले खाद्य पदार्थ विषाक्त होते जा रहे हैं और यही विषाक्त पदार्थ जब भोजन के माध्यम से मानव शरीर में पहुँचते हैं तो उसे नाना प्रकार की बीमारियां हो जाती हैं । भूमि (मृदा) प्रदूषण के कारण जब भूमि अपने प्राकृतिक स्वभाव से हटकर अर्थात् कृषि कार्य एवं मानक के उपयोग के लिए अनुपयुक्त हो जाये तो वह प्रदूषित मानी जाती है इस प्रदूषण के पीछे विभिन्न कारण जैसे रासायनिक प्रदूषण, भू उत्खनन, ज्वालामुखी उद्गार जो मानव एवं प्राकृतिक जनित होता है भूमि प्रदूषण के कारण मानते हैं। प्रतिदिन आवासीय क्षेत्रों से सफाई के दौरान रसोई का गीला जूठन कागज, प्लास्टिक के टुकड़े, कपड़े के टुकड़े, काँच, शीशियाँ, थर्मोकोल, एल्यूमीनियम, लोहे के तार, टिन कन्टेनर, टायर एवं अन्य कूड़ा करकट निकलता है । यही कचरा मिट्टी में मिलकर भूमि को प्रदूषित कर देता है । नगर पालिका के अंतर्गत सम्पूर्ण शहर का कूड़ा करकट, मानव मल, मरे जानवरों इत्यादि के अवशिष्ट मिट्टी एवं नालों में पड़े सड़ते रहते हैं जिससे भूमि दूषित हो जाती है । औद्योगिक इकाइयों से सबसे अधिक भूमि प्रदूषण फैल रहा है जिसमें उर्वरक व रसायन शक्कर कारखानों, कपड़ा बनाने वाली इकाइयों, ग्रेफाइट, ताप बिजली घरों, सीमेंट कारखानों, साबुन, तेल तथा धातु निर्माण कारखानों के द्वारा भारी मात्रा में हानिकारक एवं विषैले रसायन जब जमीन पर पड़ते हैं और इनके ठोस अवशिष्ट अनेक स्थानों पर पहाड़ व टीलों का रूप ले लेते हैं और इसके कारण उस स्थान की भूमि प्रदूषित होकर वनस्पति विहीन तथा अनउपजाऊ हो जाती है । कृषि में अधिक से अधिक पैदावार बढ़ाने के लिए व्यक्ति खेतों में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करता है । और फसलों की सुरक्षा में कीटनाशकों का छिड़काव भी करता है । वैज्ञानिकों का दावा है कि इन कीटनाशकों का प्रभाव भूमि पर १० से १५ वर्ष तक बना रहता है । वहीं फसलें कट जाने के बाद खेतों में अनावश्यक बचे पौधों के ढेर जब वर्षा के जल के साथ मिलते हैं तो सड़ने पर भूमि प्रदूषित हो जाती है । अपने निवास की तलाश में मानव ने भूमि से पेड़ काटकर उसमें रहने लायक मकान तथा कालोनियों का निर्माण किया । इस निर्माण के दौरान उसमें प्रयोग की गई सामग्रियां, सीमेंट, रेत, पत्थर, इंर्ट, गिट्टी, चूना तथा इधर-उधर बिखर जाना और कुछ दिन बाद यह मिट्टी मेें मिलकर भूमि को प्रदूषित कर देते हैं । खनन करते समय जब व्यक्ति उससे खनिज तत्व निकलता है तो खुदाई के दौरान निकले अनेक अनुपयोगी पदार्थोंा एवं वस्तुआें को बाहर छोड़ देते हैं । जिससे वहाँ की भूमि अनुपयोगी के साथ - साथ अनउपजाऊ भी हो जाती है क्योंकि यह खुली धूल जब हवा में उड़ती है तो उसकी ऊपरी पर्त भूमि को ढंक लेती है जिससे वह प्रदूषित हो जाती है । भूमि प्रदूषण के अन्य स्त्रोतों में रेगिस्तान की रेत उड़ती हुई अन्य क्षेत्रों की भूमि में आकर उसकी उर्वरता शक्ति को समाप्त् कर देती है, अम्ल वर्षा, इंर्टों का निर्माण, भूकम्प एवं प्राकृतिक आपदाआें के कारण टूटफूट, अस्पतालों का कचरा, अनुपयोगी तथा हानिकारक पौधों की खेती तथा सिंचाई व पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिए नदियों पर बनने वाले बांधों के कारण वहाँ की भूमि दलदल में बदल जाती है जिससे भूमि प्रदूषण विविध रूपों में हमारे समक्ष आ खड़ा होता है । संरक्षण एवं नियंत्रण के उपाय - १. कार्य कितना भी कठिन हो यदि व्यक्ति उसे निस्वार्थ भाव एवं ईमानदारी से करता है तो उसमें सफलता अवश्य मिलती है । भूमि प्रदूषण के संरक्षण की जहां तक बात है यह अति कठिन यक्ष प्रश्न है क्योंकि सभ्यता के विकास की कीमत इस समाज में रहने वाले जीवों को चुकानी पड़ती है वह चाहे किसी रूप में ही क्यों न हो ? फिर भी हमें कोशिश करनी चाहिए कि इसमें नियंत्रण हो, इसके लिए - भूमि के क्षरण को रोकने के लिए वृक्षारोपण , बांध-बंधियां आदि बनाये जाने चाहिए। २. नवीन कीटनाशकोंका विकास किया जाये जो अन्य लक्ष्यगत कीटों के अतिरिक्त अन्य जीवाणुआें को विनष्ट कर सके ।३. कृषि कार्योंा में जैविक खाद व दुर्बल कीटनाशकों का अधिकाधिक प्रयोग सुनिश्चित किया जाना चाहिए।४. पौधारोपण एवं अधिक से अधिक हरी घास को लगाकर भूमि कटाव को रोका जाना ।५. औद्योगिक इकाइयों से उत्सर्जित कचरे को ठिकाने लगाने के लिए उचित प्रबंध किया जाना चाहिए ।६. कचरा निस्तारण के लिए नगर पालिकाआें के सख्त नियम बनाये जाने चाहिए ।७. कृषि अवशेषों को खेतों में न जलाने के लिए किसानों को प्रेरित किया जाना चाहिए ।८. भू-जल स्तर को बढ़ाने के लिए नई तकनीकों (रेन वाटर हार्वेस्टिंग विविधों का) प्रयोग किया जाना चाहिए ।९. जैव प्रौद्योगिकी का प्रयोग सुनिश्चित किया जाना चाहिए ।१०. सरकार एवं स्वयंसेवी संस्थाआें को इस पर व्यापक रणनीति बनाकर एक संयुक्त संघ बनाना चाहिए और लोगों में जागरूकता पैदा करनी चाहिए । ***
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