सोमवार, 14 दिसंबर 2009

११ विज्ञान हमारे आसपास

संजीवनी - कितना सच कितना मिथक

- डॉ. किशोर पंवार

देश की प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका करंट सांइस के एक लेख छपा है `इन सर्च ऑफ संजीवनी' । यह के.एन. गणैशय्या, आर. वासुदेव एवं आर. उमाशंकर का संयुक्त प्रयास है । यह खोजी प्रकृति का एक बहुत ही श्रेष्ठ कोटि का विश्लेषणात्मक लेख है । लेखकों ने रामायण में वर्णित संजीवनी बूटी की खोज का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बहुत ही सुन्दर एवं सराहनीय प्रयास किया है । हालांकि कुछ बिन्दु अभी भी ऐसे हैं जिन पर रोशनी डाली जाना बाकी है । जैसे संजीवनी का दीप्त्मिान होना । उक्त लेखकों का मत है कि यदि इस बात की ज़रासी भी संभावना है कि संजीवनी बूटी का नाम का कोई पौधा या समूह था या है, तो इसे खोजा जाना चाहिए। संभावनाआें को तलाशना विज्ञान का एक महत्वपूर्ण काम है । संजीवनी के संदर्भ में यदि ऐसा नहीं किया गया तो हो सकता है कि हम ऐसी महत्वपूर्ण जड़ी-बूटी गवां दें । लेखकों ने उनके खज़ाने - एक हज़ार पौधों के डैटाबेस `जैव सम्पदा' - में शुरूआती तौर पर १७ ऐसे पौधों को चुना जिसमें संजीवनी होने की संभावनाएं हैं । फिर उनमें ६ पौधे चुने और अन्त में वे अपनी खोज में इस निष्कर्ष पर पहंुचते हैं कि केवलदो ऐसे पोधे हैं जिनमें संजीवनी ब्रायोंप्टेरिस और दूसरा डेस्मोट्रायकम फिम्ब्रिएटम । पहला (सिलेजिनेला) एक सरल प्रकार का ज़मीनी पौधा है जो जैव विकास की प्रथम पायदान पर खड़ा है । दूसरा (डेस्मोट्रायकम) एक उपरिरोही ऑर्किड हैं जो विकास की सर्वोच्च् पायदान का प्रतिनिधि है । छह मंे से इन दो पौधों के चुनाव का कारण इनका आवास है । चूकि हनुमान को संजीवनी की तलाश में हिमालय पर्वत पर भेजा गया था अत: संजीवनी एक पहाड़ी पौधा ही होना चाहिए, मैदानी या रेगिस्तानी नहीं । ये दोनों पौधे इस मापदण्ड पर खरे उतरते हैं । सिलेजिनेला ब्रायप्टेरिस कटिबंधीय जंगलों के पहाड़ी क्षेत्रों मेंे मिलता है (जिसे अरावली पर्वत माला और विशेषकर मध्यप्रदेश के बस्तर, बिलासपुर और होशंगाबाद जिले में) । वहीं डेस्मोट्रायकम पश्चिमी घाट और उत्तर पूर्वी राज्यों की पहाड़ियों पर उगता है । ये दोनों पौधे औषधीय गुणों से भरपूर भी हैं। सिलेजिनेला गर्मी और लू से बचाता है । रामायण के वर्णन से स्पष्ट होता है कि राम-रावण युद्ध के दौरान शक्ति लगने से लक्ष्मण मूच्र्छित हो गए थे और संजीवनी बूटी ने उन्हें वापस होश में ला दिया था । इससे यह स्पष्ट है कि मृत नहीं केवल मूच्र्छित हुए थे । अत: संजीवनी ऐसी बूटी/औषधि है जो मूर्च्छा तोड़कर पुन: होश में ला दे । यानी लगभग पुन: जीवित करने के गुण वाली बूटी ।

डॉक्ट्रीन ऑफ सिग्नेचर

यह एक पुराना सिद्धांत हैं जिसके अनुसार जो पौधा या पौधे का हिस्सा मानव शरीर के अंग से समानता रखता हैं उसमें उसे ठीक करने का गुण होता है । यह सिद्धांत विदेशों में काफी समय तक माना जाता रहा था, विशेषकर हर्बलिस्ट के बीच । जैसे बादाम आंख जैसी दिखता है तो यह आंख के रोग में लाभकारी होगी । अखरोट हूबहू दिमाग की रचना जैसा दिखता हे अत: यह याददाश्त बढ़ाने में उपयोगी होगा या तंत्रिका विकारों को ठीक करेगा । उसी तरह लिवरवट्र्स लीवर संबंधी रोगों में उपयोगी माने गए हैं । एक और पौधा है जिसे मैंने अक्सर अपने बगीचे से लोगों को ले जाते देखा है, नाम है हाड़-जोड़ यानी हड्डी जोड़ने वाला । अस्थिभंग की अवस्था में उसका पुल्टिस बांधते हैं । पौधा ऐसा दिखता है जैसे छोटी हडि्डयाँ जोड़ दी गई हैं । वानस्पतिक नाम है वायटिस क्वाड्रागुलेरिसा । यहां एक और पौधे मेन्ड्रेक यानी जिनसेंग का ज़िक्र लाज़मी है । इस पौधे की जड़े हूबहू मानवाकार होती हैं - सिर, पैर हाथ, धड़, और तो और उंगलियों भी दिखाई देती हैं इसकी जड़ों पर । यह पौधा पूरे शरीर के उपचार में उपयोग किया जाता है । यही है डॉक्ट्रीन ऑफ सिग्नेचर । इसी आधार पर संजीवनी को देखा जाए तो उस पौधे में स्वयं पुनर्जीवित होने का गुण होना चाहएि। अत: यह माना जा सकता है कि यह मूर्च्छा तोड़ने अर्थात पुन: जीवन के गणु लाने में सहायक होना चाहिए ।

पुनर्जीवित होने का गुण

सिलेजिनेला की कई प्रजातियां शुष्क स्थानों पर उगती हैं और इन्हें रीसरक्शन प्लांट कहा जाता है । पानी की कमी में ये लिपटकर एक हल्की-भूरी गेंदनुमा रचना बना लेते हैं और नमी मिलते ही ये पुन: खुलकर एकदम ताजे हरे हो जाते हैं जैसे ये कभी सूखे ही न थे । यह चमत्कारी गुण उन्हें विशिष्ट बनाता है । उसे कुछ जगह पर डायनोसौर पौधा भी कहते है क्योंकि यह लगभग मृत विलुप्त् अवस्था से पुन: जीवित हो उठता है । सिलेजिनेला की कई प्रजातियां, जैसे सिलेजिनेला लेपिडोफिला, सिलेजिनेला ब्रायोप्टेरिस आदि दुनिया के कई देशों में एक अजूबे की तरह बेची जाती हैं । यूएस में १९२१ से इसे बेचा जाता है । कुछ लोग उसे फाल्स रोज़ कहते हैं तो कुछ स्टोन फ्लावर । सिलेजिनेला के पुन: जीवित हो उठता है। सिलेजिनेला की कई प्रजातियां, जैसे सिलेजिनेला लेपिडोफिला, सिलेजिनेला ब्रायोप्टेरिस आदि दुनिया के कई देशों में एक अजूबे की तरह बेची जाती हैं । यूएस में १९२१ से इसे बेचा जाता है । कुछ लोग उसे फाल्स रोज कहते हैं तो कुछ स्टोन फ्लावर । सिलेजिनेला के पुन: जीवित होने का यह गुण ही उसे संजीवनी बूटी मानने को विवश करता है । एक पौधा लगभग मृत अवस्था में पड़ा रहे, जड़ से उखड़कर भी पुन: पानी मिलते ही जिंदा हो जाए, क्या यह कम आश्चर्य नहीं? जो पौधा स्वयं पुन: जीवित हो जाता है वह दूसरे किसी जीव में जान क्यों नहीं डाल सकता ? इस संदर्भ में शाह और उनके साथियों द्वारा २००५ में किए गए शोध में सिलेजिनेला का रस चूहे की कोशिकाआें को ऑक्सीकारक तानव एवं तंत्रिका विकार से ठीक कर देता है । मूर्च्छा एक तरह का तंत्रिका विकार ही है । शोध की दिशा से यह संकेत तो मिल ही रहा है कि ऐसा कोई पौधा हो सकता है जो तंत्रिका विकार को ठीक कर सकता है । चूहे की कोशिका और मानव कोशिकाएं समान ही होती है। सिलेजिनेला ऐसा पौधा है जो बिलकुल सूखी अवस्था से पानी मिलते ही जिंदा हो जाता है, सांस लेने लगता है। ऐसे पौधों को पायकिलोहायड्रिक कहते हैं । हमारे यहां कई धार्मिक मेलों में सिलेजिनेला संजीवनी बूटी के नाम से बेचा जाता है । बेचने वाले उनके गट्ठर इकट्ठे कर लाते हैं और पानी भरी शीशियों में रखकर बेचते हैं । वे उसके औषधीय महत्व के बारे में कुछ नहीं कहते । सिर्फ इतना कहते हैं कि यह संजीवनी बूटी है । वैसे पुन: जीवित होने का यह गुण केवल सिलेजिनेला ही नहींअन्य कई ब्रायोफाइट्स एवं फर्न्स में भी पाया जाता है । संजीवनी बूटी की तलाश में मैंने आयुर्वेद के एक प्रमुख ग्रंथ भाव मिश्र द्वारा रचित भाव प्रकाश निघंटु तलाशा । इस पूरे ग्रंथ में संजीवनी नाम की किसी बूटी का ज़िक्र नहीं है । हां, सिलेजिनेला की जानकारी ज़रूर है परन्तु उसका हिन्दी नाम हत्था-जोड़ी है । इस क्षुद्र वनस्पति के बारे में लिखा है कि यह पथरीली सूखी और खुली जगहों पर पाई जाती है । सुबह यह ताज़ी हरी होती है और ज़मीन पर फैली रहती है । परन्तु दिन चढ़ने पर क्रमश: संकुचित होती जाती है और यदि उसे उखाड़कर पानी में डाल देंे तो शीध्र ही फैलकर ताज़ी हरी हो जाती है । गुणों से तो यह संजीवनी ही लगती है - अंग्रेजी नाम तथा उपयोग से भी । परन्तु इसे संजीवनी नाम क्यों नहीं दिया गया यह आश्चर्य का विषय है । इसे वात विकार, अपस्मार, सूखारोग, आर्तक विकार, रक्तपित, धातु दोर्बल्य और प्रसूति में उपयोगी बताया गया है । जैसा कि करंट साइन्स के लेख में जिक्र है, संजीवनी एक पौधा भी हो सकता है या पौधों का समूह भी । इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि पिछले महीनों पातंजली योग पीठ हरिद्वार के महामंत्री आचार्य बालकृष्ण जी ने संजीवनी बूटी धोलागिरी पर्वत से खोज लिए जाने की घोषणा बड़े जोर-शोर से मिडिया में की थी । उनके अनुसार संजीवनी बूटी चार पौधो का समूह है - रामायण में भी इन्हें चार कहा गया है । ये चार बूटियाँ है: १. विशल्यकरणी - ऐसी बूटी जो शल्य को बाहर कर दे ।२. सुवर्णकारी - त्वचा के रंग को पुन: एक सार कर दे ।३. मृत संजीवनी - मूर्च्छा तोड़ने वाली ।४. संधानकरणी - चोट को शीघ्र ठीक करने वाली । पातंजली योग पीठ द्वारा खोजी गई एक बूटी है फेनी कमल (सासूरिया बेसीवेरा) जो ब्रह्म कमल का बहुत करीबी संबंधी है । एक औषधि फर्न जैसी दिखती है जो सिलेजिनेला हो सकती है । तीसरी प्लूरियोस्पर्मम कोरिएंडोल है । इनकी खोज की सत्यता तो इनकी उपयोगिता सिद्ध होने पर ही पता चलेगी । विशल्यकरणी का ज़िक्र भावप्रकाश निघंटु में भी है । यह विंध्याचल पर्वत श्रेणियों एवं मैदानी इलाकों में मिलती है । तेलगु में उसे अग्निशिखा कहा गया हैं। दीप जैसी लौ वाली । इसका उपयोग सुख प्रसव, गर्भ घातक एवं बिच्छु के काटने पर करते हैं । इससे वेदना कम होती है, अत: दर्दहरा है । विषय हर है । शरीर से किसी वस्तु को बाहर निकालने वाली है अर्थात् संकोचन का गणु उसमे हैं। वानस्पतिक नाम है ग्लोरिओसा सुर्पना । संधानकरणी या संधानी के बारे में यहां एक घटनाका जिक्र उपयोगी होगा जो मैंने बार-बार सुनी है । घटना कोई ६०-६५ वर्ष पुरानी है । बागली के रहवासी एस.आर. व्यास ने बताया था कि अक्टूबर महीने में एक आदिवासी गन्ना छील रहा था । अचानक दराते से उसकी उंगली इतनी कट गई कि लगभग लटक ही गई थी । बागली से देवास के रास्ते भर जो भी पत्तियां मिली उन्हें तोड़-तोड़ कर उंगली पर लगाता रहा । देवास आकर वह अस्पताल गया तब डॉक्टर ने उसे अपनी उंगली दिखाने को कहा पत्तियां हटाकर जब उंगली देखती तो वह लगभग जुड़ चुकी थी । इसी तरह धार में टेकरी के नीचे फौजी केम्प लगा था । वहां एक व्यक्ति को लकड़ी काटते हुए कुल्हाड़ी जांघ पर लग गई । घाव बहुत गहरा था । फौज वाले उसे तुरंत स्ट्रेचर पर लिटा कर नीचे अपने कंेप में लाए । उसी बीच उसके परिजन टेकरी से नीचे उतरते समय रास्ते भर तरह-तरह की पत्तियों खून बहना रोकने के लिए लगाते रहे । बताते हैं कि नीचे आने तक खून रिसना बंद होकर घाव भर चुका था । फौज के डॉक्टर आश्चर्यचकित रह गए । उस वनस्पति की खोज दो-तीन दिन तक अंग्रेज डॉक्टर ने करवाई पर उन्हें वह नहीं मिली । खून बहना रोकने के लिए इस क्षेत्र के आदिवासी आज भी घावभरणी नाम की वनस्पति का उपयोग करते हैं । बरसात में उगने वाली यह एक आम वनस्पति है । वैज्ञानिक इसे ट्रायडेक्स प्रोकम्बेन्स कहते हैं । इस वनस्पति का भी जिक्र भाव प्रकाश निघंटु में नहीं है । ये लोक वनस्पति विज्ञान की विरासत है । यही तो एथ्नों बॉटनी है । संजीवनी जैसी बूटियों की खोज आदिवासियों के बीच जाकर ही संभव है। उनके पास सदियों के अनुभव का अनमोल खज़ाना है । इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अच्छी तरह से खंगालना अभी बाकी है ।***

अदालतों में तीन करोड़ से अधिक मामले लंबित

देशभर में करीब तीन करोड़ मामले लंबित पड़े है जिनमें से निचली अदालतों में २.७ करोड़ उच्च् न्यायालयों में ४० लाख तथा उच्च्तम न्यायालय में ५३ हजार मामले लंबित हैं जबकि लंबित मामलों में उच्च्तम न्यायालय में १३९ प्रतिशत, उच्च् न्यायालय में ४६ प्रतिशत तथा निचली अदालतों में ३२ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने देश में लंबित मामलों तथा विलंब से न्याय मिलने की समस्या पर विचार करने के लिए बुलाए गए राष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए यह जानकारी दी । उन्होंने कहा कि यह वृद्धि जनवरी २००० के लंबित मामलों के मुकाबले दर्ज हुई है । उन्होंने कहा कि २००६ में देशभर की जेलों में बंद कैदियों में से ७० प्रतिशत विचाराधीन कैदी थे । इनमें से बहुत से कैदियों को जितनी सजा सुनाई गई थी वे उससे भी अधिक सजा काट चुके थे । मोइली ने कहा, हमें इस संख्या में कमी लानी होगी । हमें एक साल के भीतर मामलों की पहचान कर अगले छह महीनों में उन मामलों को निपटाना होगा और वीडियो कान्फ्रेंसिंग जैसे अन्य तरीके अपना कर निर्धारित लक्ष्य शीघ्र हासिल करना होगा ।

कोई टिप्पणी नहीं: