पेड़ नहीं घास बचाएगी रेगिस्तानीकरण से
सुश्री रूही कंधारी
हड़बड़ी में किया गया कार्य कभी-कभी अच्छी भावना से किए गए कार्य को भी संदेह के घेरे में ले आता है । राजस्थान में रेगिस्तानीकरण को रोकने के लिए पेड़ों की बागड़ का विचार भी ऐसा ही एक कदम है । आवश्यकता इस बात की है कि पारंपरिक ज्ञान का सहारा लेकर और भूजल आधारित खेती को समाप्त् कर रेगिस्तानीकरण रोकने की नई रणनीति बनाई जाए ।
भारत का विशाल रेगिस्तान थार फैलता ही जा रहा है और प्रतिवर्ष करीब १२००० हेक्टेयर उपयोगी भूमि को या तो निगल रहा है या उसे खराब कर रहा है । इससे सचेत होकर राजस्थान सरकार ने राज्य प्रदूषण निवारण बोर्ड से पूछा है कि भूमि को खराब होने और भू क्षरण से कैसे रोका जा सकता है । बोर्ड द्वारा सुखी धरती पर जलवायु परितर्वन से संबंधित २०० शोध पत्रों के अध्ययन के पश्चात् यह सुझाव दिया गया कि राज्य में व्यापक स्तर पर पेड़ों की बागड़ लगाई जाए । परंतु कुछ वैज्ञानिकों को डर है कि यह कदम रेगिस्तान के संवेदनशील पर्यावरण को और अधिक बिगाड़ेगा ।
आई.आई.टी खडगपुर एवं भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलुर के वैज्ञानिकों की सहायता से तैयार की गई समीक्षा रिपोर्ट में कहा गया है कि ये बागड़ें धूल के तूफान के वेग में अवरोध पैदा करेंगी, भूमि का क्षरण कम करेगी तथा रेत के टीलों के जगह बदलने को सीमित करेगी । सिंग का कहना है कि पेड कार्बन सिंक (संग्रहण) का भी कार्य करेंगे ।
बोर्ड की अनुशंसाएं उन शोध पत्रों पर आधारित हैं जिनमें बीकानेर से लेकर रामगढ़ तक का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि पौधारोपण के पश्चात् इस इलाके की जलवायु में सुधार आया है । सन् १९६० से वन विभाग ने यहां की सड़कों, रेल पटरियों और नहरों के किनारे ३६००० कि.मी. लम्बी बागड़ लगाई है । बोर्ड ने इस संदर्भ में चीन में गोबी रेगिस्तान को रोकने के लिएवन पट्टियों के रूप में बनाई गई चीन की हरी दीवार का भी अध्ययन किया है । इस परियोजना के अन्तर्गत सन् १९७८ से २००९ तक ५ करोड़ हेक्टेयर इलाके पर रोपण किया जा चुका है । समीक्षा सत्र में दावा किया गया है कि इसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र मेंधूल के तूफान आना कम हो गए हैं ।
राजस्थान स्थित स्कूल आफ डेजर्ट साइंस के एस.एम.महनोत का कहना है कि महान हरी दीवार (ग्रेट ग्रीन वाल) की तरह बागड़ लगाने की परियोजनाएं उचित नहीं हैं क्योेंकि इस तरह की परियोजनाआें में एक ही तरह के पेड़ (मोनोकल्चर) लगाए जाते हैं । जिससे उस इलाके के वनों की जैव विविधता कम हो जाती है तथा स्थानीय पौधे और पशु भी प्रभावित होते हैं । उनका कहना है कि यदि स्थानीय पौधों की प्रजातियां भी लगाई जाती हैं तो भी सूखी भूमि का नाजुक पर्यावरण इतने विशाल पैमान पर पौधों की वृद्धि को सहन ही नहीं कर सकता ।
श्री महनोत का कहना है चरागाह और वर्षा आधारित खेती के स्थान पर भूमि का उपयोग बोर वेल आधारित अधिक सिंचाई वाली कृषि भूमि में करने से भी रेगिस्तानीकरण बढ़ा है । कृषि का विकास तो होना चाहिए लेकिन उन्हीं फसलों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जिनमें पानी की खपत कम हो । श्री महनोत का मानना है कि रेगिस्तानीकरण को रोकने के लिए रेगिस्तान के पारंपरिक ज्ञान को महत्व दिया जाना चाहिए । इन संबंध में सुझाव देते हुए उन्होंने इंगित किया कि अधोसंरचना विकास और खनन राजस्थरान मेंं भूमि के हास के दो प्रमुख कारण हैं।
थार रेगिस्थान स्थित रेत के टीलों का पिछले ३० वर्षोंा से अध्ययन कर रहे आर.एस. मेढ़तिया भी इस बात से सहमत हैं । अपने सहयोगी प्रियब्राटा सांट्रा के साथ मिलकर उन्होंने राजस्थान स्थित केन्द्रीय सूखी भूमि क्षेत्र
शोध संस्थान (सेंट्रल आरिड जोन रिसर्च इंस्टिट्यूट) के माध्यम से राजस्थान के दो प्रमुख चरागाहों, जैसलमेर और चंदन का अध्ययन किया है । गर्मियों के चार महिनों में जैसलमेर मेंें अत्यधिक चराई से और चंदन जहां पर न्यूनतम चराई होती है के मुकाबले चार गुना अधिक भूमि का नुकसान हुआ । शोधकर्ताआें ने १३ मई के इलोलिअन रिसर्च के आनलाइन संस्करण में बताया है कि भारत के थार मरूस्थल का ८० प्रतिशत हिस्सा चरागाह है । नियंत्रित चराई के माध्यम से इन्हें सुरक्षित कर धूल के तूफानों से होने वाला भूमि हास और मिट्टी का क्षरण रोका जा सकता है । मेढ़तिया और सांट्रा ने यह सुझाव दिया है कि घास की पारंपरिक किस्म सीवान का क्षेत्र बढ़ाने से भूमि को क्षरण से रोका जा सकता है ओर इससे जानवरों को चारा भी उपलब्ध हो जाएगा ।
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