टेस्ट ट्यूब बेबी के प्रणेता को नोबल पुरस्कार
फिजियोलाजिस्ट डॉ.राबर्ट एडबर्ड्स को इस वर्ष चिकित्सा क्षेत्र के नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया है । उनके अध्ययन से ही दुनिया में पहली टेस्ट ट्युब बेबी (परखनली शिशु) का जन्म संभव हुआ था ।
नोबेल पुस्कार प्रदान करने वाले स्वीडन के कैरोलिन्सका इंस्टीट्यूट ने स्टाकहोम में यह जानकारी दी । डॉ.एडवर्ड्स को एक करोड़ स्वीडिश क्रोन (१५ लाख डालर) की राशि प्रदान की जाएगी ।
संस्थान की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि डॉ.एडवर्ड्स की उपलब्धियों के कारण प्रजनन अक्षमता का इलाज संभव हुआ । दुनिया के १० फीसद से ज्यादा दंपति इस अक्षमता से पीड़ित है ।
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे पचासी वर्षीय डॉ.एडवर्ड्स १९५० के दशक में आईवीएफ तकनीक पर शोध कार्य शुरू किया था । उन्होंने अंडाणु कोशिकाआें को शरीर से बाहर निषेचित कर गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर शिशु जन्म कराने में सफलता पाई थी । इस काम में प्रसूति सर्जन पैट्रिक स्टेपटोए ने सहयोग किया था ।
दुनिया की सबसे पहली परखनली शिशु लुईस ब्राउन का जन्म ब्रिटेन में २५ जुलाई, १९७८ को हुआ था । इस समय ३२ वर्षीय ब्राउन ब्रिस्टाल में डाक विभाग में कार्यरत हैं और उन्होंने वर्ष २००७ में एक लड़के को भी जन्म दिया । दुनिया में अब तक करीब चालीस लाख परखनली शिशु का जन्म हो चुका है ।
प्रदूषण दूर करेगा सुजल चूर्ण
एमिटी विश्वविद्यालय नोएडा के प्रोफेसर आरएन दुबे ने वनस्पतियों के अर्क और रासायनिक पदार्थोंा के मिश्रण से एक ऐसा पदार्थ विकसित किया है, जो नालों एवं तालाबों में बढ़ते प्रदूषण को नियंत्रित करने में कारगर साबित होगा ।
प्रो.दुबे ने बताया कि इसका नाम सुजल तकनीक रखा है और यह पूर्णतया वैदिक चिंतन पर आधारित है । नदियों के संगम को निर्मल रखने के लिए हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों और व्यवस्थाकारों ने काशी में तालाबों व कुड़ों का विधिवत निर्माण किया था ताकि गंगा सहित अन्य नदियाँ प्रदूषित न हों । लेकिन कालांतर में स्थिति बिलकुल बदल गई है । अब तो गंगा के साथ ही साथ तालाब एवं कुंड प्रदूषित हो गए हैं उनका पानी न ही नहाने और न ही आचमन के लायक बचा है । मुख्य रूप से घरेलु मल-जल एवं औद्योगिक कचरे से नदियोंका जल प्रदूषित होता है ।
प्रो.दुबे ने बताया कि जगह-जगह बहने वाले नालों को बंदकर सुजल चूर्ण का छिड़काव कर प्रदूषण को आसानी से दूर किया जा सकता है । सुजल चूर्ण बहुत ही सस्ता है । इस विधि द्वारा शोधित जल कृषि कार्य के लिए सामान्य जल की तरह उपयोग मेंलाया जा सकता है । इसके इस्तेमाल से पानी पीने योग्य भी बनाया जा सकता है लेकिन अभी इस पर अनुसंधान चल रहा है ।
विलुिप्त् की कगार पर है गौरैया
गौरैया देश की लुप्त् होती पक्षी बनती जा रही है । फुर्तीली और चहलकदमी करने वाली गौरैया को हमेशा शरदकालीन फसलों के दौरान खेत-खलिहानों में अनेक छोटे-छोटे पक्षियों के साथ फुदकते देखा जाता रहा है, लेकिन सर्वपरिचित, सर्वव्यापी गौरेया पूरे विश्व मेंतेजी से दुर्लभ होती जा रही है । वैज्ञानिकों की मानें तो गौरैया के लुप्त् होने के विभिन्न कारण हैं, मसलन सीसारहित पेट्रोल का उपयोग जिसके जलने पर मिथाइल नाइट्रेट नामक यौगिक तैयार होता है । यह यौगिक छोटे जंतुआें के लिए काफी जहरीला है ।
इसके अलावा खर-पतवार की कमी या गौरैया को खुला आमंत्रण देने वाले ऐसे खुले वानों की कमी, जहां वे अपने घोंसले बनाया करती थी, के कारण भी वे लुप्त् हो रही हैं । आधुनिक युग के पक्के मकान, लुप्त् होते बाग-बगीचे खेतोंमें कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग तथा भोज्य-पदार्थोंा की उपलब्धता में कमी प्रमुख कारक हैं, जो इनकी घटती आबादी के लिए जिम्मेवार हैं । गौरैया फसलों को नुकसानप पहुँचाने वाले कीटों को समाप्त् करने में सहायक होती है । गौरैया एक बुद्धिमान चिड़िया है, जिसने घोंसला स्थल, भोजन तथा आश्रय परिस्थितियों में अपने को उनके अनुकूल बनाया है । इन्हीं विशेषताआें के कारण विश्व में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली वह चहचहाती चिड़िया बन गई । बसंत के मौसम मे फूलोंकी प्रजातियाँ घरेलु गौरैया को ज्यादा आकर्षित करती हैं ।
गौरैया देश में अनेक नामों से लोकप्रिय है । गुजरात में चकली, मराठी में चिमानी, पंजाबी में चिड़ी, जम्मू तथा कश्मीर में चेर, तमिलनाडु तथा केरल में कूरूवी, तेलगु में पिच्च्ूका, कन्नड़ में गुब्बाच्ची, पश्चिम बंगाल में चराई पाखी तथा उड़िसा में घरचटिया कहते हैं जबकी उर्दू भाषा में इसे चिड़िया तथा सिन्धी भाषा में इसे झिरकी कहा जाता है ।
गौरैया का प्रमुख आहार जमीनपर बिखरे अनाज के दाने हैं । अगर अनाज उपलब्ध न हो तो कीटों को भी खा लेती है और घरों से बाहर फेंके गए, कूड़े -करकट मे भी अपना आहार ढूँढ लेती है । इनके घोंसले भवनों की सुराखों या चट्टानों, घर या नदी के किनारे, समुद्र तट या झाड़ियों या प्रवेशद्वारों जैसे विभिन्न स्थानों पर होते हैं ।
इनके घोंसले घांस के तिनकों से बने होते हैं और इनमें पंख भरे होते हैं । इनके अंडे अलग-अलग आकार और रंग के होते हैं। अंडे को मादा गौरैया सेती है । गौरैया की अंडा सेने की अवधि १०-१२ दिनों की होती है जो सभी चिड़ियों की अंडे सेने की अवधि से सबसे छोटी है ।
विलुिप्त् के कगार पर पहुँचीगौरैया आज झाड़ियों में उछलना और घर के बाहर अब उसका चहचहाना किसी को शायद ही दिखाई पड़ता हो । कहीं ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ियाँ गौरैया को सिर्फ चित्रों में देखें । इसके लिये इसको बचाने के प्रयास तेज करने होंगे ।
कैसे नष्ट हो सकती है गाजर घांस
देश भर में समस्या बन गई गाजरघास नष्ट करने के लिए राउंटअप नामक एक केमिकल है । इसे डालने से इसका प्रभाव नष्ट किया जा सकता है । हालाँकि इसमें कुछ खामियाँ हैं, लेकिन गाजरघास को खाने वाला एक कीड़ा भी आता है । साथ ही गाजरघास से खाद भी बनाई जा सकती है ।
यह बात कृषि वैज्ञानिक दिलीप सूर्यवंशी ने कही । उन्होंने बताया कि केमिकल डालने के लिए सिर्फ उसी जगह का उपयोग किया जाता है, जहाँ सड़क किनारे गाजरघास उगी हो । यदि इसका प्रयोग खेतों में किया गया तो यह गाजरघास के साथ फसल भी नष्ट कर देगा क्योंकि यह केमिकल फसलों के लिए भी हानिकारक है ।
श्री सूर्यवंशी ने बताया कि भारतीय खरपतवार अनुसंधान केन्द्र जबलपुर ने एक जैविक उपाय भी खोज निकाला है । इसके तहत गाजरघास को खाने वाला एक कीड़ा आता है, जिसे बड़ी संख्या में खेतों में छोड़ दिया जाए तो गाजरघास खत्म हो सकती है । यह कीड़ा केवल गाजरघास ही खाता है ।
गाजरघास का उपयोग खाद बनाने में भी किया जा सकता है । इसे सावधानी से उखाड़कर खेत से दूर एक ग े में डाला जाना चाहिए । इसमें मिट्टी व पानी आदि डालकर उसे जैविक खाद के रूप में विकसित किया जा सकता है ।
श्री सूर्यवंशी ने बताया कि गाजरघास के पौधों में फूल आने से पहले ही उन्हें नष्ट करना जरूरी हैं । यदि फूल आ गए तो इसका प्रभाव बढ़ जाएगा और यह मानव स्वास्थ्य सहित फसलों के लिए बेहद हानिकारक हो जाएगी । इसका बीज बहुत ही हल्का होता है और यह हजारों मीलों तक हवा में उड़कर पहुँच सकता है । साथ ही पानी मे बहकर भी इसके बीज दूर तक फैल सकते हैं । वर्तमान में यह समस्या पूरे विश्व में है ।
अब कचरे पर है सबकी नजर
गाँवों और शहरों की गलियों में घूमने वाले कबाड़ियों का आजकल ग्लोबल बिजनेस हो गया है और कचरे को रीसायक्लिंग करने का काम तेजी से बढ़ रहा है । इलेक्ट्रो कचरे की तो बात ही कुछ और है क्योंकि इसके मुकाबले और कोई कचरा कीमती नहींहोता ।
योरप में कचरा रीसायक्लिंग करने वाली सबसे बड़ी कंपनी रेमोडिस के प्रवक्ता मिशाएल श्नाइडर का कहना है कि हर मोबाइल फोन मेंऔसतन २३मिलीग्राम सोना होता है । उनकी इस बात से स्पष्ट होता है कि आखिर कचरे को लेकर इतना मोह क्यों उपजा ! दुनियाभर में हर साल करीब १.३ अरब मोबाइल फोन बनते हैं और इनमें से सिर्फ १० फीसद मोबाइल रिसायक्लिंग के लिए आते हैं । इसका मतलब है कि हर साल कम से कम बीस-बाईस टन सोना लोग कचरे मे फैंक देते हैं ।
सोने के बारे में तो सब जानते हैं कि यह एक मूल्यवान धातु है । लेकिन ऐसी भी कई धातुएँ हैं जो दुनिया में बहुत कम हैं और तेजी से खत्म हो रही हैं । उदाहरण के लिए इंडियम जो टच स्क्रीन बनाने के लिए सबसे अहम पदार्थ हैं । जानकार कहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा अगले दस साल में इंडियम दुनिया से खत्म हो जाएगा । अब जब टच स्क्रीन के टीवी, मोबाइल कम्प्यूटर सब कुछ बाजार में है तो सोचा जा सकता है कि इस पदार्थ की भविष्य में कितनी जरूरत होगी । दुनिया की आबादी जिस तेजी से बढ़ रही है, उतनी तेजी से कचरा और कचरे का व्यापार भी बढ़ रहा
है ।
जर्मनी के रीसायक्लिंग संगठन के योर्ग लाखर कहते हैंकि खनिज खत्म होने वाले पदार्थ हैं । ये खनिज पदार्थोंा की बढ़ती कीमत से भी समझ में आता है । कीमत बढ़ने का कारण माँग में बढ़ोतरी है । इस माँग के बढ़ने का कारण विकासशील देशों में तेजी से हो रहा विकास है । इस कारण रिसायक्लिंग से बनने वाले उत्पादों की माँग धीरे-धीरे बढ़ेगी ।
जर्मनी में भी कचरे का धंधा एक बड़ा कारोबार हो गया है । पानी, प्लास्टिक, काँच, धातुएँ सभी की रिसायक्लिंग यहाँ होती है । शुरू में जब जर्मनी ने कचरा अलग-अलग करने के लिए अलग-अलग रंग की थैलियाँ बनाई तो उसकी हँसी उड़ाई गई थी । लेकिन अब धीरे-धीरे पूरे योरप में इसका इस्तेमाल किया जा रहा है । श्नाइडर बताते हैं कि इस कचरे के तहत अलग-अलग उत्पाद हैं ।
रिमोंडिस योरप की सबसे बड़ी कंपनी है जो रीसायक्लिंग के क्षेत्र में हैं और लिपनवर्क का इसका रीसायक्लिंग कारखाना योरप का सबसे बड़ा और आधुनिक है । इससे पर्यावरण को भी फायदा है । विकासशील देशों को गैरकानूनी तरीके सेनिर्यात होने वाले इलेक्ट्रो कचरे को यही रीसायकल किया जा सकता है । जानकारोंका मानना है कि अगले बीस साल में कुछ धातुआें की माँग तिगनी हो जाएगी । लीथियम, इंडियम, जर्मेनियम की माँग बढ़ जाएगी, क्योंकि हाईटेक तकनीक के लिए इनकी जरूरत है । दूसरा कचरे की रीसायक्लिंग से पर्यावरण को भी नुकसान कम होगा ।
कंपनी के एक प्लांट मेंबायोडीजल भी बनाया जाता है । प्लास्टिक के कचरा भी यहाँरीसायकल किया जाता है । इसके अलावा एक और कारखाना है जहाँ पुरानी लकड़ियाँ जलाई जाती है । ये लकड़ियाँ इस तरह से जलाई जाती है कि कार्बन डाईऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों का उत्सर्जन नहीं होता ।
जानकारों का कहना है कि ताँबा तीस साल में खत्म हो जाएगा तो कच्चा तेल अगले ६०-७० साल में खत्म होने की आशंका है । कबाड़ और कचरे की रीसायक्लिंग विकास की दौड़ में तेजी से भाग रहे हैं, प्राकृतिक संसाधनों के जरिए उनकी और बाकी ुदुनिया की जरूरतें तो पूरी की नहीं जा सकती है, इसलिए इस तरह की रीसायक्लिंग का भविष्य उज्जवल है ।
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें