मंगलवार, 30 नवंबर 2010

९ ज्ञान विज्ञान

बंकर में बना बीज बैंक

किसान अपनी फसल का एक हिस्सा अपनी फसल के लिए बीज के तौर पर अलग रख देते हैं । आज यह चिंता सताने लगी है कि अगर युद्ध, प्राकृतिक विपदा या जलवायु परिवर्तन के कारण बीज की कोई नस्ल खत्म हो जाए, तब क्या होगा । ऐसी स्थिति से निपटने के लिए उत्तरी धु्रव से लगभग १५०० किलोमीटर दूर स्प्जिबैंर्गेन नाम के आर्कटिक द्वीप पर बर्फ के नीचे जमीन की गहराई में एक बंकर बनाया गया है । यहाँ बीजों की पाँच लाख से अधिक नस्लों को भविष्य के लिए सरक्षित रखा गया ।
सन् २००८ में यहाँ बीज रखने का काम शुरू किया गया था । नार्वे की सरकार और ग्लोबल क्रॉप डाइवर्सिटी ट्रस्ट नामक संस्था की ओर से संयुक्त रूप से इसे चलाया जाता है । वहाँ दो दरवाजे लगाए गए हैं । पहले दरवाजे से घुसकर उसे बंद कर दिया जाता है, फिर लगभग सौ मीटर लंबी सुरंग के बाद दूसरा दरवाजा खोला जाता है । यहाँ जाने के लिए शरीर को गरम रखने वाला थर्मो सूट पहनना पड़ता है । क्योंकि, तापमान शून्य से काफी नीचे होता है । दिवारों पर बर्फ जमी रहती है । इस दूसरे या मुख्य दरवाजे के पीछे बीजों का भंडार है ।
बीजोें के के भंडार को एक विशाल डीप फ्रीजर कहा जा सकता है । यहाँ बाहर से कोई गर्मी नहीं आने दी जाती । इसके पहले कक्षा में आर्कटिक क्षेत्र की तलना में तापमान कुछ अधिक है, शून्य से ५-६ डिग्री नीचे । जब अंदर का मुख्य हॉल भर जाएगा, तब यहाँ भी बीज रखे जाएँगे ।
स्वीडन के कृषि विश्वविद्यालय में प्लांट जेनेटिक्स के प्रो. रोलांड फॉन बोथमर का कहना है कि यहाँ डेनमार्क और नई दिल्ली से लाए गए बीजों के नमूने भी हैं, जिन्हें वैक्यूम पैक किया गया है । उन्हें सुखाकर नमी की मात्रा ५ से ६ प्रतिशत से नीचे लाई गई है । मुख्य हॉल मे तापमान शून्य से १७ डीग्री नीचे है, जहाँ बीजों को स्थायी रूप से रखा जाता है । महत्वपूर्ण यह है कि डुप्लीकेट के रूप में इन्हें सुरक्षित रखा जाए, ताकि असली बीज नष्ट हो जाने पर उनके मालिकों को इन्हें लौटाया जा सके । सारी दुनिया में इस सिलसिले मे समस्याएँ हो सकती हैं । प्रो.बोथमर की राय में ऐसी विपदाआें के बिना भी बीजों की नस्लें खत्म हो सकती हैं । वे कहते हैं कि दस हजार साल से प्राकृतिक चयन की इंसानी प्रक्रिया जारी है । हर जगह बीजों की ऐसी नई नस्लें विकसित हो रही हैं, जो स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल हो । जब किसान आधुनिक ढंग से खेती करना चाहते हैं, तो बीजों की पंरपरागत नस्लें अक्सर धीरे-धीरे खत्म हो जाती हैं । जलवायु परिवर्तन के कारण भी यह आवश्यक हो गया है, कि बीजों की नस्लों की बहुतायत बनाए रखी जाए ।

पूर्णिमा के दिन ज्यादा आते हैं भूकम्प भूकम्प वैज्ञानिकों का मानना है कि जैसे-जैसे चाँद पृथ्वी के नजदीक आएगा या फिर पूर्णिमा होगी, भूकम्प की घटनाएँ
बढ़ेंगी । भाभा परमाणु शोध केन्द्र (बीएआरसी) के वैज्ञानिकों ने यह खुलासा किया है ।
बीआरएसी का कहना है कि बड़े भूकम्प तब ज्यादा आए हैं, जब पूर्णिमा या प्रतिपदा पर चंद्रमा पृथ्वी के नजदीक हो ( यानी पेरीगी की स्थिति हो) जबकि जब चंद्रमा पृथ्वी से अधिकतम दूरी पर हो (अपोगी) तो ऐसी स्थिति नहीं होती । चंद्रमा पृथ्वी के नजदीक हो और पूर्णिमा हो तो रिक्टर पैमाने पर ६.० की तीव्रता वोल भूकम्प आते हैं । बीएआरसी वैज्ञानिक विनायकजी कोलवन्कर ने यह खुलासा किया है । वे वरिष्ठ भूकम्प विज्ञानी हैं । उनके शोध-पत्र न्यू कंसेप्ट इन ग्लोबल टेक्टानिक्स न्यूजलैटर और जर्नल ऑफ इंडियन जियोफिजिक्स यूनियन में प्रकाशित हुए हैं । यह भी बताया है कि पूरी दुनिया मंे अधिकांश भूकम्प स्थानीय समय के अनुसार रात के समय ही आए हैं । दिन में कम ही
आए । दोपहर ३ से ४ के बीच बहुत कम भूकम्प आए, लेकिन मध्यरात्रि मे अधिकांश आए
हैं । समय, मौसम, रेखांश और गहराई के लिहाज से भी इस तथ्य में कोई खास अंतर नहीं आता है । दिन के समय भूकम्प के न आने की वजह भूमध्य रेखा से इसकेे अक्षांश के हिसाब से होती है । कई वैज्ञानिकों ने भूकम्प के ३६ साल के आँकड़ों का अध्ययन करने के बाद यह नतीजा निकाला है । चाँद पृथ्वी के सबसे नजदीक है । यह पृथ्वी पर सबसे ज्यादा गुरूत्वाकर्षण बल पैदा करता है । चाँद पर होने वाले कम्पन के लिए भी पृथ्वी की स्थिति ही कारण होती है । विशेष रूप से तब जय चाँद पृथ्वी के बेहद करीब हो । फिर भी भूकम्प के आने मेंचाँद की भूमिका का पूरी तरह से खुलासा नहीं हुआ ।
पूर्णिमा से प्रतिपदा तक आते हुए भूकम्पों की संख्या घटती जाती है । एक पखवाड़े में यह स्थिति बदलती है व भूकम्पों की संख्या में ५ से ६ प्रतिशत इजाफा हुआ है । इसकी तीव्रता रिक्टर स्केल पर ६ तक आँकी है । भूकम्प अपोगी-पेरीगी-अपोगी के चक्र के संबंध रखते हैं । अपोगी से पेरीगी की स्थिति बनते हुए भूकम्पों की संख्या बढ़ती है । सन् १९७३ से लेकर १९८५ और १९९६ से लेकर २००८ तक यहीं देखने में आया है ।

वैज्ञानिकों ने बनाया मानव लीवर वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में मानव लीवर विकसित कर महत्वपूर्ण सफलता हासिल की है । इसे मानव अंग प्रत्यारोपण की दिशा में एक बड़ा कदम बताया जा रहा है । शोध कार्य से जुड़े वैज्ञानिकों का दावा है कि प्रायोगिक रूप से विकसित इस लीवर का आकार अखरोट के बराबर है और इसे आगे चलकर प्रत्यारोपण के लिए लीवर तैयार किए जा सकते हैं । अमेरिका के नार्थ कै रोलिना स्थित वैक फॉरेस्ट इंस्टिटयूट फॉर रीजेनेरेटिव मेडिसिन मे वैज्ञानिकों के एक अंतर्राष्ट्रीय दल ने मानव काशिकाआें को पशुआें के लीवर के खोल में प्रत्यारोपित कर नन्हें मानव लीवर तैयार किए हैं । प्रयोग के दौरान वैज्ञानिकों ने अविकसित मानव लीवर कोश्किा को एक बायो लीवर सामान्य मानव अंग की तरह विकसित होकर काम करने लगा । कृत्रिम रूप से विकसित लीवर को दवाआें के परीक्षण या फिर मरीजों में प्रत्यारोपण के लिए उपयोग किया जा सकेगा । दल के सदस्य डॉ. पैड्रो बैपटिस्टा ने कहा कि हम उम्मीद करते हैंकि एक बार इस अंग को प्रत्यारोपित करने के बाद यह शरीर मेंही विकसित होकर काम करने लगेगा ।
इस शोध को बोस्टन स्थित अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द स्टडी ऑफ लीवर डिजीजेज की सालाना बैठक में प्रस्तुत किया गया । हॉलाकि इन लीवर को प्रयोगशाला से अस्पतालों तक पहुंचने में पांच साल से ज्यादा समय लग सकता है । परियोजना के निदेशक प्रोफेसर शॉय सोकेर ने कहा कि भविष्य मे ऑर्डर करने पर यह साथ लाखों लीवर तैयार कर सकते हैं, लेकिन उससे पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि यह अंग मरीजों के लिए सुरक्षित साबित हो ।
गौरतरलब है कि इस साल के आरंभ में अमेरिकी वैज्ञानिकों ने चूहे का लीवर विकसित करने मे सफलता पाई थी । इसे
प्रत्यारोपित करने के बाद चूहा कई घंटे तक जिंदा रहा । भविष्य में मरीज की स्टेम कोशिका से भी लीवर को विकसित किया जा सकेगा । इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि इस अंग को शरीर को प्रतिरक्षा तंत्र स्वीकार नहीं कर पाएगा, जो अबतक सबसे बड़ी समस्या थी । इसे हेपेटाइटिस सी से क्षतिग्रस्त लीवर प्रत्यारोपण आसानी से किया जा सकेगा ।
एक अनुमान के मुताबिक ब्रिटेन में हर साल १६ हजार से अधिक लोगों की मौत लीवर में खराबी के कारण हो जाती है । यह आंकड़ा डायबिटीज और सड़क दुर्घटना में मारे गए लोगों से अधिक है । वैज्ञानिकों का कहना है कि लीवर के कारण मरने वालोें की संख्या लगातार बढ़ रही है और वर्ष २००५ से इस संख्या में १२ प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हुई
है । लीवर ट्रांसप्लांट कराने वालों की प्रतीक्षा सूची काफी लंबी जाती जा रही है ।
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