झारखंड : लौहा नहीं अनाज चाहिए
कुमार कृष्णन
झारखंड की राजनीतिक अस्थिरता के पीछे की परिस्थितियों को समझने के लिए बहुत जटिल मनन की आवश्यकता नहीं है । प्रत्येक मुख्यमंत्री के कार्यकाल में हस्ताक्षरित एम.ओ.यू. और मधु कौड़ा के राज में हुआ भ्रष्टाचार सब कुछ आसानी से समझा देता है । आदिवासियोंके नाम पर गठित इस राज्य में आदिवासियों की बेदखली निर्बाध जारी है ।
औद्योगिकीकरण की एक नई आंधी जिसे विकास और गरीबी निवारण की ओट में थोपने की कोशिश की जा रही है अब झारखंड की एक बड़ी आबादी को विस्थापित करने की चेतावनी दे रही है । ये सारे इलाके जिनकी पहचान खनन, धातुशोधन बांध और ऊर्जा संयंत्र हेतु आदर्श जगहों के रूप में बन रही है वस्तुत: आदिवासियों के रिहायशी स्थल हैं । देश में औद्योगिकरण की वजह से तकरीबन ६ करोड़ लोग पहले ही विस्थापित हो चुके
हैं । इसी ब्रिटिशकालीन जनविरोधी कानून के गर्भ से विस्थापन का जन्म हुआ । ऐतिहासिक तथ्यों से स्पष्ट होता है कि भू-अर्जन अधिनियम १८९४ के माध्यम से झारखंड के किसानों की खूंट कटी एवं कोडकर-भूमि पर कब्जा कायम किया गया । इस भूमि का मूल मकसद था झारखंड में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विस्तार करने के लिए अर्जित भूमि का इस्तेमाल
करना ।
इसी भूमि लूट के विरोध में १८९५ में बिरसा मुंडा का उलगुलान आरंभ हुआ । बिरसा का यह उलगुलान कोल विद्रोह (१८३१), भूमिज विद्रोह (१८३२) एवं मुल्की विद्रोह (१८५७) से ज्यादा उग्र था, क्योंकि इस उलगुलान में भूमि लूट से क्षति का सवाल, स्वशासन की वापसी का सवाल एवं अस्मिता की क्षति का सवाल एक साथ जुड़े थे । इस उलगुलान का एक नारा था-हमारी जमीन, जल एवं जंगल हमारे सिंगबोंगा की देन है । हमने अपना खून-पसीना बहाकर जंगल और झाड़ी काटकर भूमि को खेती योग्य बनाया है । अत: हम जान देंगे पर जमीन नहीं देंगे ।
आजादी के बाद विकास ने लाखों झारखंड वासियों को विनाश और बर्बादी के गर्त में धकेल दिया । इस विकास के क्रम में हटिया परियोजना, बोकारो परियोजना, डीबीसी, कोनाल बांध तिलैया बांध, टाटा टिस्को कारखाने के नाम ३२ लाख झारखंडियों
को घर से बेघर बना दिया और उन्हें दाई धांगर एवं रेजा-कुली बनना पड़ा । इन सरकारी और गैर सरकारी विकास परियाजनाआें में ५ फीसदी से भी कम विस्थापितों के लिए अभिशाप बन गया । झारखंड की आर्थिक सामाजिक व्यवस्था में आदिवासी मूलनिवासियों के पास इतनी जमीन हुआ करती थी कि वह घर आंगन और बाड़ी बना सके । औद्योगिकरण के इस दौर में झारखंड की सामाजिक आर्थिक व्यवस्था की इस विशेषता को खत्म कर दिया गया ।
आदिवासी जमीन के गैरकानूनी हस्तांतरण रोकने के लिए बिहार शेड्युल एरिया रेग्यूलेशन एक्ट १९६९ बनाया गया । इसके तहत इन मामलों की सुनवाई के लिए विशेष न्यायालय की व्यवस्था की गई तथा उपायुक्तों को विशेष अधिकार दिये गये । इसका आलम यह रहा कि वर्ष २००१-०२ तक ८५७७७.२ एकड़ जमीन से संबंधित ६०४६४ मामले दर्ज किये गये । इनमें ४६७९६.३६ एकड़ से संबंधित ३४६०८ मामलों की सुनवाई की गयी तथा शेष ३८९७९.८६ एकड़ से संंबंधित २५८५६ मामले खारिज कर दिये गये । न्यायालय में सुनवाई किये गये मामलों में सिर्फ २१४४५ मामलों में कुल २९८२९.०७ एकड़ जमीन पर रैयतों को कब्जा दिलाया गया और शेष जमीन पर गैरआदिवासियों का कब्जा बरकरार रहा । भू-हस्तांतरण का पेचीदा खेल यहीं खत्म नहीं होता है । स्पेशल एरिया रेग्यूलेशन न्यायालय में आदिवासी जमीन के गैरकानूनी हस्तांतरण के मामलों में लगातार इजाफा होता जा रहा है ।
ग्रामीण विकास मंत्रालय के प्रतिवेदन के मुताबिक देश में आदिवासी भूमि हस्तांतरण के मामले में झारखंड सबसे आगे हैं । राज्य में आदिवासी भूमि हस्तांतरण के १,०४,८९३ एकड़ जमीन से संबंधित मामले दर्ज किये गये हैं । दूसरी तरफ विकास परियाजनाआें की बात की जाय तो १९५१ से लेकर अब तक १५,४६,७४४ एकड़ जमीन का अधिग्रहण बाघ, उद्योग, खनन कार्योंा एवं विकास परियाजनाआें के लिए किया गया । इसमें ३,४८,६२८ एकड़ सामान्य जमीन ८,५२,०३३ एकड़ जमीन एवं ३,४५०८३ एकड़ वन भूमि शामिल है ।
यहां पैसा कानून भी कारगर साबित नहीं हो सका । सूबे के प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने राज्य में औद्योगिकरण का रास्ता बनाते समय छोटा नागपुर एवं संथाल परगना काश्तकारी कानूनों पर हमला बोला । वहीं
राज्य के दूसरे मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने पूरे झारखंड का ही सौदा कर डाला । कानून के रखवालों ने कॉरपोरेट विकास के मॉडल को जारी रखते हुए आदिवासी भूमि रक्षा कानूनों का भरपूर दुरूपयोग किया । झारखंड में सौ सालसे राज कर रहे टाटा औद्योगिक घराने को फिर से सस्ते दामों में अधिसूचित क्षेत्र की जमीन दे दी गई । नवीनतम लीज के मुताबिक टाटा स्टील को जमशेदपुर में २८ रूपये से लेकर ४०० रूपये प्रति एकड़ की दर से ६४ वर्ग किलोमीटर जमीन अगले ३० वर्षोंा के लिए दे दी गई है ।
झारखंड सरकार ने अब तक १०५ कंपनियों के साथ एमओयू किया है । इससे आदिवासियों का भविष्य खतरे में है । इन उद्योगों की स्थापना के लिए बड़े पैमाने पर जमीन चाहिए । ये एमओयू स्टील, सीमेंट, अल्यूमिनियम आदि क्षेत्रों में हस्ताक्षरित किये गये हैं । एक मोटे अनुमान के अनुसार इस हेतु १०,५०,००० एकड़ जमीन की आवश्यकता होगी । इसके अलावा इससे १५ लाख लोगों को विस्थापित होना होगा । ये कंपनियां नौकरी, मुआवजा और सामाजिक सरोकार के कार्यक्रम के तहत भविष्य संवारने की बात कह रही है लेकिन इनके दावोंमें कोई दम नहीं है ।
जाने-माने अर्थशास्त्री प्रो.अरूण कुमार के मुताबिक टाटा स्टील का उत्पादन
करती थी तब वहां ७० हजार लोग काम करते थे । स्टील उत्पादन में सात गुणा इजाफा हुआ लेकिन २० हजार लोगों को ही रोजगार
मिला । इस प्रकार एचईसी में प्रारंभ में २३ हजार लोग काम करते थे, वहां अब तीन हजार लोग ही काम करते हैं । जहां तक स्टील एवं अल्यूमिनियम उत्पादन का सवाल है तो इसमें सबसे ज्यादा बिजली और पानी की खपत होती है । साथ ही प्रदूषण भी अधिक होता है । लोग भी अब कहने लगे हैं लोहा नहीं अनाज चाहिए, खेती का विकास चाहिए ।
दरअसल में विस्थापन का मसला राष्ट्रव्यापी मसला बना है और पुनर्वास एवं पुर्नस्थापन नीति का प्रारूप भी तैयार किया गया है । विकास की प्रचलित अवधारणा पर लगातार बहस की जा रही है लेकिन आदिवासी कैसा विकास चाहता है ऐसा मॉडल न तो तैयार किया गया है, न इस दिशा में प्रयास किये
गये ।
दरअसल में झारखंड में विकास करना है तो जमीन की अवधारणा को बदल कर कृषि को उद्योग का दर्जा दिया जाना चाहिए, छोटे उद्योग लगाये जाएं । पद्मश्री डॉ.रामदयाल मुडा का मानना है कि सूबे में औद्योगिकरण का जो रूप प्रकट हुआ है वह भयानक है । उनका कहना है, ऐसे उद्योग चाहिए जो जनहित में हो । ***
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