मंगलवार, 30 नवंबर 2010

जनजीवन

प्रगति की होड़ से उठता विप्लव
भारत डोगरा

प्रगति की आधुनिक परिभाषा ऐसी परिस्थिति का निर्माण कर रही है जिससे मानवता विध्वंस की ओर अग्रसर हो रही है । आवश्यकता इस बात की है कि प्रगति की वास्तविक परिभाषा, जिसके अंतर्गत मानवता को सहेज कर आगे बढ़ने की बात सोची गई है, को पुर्नस्थापित किया जाए ।
आज जहाँ एक ओर महानगरों की चमक-दमक बढ़ रही है व चंद लोगों के लिए भोग-विलास, आधुनिक सुख-सुविधाएं पराकाष्ठा पर पहुच रही है, वहां दूसरी ओर बड़ी संख्या में लोग साफ हवा, पेयजल व अन्य बुनियादी जरूरतों से वंचित हो रहे हैं । पशु-पक्षी, कीट-पतंगे व अन्य जीव जितने खतरों से घिरे हैं उतने (डायनासोरों के लुप्त् होने जैसे प्रलयकारी दौर को छोड़ दें तो) पहले कभी नहीं देखे गए । इस स्थिति में यह जानना बहुत जरूरी है कि प्रगति क्या है और विकास क्या
है ? इस पर गहराई से विचार किया जाए और उसके बाद ही सही दिशा तलाश कर आगे बढ़ा जाए ।
उदाहरण के लिए १०० वर्ग किमी. के महानगरीय चमकदार क्षेत्रों के बारे में यदि हम जान सकें कि आज से लगभग १०००० वर्ष पहले वहां की स्थिति कैसी थी तो हम तब और अब की स्थिति की तुलना कर सकते हैं । अधिक संभावना यही है कि हमें पता चलेगा कि आज से दस हजार वर्ष पहले यह क्षेत्र मुख्य रूप से एक वन-क्षेत्र था । तब यहां एक हजार के आसपास मनुष्य रहते होंगे, जो तरह-तरह के कंद-मूल, फल आदि एकत्रित कर व शिकार कर अपना पेट भरते थे ं आज यहां एक हजार के स्थान पर संभवत: बीस लाख लोग रह रहे हैं । पर शेष सभी जीवोंकी संख्या बहुत कम हो गई हैं । पहले यहां के वन-क्षेत्रोंेंं जितने जीव भरे रहते थे, उनकी संख्या संवत: करोड़ों में थी जो अब बहुत ही सिमट गई है । पहले इन सभी जीवों को साफ हवा-पानी, रहने के अनुकूल स्थितियां उपलब्ध थीं पर अब जो थोड़े से जीव बचे हैं उनके लिए भी प्रदूषण की
अधिकता व हरियाली की कमी बड़ी समस्या बन गई हेैं । वृक्षों की संख्या व विविधता में बहुत ही कमी आई है ।
मनुष्यों की संख्या जहां बहुत बढ़ गई है, वहीं दूसरी और उनके बीच विषमता और भी अधिक बढ़ गई है । उनमें से अनेक बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं हो पाती हैं । अनेक लोग तरह-तरह के दुख दर्द से त्रस्त
हैं। आपसी संबंध अच्छे नहीं हैं । पारिवारिक संबंधों तक में टूटन व अन्याय है । जो थोड़े से लोग बहुत वैभव की जिंदगी जी रहे हैं, उनका जीवन दूसरों से छीना-छपटी व अन्याय पर आधारित है । इतना ही नहीं सीमित संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर व ग्रीनहाऊस गैसों का अत्यधिक उत्सर्जन कर यह थोड़े से लोगों की जीवन-शैली भावी पीढ़ियों को खतरे में भी डाल रही है ।
इस स्थिति में यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है कि यहां दस हजार वर्षोंा से जो बदलाव हुआ उसे प्रगति माना जाए कि नहीं ? बहुत से लोग कहेंगे कि यह निश्चय ही प्रगति है क्योंकि पहले जहां जंगल था वहां अब गगनचुंबी इमारते खड़ी हैं । बहुत से नए अविष्कार हो चुके हैं । कार, हवाई जहाज, टीवी, एयरकंडीशनर, सिनेमा सब मौजूद हैं । पर अधिकांश जीव-जंतु , पेड़-पौधे उजड़ चुके हैं या उजड़ रहे हैं । जिन्हें वैभव मिला है वे इसका उपयोग ऐसे कर रहें हैं जिससे भविष्य में हर तरह का जीवन ही संकट में पड़
जाएगा । अत: प्रगति न तो अधिकांश जीव-जन्तुआें की है, न पेड़-पौधों की है । अधिकांश मनुष्यों और साथ ही भावी पीढ़ियों का जीवन भी संकटग्रस्त हो गया है । तो इसे प्रगति कैसे माने ?
यदि मनुष्य अन्य जीवों, पेड़-पौधों भावी पीढ़ियों व अपने साथियों के प्रति अधिक संवेदनशील होता, तो फिर वह एक दूसरी तरह की दुनिया बना सकता था जिसमें सभी मनुष्य छोटे-छोटे घरों में रहते व सादगी की जीवन शैली से जीते पर अपने पास बहुत हरियाली को पनपने देते । इस हरियाली में सब तरह के जीव-जन्तुआें को शरण मिलती व भोजन मिलता । इससे हवा-पानी की बुनियादी जरूरतें सबके लिए ठीक से पूरी होने में मदद मिलती । सादगी का जीवन सब अपनाते तो विषमता, लालच, छीना-झपटी की बुराईयों से बचते । मनुष्य का जीवन समता व सद्भावना पर आधारित होता तो उसमें दुख-दर्द भी कम
होता ।
यह राह भी संभव है यदि मनुष्य अपनी बढ़ती संख्या के बावजूद अपनी क्षमताआें व सुबुद्धि के बल पर ऐसी दुनिया बनाए जिसमें वह अन्य जीवों को पनपने के लिए पर्याप्त् स्थान दे,अपने साथियों में खुशियां बांटे व भावी पीढ़ी की रक्षा सुनिश्चित करें । जब मनुष्य यह सच अपनाएगा तो इसे प्रगति कहा जाएगा, क्योंकि इसमें सभी मनुष्यों, सभी जीव-जन्तुआें व भावी पीढ़ियों की भलाई बढ़ रही है । इस तरह अभी तक के मानव इतिहास को प्रगति नहीं कहा जा सकता है । हालांकि इतिहास में कुछ वर्षोंा के लिए प्रगति अवश्य हुई जब तरह-तरह के सद्भाव, सादगी, सह-अस्तित्व व सबकी भलाई के संदेशों ने जोर पकड़ा । सही प्रगति की राह वह है जिसमें मनुष्य अपने साथियों से प्रगाढ़ सद्भावना के संबंध बनाकर सभी मनुष्यों, सभी जीवों, पेड़-पौधों व भावी पीढ़ियों की रक्षा के लिए सक्रिय होते हैं । प्रगति की इस सही राह को अपना कर ही धरती की व इसके विविधता भरे जीवन की रक्षा हो सक ती है ।
यदि हमने सब जीवों की भलाई पर आरंभ से ध्यान दिया होता, तो ऐसी सभ्यता विकसित होती जो हरियाली से घिरी रहती । इस सभ्यता में ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन की अधिकता से जुड़ा जलवायु बदलाव का संकट कभी उत्पन्न ही न होता । इस तरह सब जीवों की भलाई पर ध्यान देना हमारे अपने जीवन की रक्षा का सबसे बड़ा उपाय बन सकता था । अभी भी हम चाहें तो अपनी गलतियों को सुधार कर अपनी तथा अन्य जीवों दोनों की रक्षा कर सकते हैं ।
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