जैविक खेती और जैव उर्वरक
डॉ. वाई.पी. गुप्त
आजकल कुछ देश (यू.एस.ए., कनाड़ा, पौलेंड आदि) रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बिना उगाए गए जैविक खाद्य को बढ़ावा दे रहे हैं । ये उत्पाद पौष्टिक है । जैविक फल और सब्जियों में रासायनिक उर्वरकों से उगाई गई फल-सब्जियों की अपेक्षा ४० प्रतिशत ज्यादा एन्टी ऑक्सीडेन्टस होते है । इन उत्पादों को एक एजेन्सी से प्रमाणित कराने की आवश्यकता होती है । देश में हरित क्रांति के लिए खेती में इनपुट्स और ऊर्जा का अधिक उपयोग किया जाता है, जिसमेंउन्नत बीजों, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, सिंचाई, मशीनों आदि का उपयोग करना पड़ता है । परन्तु हरित क्रान्ति ने पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पैदा किया है । ये प्रभाव भूमि, पानी और जैव संसाधनों पर देखे जा सकते है । पानी के भराव और लवणीकरण के कारण भूमि उपजाऊ नहीं रही और फसल कटाई के बाद की हानियां भी काफी है ।
इसलिए भारत भी जैविक खेती को बढ़ावा दे रहा है । कई राज्यों में ३८ लाख हैक्टर भूमि पर ज्यादा कीमती फसलें (जैसे मसाले, फल, सब्जियां, दूध) पैदा की जा रही है और मुर्गी पालन किया जा रहा है । इन उत्पादों से २५-३० प्रतिशत ज्यादा कीमत मिलती है । पिछले एक वर्ष में भारत ने इन उत्पादों को यू.एस., जापान, यूरोपीय देशों आदि को निर्यात कर ७८० करोड़ डॉलर प्राप्त् किए हैं ।
जैविक खेती से पर्यावरण को कोई हानि नहीं होती है और यह भूमि का उपजाऊपन कायम रखती है । इनकी लागत कम होती है । इससे गरीब किसानों की आमदनी बढ़ने लगी है और ग्रामीण गरीबी कम होने की आशा है ।
पंजाब में जैविक खेती किसानों के लिए एक वरदान है, क्योंकि इससे उन्हें कर्ज लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती और घरेलू गोबर खाद का ही उपयोग होता है । केरल में उपजाऊ खेती के २० प्रतिशत भाग पर जैविक खेती हो रही है और जैव उर्वरकों को बढ़ावा दिया जा रहा है ।
आज खेती में नाइट्रोजन की खपत अधिक (लगभग १०० कि.ग्रा. प्रति हैक्टर) होती है । नाइट्रोजन की वर्तमान आवश्यकता कृत्रिम उर्वरकों से पूरी होती है । इनका उपयोग प्रति वर्ष बढ़ रहा है । इसका एक भाग आयात से पूरा किया जाता है । ये उर्वरक बहुत महंगे है । इनके उत्पादन में ऊर्जा भी अधिक लगती है । इसलिए ऊर्जा की तंगी के समय से इस बात पर ध्यान दिया गया है कि वायुमण्डल की नाइट्रोजन को जैविक तरीके से सीधे ही उपयोग किया जाए । फिलहाल अनेक प्रकार के १०,००० टन से ज्यादा जैव उर्वरकों का उपयोग हो रहा है ।
सामान्य उपयोग में आ रहे जैव उर्वरक राइजोबियम एजेटोबैक्टर प्रजातियां तथा नील-हरित शैवाल हैं । वैसे तो यह भूमि में प्राकृतिक तौर पर होती है । नील-हरित शैवाल सामान्यत: तालाबों और धान के खेतों में रूके हुए पानी की सतह पर उगती है । इनकी अच्छी किस्में अलग की जा रही हैं और इन्हें बड़ी मात्रा में व्यापारिक स्तर पर उगाया जा रहा है ताकि अनेक फसलों में उपयोग किया जा सके । एजोस्पारिलम आधारित उर्वरक भी आजकल उपयोग किए जा रहे हैं । इन्होने अच्छे परिणाम दिए हैं और इनकी अच्छी संभावनाएं है । इनके उपयोग से अनाज की पैदावार में बढ़ोतरी होती है और २०-४० कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टर की बचत होती है ।
सहजीवी नाइट्रोजन स्थिरीकरण पद्धति में जीवाश्म ईधन की बजाए प्रकाश-संश्लेषण से प्राप्त् ऊर्जा का उपयोग होता है । इस क्रम में वायुमण्डल की नाइट्रोजन अमोनिया में परिवर्तित की जाती है । इस कार्य में कुछ पौधों में उपस्थित जैविक उत्प्रेरक या प्राकृतिक तौर पर भूमि में पाए जाने वाले जीवाणु सहायता करते है ।
इस पद्धति में कुछ नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु (राइजोबियम प्रजातियां) दलहनी पौधों की जड़ों की गांठों में सहजीवी की तरह रहते हैं । गांठों में हीमोग्लोबिन प्रकार का रंजक लेजीमोग्लोबिन होता है जो ऑक्सीजन ग्रहण में सहायता करता है और नाइट्रोजनी क्रियाआें को बढ़ावा देता है। प्रक्रम की कार्यक्षमता और नाइट्रोजन स्थिरीकरण की मात्रा एंजाइम के संश्लेषण, नियंत्रण और नियमन पर निर्भर करती है । जैविक तंत्र में एंजाईम के नियमन करने वाले जीवों के जीन पहचाने जा चुके हैं । प्रयास किए जा रहे हैं कि ये जीन दलहीन फसलों में प्रवेश कर जाएं । गेहूं जैसी महत्वपूर्ण फसलों में यह सहसंबंध बढ़ाकर नाइट्रोजन स्थिरीकरण शुरू करवाने में संसार भर में दिलचस्पी ली जा रही है ।
इसमें कोई संदेह नही है कि जीन्स को पौधों की कोशिकाआें में स्थानान्तरित करके सहजीवी सहसम्बंध स्थापित करने की काफी संभावनाएं हैं । फिर भी कुछ जैविक बाधाएं हैं जो टेक्नॉलॉजी और इकॉलॉजी की दृष्टि से सीमाकारी हैं । इस कारण से एजेटोबैक्टर और राइजोबियम के दोहन में सीमित सफलता मिली है ।
जीवाश्म ईधन पर निर्भरता कम करने के लिए जैव उर्वरकों के उपयोग हेतु जैव नाइट्रोजन स्थिरीकरण की सफलता इन बाधाआें से निपटने पर निर्भर करती है । दलहनों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने में एक मुख्य बाधा ऊर्जा की उपलब्धता की है जो प्रकाश संश्लेषण की कार्यक्षमता पर निर्भर करती है । इसलिए नाइट्रोजन स्थिरीकरण को बढ़ाने के लिए प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया में बढ़ोतरी होना आवश्यक है । नाइट्रोजन स्थिरीकरण का भविष्य इस बात पर भी निर्भर करेगा कि पर्यावरण के कारक नाइट्रोजन का नियमन कैसे करते हैं ।
वेैसे कई मुक्त जीवाणु, जैसे एजोटोबैक्टर या क्लोस्ट्रीडिया, ऑक्सीजन की उपस्थिति या अनुपस्थिति में वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं । यह क्रिया जीवाणु की किस्म और उचित नमी, ताप, अम्लीयता, ऊर्जा स्त्रोत आदि पर निर्भर करती है । रोडोस्पाइरिलम, पर्पल सल्फर जीवाणु और ग्रीन सल्फर जीवाणु जैसे कुछ प्रकाश-संश्लेषक जीवाणु हैं जो अवायवीय परिस्थितियों में प्रकाश को रासायनिक तरीके से नाइट्रोजन में स्थिर करते हैं ।
नील-हरित शैवाल में भी नाइट्रोजन स्थिरीकरण की क्षमता होती है । यह शैवाल अब व्यापारिक स्तर पर उगाकर, सुखाकर, पैकटों में जैव उर्वरक की तरह बेची जाती है । इसका उत्पादन लगभग ५०० टन है । पांच प्रतिशत नील हरित शैवाल युक्त मिट्टी आजकल जैव उर्वरक के रूप में उपयोग की जाती है। इससे प्रति हेक्टर ३० कि.ग्रा. नाइट्रोजन उर्वरक की बचत होती है ।
नील-हरित शैवाल का अतिरिक्त लाभ यह है कि इसके उपयोग से लवणीय भूमियों में लवणीयता कम हो जाती है । धान के खेतों में उपयोग के लिए यह लाभदायक है, क्योंकि वहां इसे अपनी पैदावार के लिए अनुकूल परिस्थितियां मिलती हैं । इन शैवालों को गेहूं के खेतों में उपयोग नहीं किया जा सकता है । फिर भी इस जैव उर्वरक का दोहन, विशेषकर प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए, शैवालों की अनुकूल किस्म के विकास पर निर्भर करेगा । कृषि वैज्ञानिक इन कठिनाईयों को दूर करने के लिए अनुसंधान कर रहे हैं । जिनेटिक्स के क्षेत्र से बड़ी आशाएं हैं ।
भारतीय कृषि का दूरगामी भविष्य इन प्रयासों की सफलता पर निर्भर करता है जो अंतत: उर्वरकों पर निर्भरता कम करके पुन: प्रकृति के सहारे आगे बढ़ना सिखाता है ।
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