बुधवार, 9 नवंबर 2011

बातचीत

वनवासियों को शोषण से बचाना है
किशोरचन्द्र देव

पंचायती राज एवं आदिवासी मामलों के केन्द्रीय मंत्री किशोर चन्द्र देव से रिचर्ड महापात्र एवं कुमार संभव श्रीवास्तव की बातचीत :
अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत विस्तार (पेसा) अधिनियम १५ वर्ष पूर्व कानून बन पाया था । इसे अभी तक लागू न हो पाने से क्या आप असहाय महसूस करते हैं ?
पंचायत राज मंत्री होने के कारण मेरा सर्वप्रथम कार्य है लोगों को पेसा के अस्तित्व के बारे मेंयाद दिलाना । यदि आवश्यकता पड़ी तो मैं इसके और आगे के कानून बनाने को तत्पर रहूंगा, जिससे कि यह सुनिश्चित किया जा सके कि राज्य पेसा के प्रावधानों को लागू करें । मैं मुख्यमंत्रियों एवं पंचायती राज गतिविधियों के मंत्रियों से भी चर्चा करूंगा ।
राज्य पेसा का क्रियान्वयन इतनी लंबे समय तक कैसे रोक सकते हैं ?
दुर्भाग्य से उन्होेनें ऐसा किया है । यह संविधान का उल्लघंन है । यह क्यों और कैसे हुआ, मैं इसका जवाब नहीं दे सकता हॅूं ।
आपने हाल ही में कहा कि कोई भी निजी स्वामित्व वाली कंपनी को अधिसूचित क्षेत्र में खनन की अनुमति नहीं मिलना चाहिए । कृपया विस्तार से बताएं ।
अधिसूचित क्षेत्रों से भूमि की बेदखली को लेकर राज्यों के अपने कानून मौजूद हैं । एक व्यक्ति वहां जाकर सीधे भूमि नहीं खरीद सकता । अगर दो लोग मिलकर कंपनी बना लेते है और स्वयं को कारपोरेट कहने लगते है तो उन्हें इन इलाकों में खदानों के स्वामित्व और खनन की अनुमति कैसे दी जा सकती है ? किसी निजी फर्म को खनन की अनुमति दे दी जाती है तो यह भूमि से बेदखली से सुरक्षा के लिए बने कानूनों की अवहेलना होगी ।
सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों द्वारा खनन के संबंध में आपके क्या विचार है ?
सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों द्वारा खनिज एवं खनन को लेकर मेरे अपने संकुचित विचार हैं । सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयां केवल अपने उपयोग के लिए खनन करें । इन इकाइयों से मेरा तात्पर्य है कि जिन्हें अपने उत्पादन के लिए खनिज की आवश्यकता है न कि ऐसी कंपनियां जो खनिज का व्यापार करती है ।
क्या आप यह सुझाव दे रहे है कि केवल घरेलू उत्पादन के लिए ही खनन किया जाए ?
खनिज हमारी राष्ट्रीय सम्पत्ति है । खनन और कच्च्े खनिज का निर्यात एक आपराधिक कृत्य है । व्यापार के लिए खनिज उठाना प्रतिबंधित होना चाहिए । अधिकांश विकसित देश आवश्यक मात्रा में ही खनन करते हैं और बाकी का भविष्य के लिए सहेज कर रखते हैं । भारत अभी भी विकास के शैशवकाल में है । अगर हम आज ही अपना सारा खनिज निकाल लेगें तो तब क्या होगा जब हमारी अर्थव्यवस्था ऊपर आ जाएगी ? हमें खनिजों पर एक राष्ट्रीय नीति तैयार करने की आवश्यकता है ।
भूमि अधिग्रहण में मुआवजे का आधार बाजार मूल्य है । यह पैमाना आदिवासियों की भूमि पर कैसे लागू हो सकता है ?
यदि आदिवासी भूमि को अधिग्रहित किया जाना है तो इसकी पहली कसौटी यह है कि आदिवासियों को वन अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत पट्टे दिए जाएं । अन्यथा कोई व्यक्ति कैसे जान पाएगा कि किसके कब्जे में कितनी भूमि हैं ? दूसरा पेसा के अन्तर्गत भूमि के हस्तांतरण की अनुमति गांव ही देगा । यहां गांव का अर्थ है फालिया (घरों का छोटा समूह) न कि पंचायत । जहां तक वन क्षेत्रों में मुआवजे का प्रश्न है यह तो भूमि के बदले भूमि ही होना चाहिए ।
आपने कहा वन अधिकार अधिनियम उन अर्थो में लागू नहीं हुए जैसा कि उम्मीद कर रहे थे ?
मैने देखा है कि सन् २००८ से जबसे इस काननू पर अमल होना प्रारंभ हुआ तबसे इसमें बहुत सी बाधाएं और दिक्कतें सामने आई हैंे । इनमें से कई कानून से नहीं बल्कि नियमों और मार्गदर्शिकाआें की वजह से हैं । मैं इन्हें समाप्त् करने की दिशा में कार्य कर रहा हूूं ।
और ये मुख्य बाधाएं कौन-कौन सी है ?
बहुत सारी हैं । उदाहरण के लिए एक प्रावधान कहता है कि वनवासी लघु वनोपज की ढुलाई या तो सिर पर या सिर्फ साइकिल से कर सकते है । यह कोई व्यावहारिक बात नहीं है । एक व्यक्ति कितने बांस या तेंदु पत्ते सिर ढो सकता है ? इस हेतु किसी को भी यातायात का कोई अन्य यथोचित साधन का इस्तेमला करना ही पड़ेगा । कानून का उद्देश्य है कि वनवासी लघु वन उत्पादों पर पूरे अधिकार का आनंद उठा सकें । यदि उन्हें लघु वन उत्पादों के यातायात या बिक्री की अनुमति नहीं मिलेगी तो यह काननू की भावना की ही पराजय है ।
सामुदायिक अधिकारों का ही उदाहरण लें । वन संसाधनों पर सामुदायिक अधिकार का पट्टा ग्रामसभा को दिया जाना जाना है । परन्तु वे (वन विभाग) पट्टा उन संयुक्त वन प्रबंधन समितियों को दे रहे है, जिनका गठन वन विभाग द्वारा उन्हें दी गई भूमि की सुरक्षा व प्रबंधन के लिए किया गया है । यह वन अधिकार कानून के प्रावधानों एवं भावना के विपरीत है । यह कानून मेरी सर्वोच्च् प्राथमिकता है । मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि इस तरह की विकृति भविष्य में न दोहराइ जाए ।
आप यह कैसे सुनिश्चित करेंगे ?
यदि इस हेतु कानून में संशोधन की आवश्यकता है तो इसके लिए भी प्रयत्न करूंगा । यदि नियमों में परिवर्तन या निर्देश दिए जाने से ही कुछ समस्याआें का निराकरण हो सकता है, तो मैं ऐसा भी करूंगा ।
क्या आप संयुक्त वन प्रबंधन समितियों को अभी भी वन अधिनियम के संदर्भ में प्रासंगिक मानते हैं ?
ऐसे क्षेत्र जहां पर वन अधिकार अधिनियम लागू हो गया है वहां ये अप्रासंगिक है । वन प्रबंधन समितियां
अधिकारों के लिए नहीं है ।
क्या वन विभाग आदिवासी मंत्रालय से नाराज है ? लोगों की शिकायत है कि वह (वन विभाग) वन अधिकार अधिनियम का सम्मान नहीं करना चाहता ।
इसके निपटारे की आवश्यकता है । भारत वन अधिनियम सन् १९२७ में प्रभावशील हुआ । इस तरह तकनीकी रूप से कहे तो वनों की जन्म तिथि १९२७ है । परन्तु वनवासी वहां शताब्दियों से रह रहे हैं । मेरे विचार से यह तो वन विभाग है, जिसने की वनों में रहनें वालों मूल निवासियों की भूमि पर अतिक्रमण किया है । महज गजट के एक कागज के माध्यम से विभाग वन भूमि का स्वामी नहींहो जाता ।
वन अधिकार अधिनियम के लागू न होने का दोष क्या आप वन विभाग को देते है ?
लागू न होना बहुत ही कोमल वाक्य है । वे तो इसके प्रति नकारात्मक रूख रखते है ।
क्या आप सोचते हैं कि केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन विभाग वन अधिकार अधिनियम की तार्किक परिणिति की राह में रोड़ा है ?
पहले था । जिस वक्त मैं वन अधिनियम की संयुक्त समिति का अध्यक्ष था, उस दौरान कई रूकावटें खड़ी की गई । अब यह कम हो रही है। प्रशासन को अब स्पष्ट अनुभव हो गया है कि यह एक वास्तविक कार्य है और वन अधिकारों के मौर्चे पर कुछ न कुछ किया जाना आवश्यक है ।
विभाग द्वारा वन अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत लघु वन उत्पाद की परिभाषा में बांस और तेंदु पत्ते को शामिल न करने पर आपका क्या कहना है ?
अब यह मामला निपट गया है । बांस और तेंदु पत्ता दो सबसे लाभकारी लघु वनोपज है । वन विभाग का इन पर कोई हक नहीं है । अब मुझे सिर्फ इस परिभाषा को लागू करवाना है ।
आप यह किस प्रकार सुनिश्चित करेगें कि लघु वनोपज संबंधी अधिकार वनवासियों को दे दिए जाएं ?
लघु वनोपज के लिए मंत्रालय एक पैकेज पर कार्य कर रहा है । लघु वनोपज (उत्पाद) पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गठित टी.हक समिति की रिपोर्ट के आधार पर हम योजना आयोग एवं संबंधित मंत्रालयों के साथ मिलकर एक रिपोर्ट बनाने पर गंभीरता से कार्य कर रहे है । हम शीघ्र ही राज्यों के सचिवों से भी मिलेंगे, क्योंकि इस मामले में उनकी भी हिस्सेदारी है । इस सलाह मशविरे के बाद इसकी स्वीकृति हेतु एक मंत्रीमंडलीय नोट तैयार किया जाएगा जिसे एक महीने में स्वीकार कर लिया जाएगा ।
इस पैकेज में क्या-क्या प्रावधान हैं ?
यह अभी निर्माण प्रक्रिया में है । इसका मुख्य ध्येय यह सुनिश्चित करना है कि वनवासियों को उनके द्वारा एकत्रित लघु वनोपज से अधिकतम लाभ मिल सके और बिचौलिये एवं सरकारी एजेंसियां उनका शोषण न कर सकें ।
क्या लघु वनोपज के लिए न्यूनतम मूल्य निर्धारण संभव है ?
हमेंइसे संभव बनाना होगा ।

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